निरुपमा या उसके जैसी अनगिनत लड़कियों कि मौत ने समाज के तीन चेहरों को सामने रखा है. पहला तो वो जो सीधा सीधा क़त्ल का विरोध करता है और व्यक्ति की स्वतंत्रता को एहमियत देता है, दूसरा वो जो खाप पंचायत की तरह अक्खड़ है और लड़कियों के चौखट लांगने पर मुह पर तकिया रख कर सांस रोक देने को सही मानता है. पर तीसरा चेहरा सबसे ज्यादा घिनोना है क्यूंकि ये वो लोग हैं जो अपनी बेटियों को इज्ज़त के नाम पर जान से मारने का हौसला तो नहीं रखते पर उन्हें मानसिक रूप से प्रताड़ित ज़रूर करते हैं, ये वो चेहरा है जो समाज में खुद को शरीफ और नए ख्यालात वाला दिखाता है पर अपनी बेटियों और बहनों को ताले में बंद रखता है. यही वो समाज है जहाँ लड़की कि ज़बरदस्ती शादी कर दी जाती है. हिंदी फिल्मों का वो विलन जो बेटी के प्रेमी को गुंडों से पिटवाता है इस चेहरे से हुबहू मिलता है.
गैर बिरादरी में शादी करना. दूसरी ज़ात के शख्स से कोई ख़ास रिश्ता कायम करना हमारे समाज में गुनाह है. ख़ास कर तब जब ऐसा घर की बेटी करे. बेटी का boyfriend नाम के शख्स के लिए हमारे यहाँ कोई जगह नहीं होती. हाँ बेटे की girlfriend के घर पर फ़ोन आने की छूट ज़रूर होती है. हमारा मिडल क्लास हाई सोसाइटी के समकक्ष खड़े होने की होड़ में लगा हुआ है. वो भी शानदार पार्टियों में नाचना चाहता है, समाज की परवाह किये बिना मस्ती में हंसना चाहता है पर दूसरी तरफ अपने पड़ोसियों के आगे संस्कृति की दुहाई भी यही देता है. सामने वाले घर में अगर ऊँची आवाज़ में गाने बजे तो दरवाज़ा पीट कर तमीज भी अपना मिडल क्लास ही सिखाता है. ये बात और है कि अगर किसी कि नज़र ना पड़े तो अपने घर का कूड़ा दूसरों के घर के सामने फेंकने से इस नोकीली नाक वाले समाज को गुरेज़ नहीं होता. दो चेहरे तो आज हर शख्स के हैं लेकिन दो सभ्यताओं और दो मान्यताओं के बीच इस दोगले समाज की हालत थाली के बेंगन जैसी हो गयी है. रियालिटी शोज़ में टीवी पर थिरक रहे बच्चों को देख कर ये कभी मुस्कुराता है, कभी रोता है. किसी की जीत पर खुश तो किसी की हार पर उदास होता है लेकिन अपनी ही बेटी के 'डांस क्लासेस' ज्वाइन करने की जिद को सिरे से खारिज कर देता है.
एक मिडल क्लास परिवार में माँ बाप अपने बच्चों को पढ़ाते हैं, पालते हैं इस उम्मीद के साथ कि वो आगे चल कर उनका नाम रौशन करेंगे. उनकी मर्ज़ी से घर बसायेंगे, अगर बेटा है तो अच्छा दहेज़ लेंगे अगर बेटी है तो रुखसत कर के अपना फ़र्ज़ उतारेंगे. हमारे मिडल क्लास समाज में अच्छी औलादें नहीं होतीं. यहाँ अच्छा बेटा या अच्छी बेटी होती है. अच्छा बेटा वो है, जो नशा ना करे, सड़क पर मार पीट ना करे, पढाई करके अच्छी नौकरी करते हुए अपना घर बसाये, शादी के बाद बीवी की तरफ से ना बोले और माता पिता का साथ देते हुए कभी कभार बीवी को डांट फटकार भी लगाता रहे. लेकिन अच्छी बेटी बनने के लिए फेहरिस्त थोड़ी लम्बी है. सबसे पहले, अच्छी बेटियों का मतलब होता है जिसका कोई boyfriend ना हो. जो पढ़ाई करे co-education भी ले. पर लड़कों से ज्यादा बातचीत ना करे, अपने रिश्तेदारों के बीच गवांर ना लगे पर modern भी ना हो. जॉब करना चाहे तो करे पर शाम 6 बजे तक घर आजाये. घर का काम काज भी अच्छे से जानती हो, छुटी के दिन किचन में हाथ बंटाए. खाना अच्छा पकाए और अंग्रेजी भी अच्छी बोलती हो. शादी के बाद नौकरी का ख्याल दिल से निकाल कर अपनी सारी पढ़ाई और उपलब्धियों को भूल कर परिवार कि देख रेख में लग जाए. लेकिन हमे हमेशा वो नहीं मिलता जो हम चाहते हैं और नई पीढी ने हमेशा ही पुरानी पीढी को निराश ही किया है. तो फिर अगर बेटे ने किसी को पसंद किया और घर से दूर जा कर अपनी ज़िन्दगी बसा ली तो कुछ रोने-धोने, कुछ इमोशनल ब्लैक मेल के बाद बेटे के कारण बहु को आधे मन से ही सही अपना लिया जाता है. पर अगर बेटी ऊँची उड़ान भरने लगे, अगर बेटी प्यार मोहब्बत में पड़ जाए तो क्या करें ? इज्ज़त के नाम पर उसकी बलि चढ़ा दें ? हाँ. क्यूँ नहीं क्यूंकि इज्ज़त बड़ी मुश्किल से मिलती है, दुनिया में इज्ज़त कमाने में बरसों लग जाते हैं पर गवाने में एक पल लगता है. वैसे भी मिडल क्लास के पास इज्ज़त के अलावा और है भी क्या. असल में मिडल क्लास के पास आँख नहीं है कि वो बदलती दुनिया को देख सके, कान नहीं है कि मासूम ख्वाहिशों को सुन सके पर हाँ नाक ज़रूर है बेहद ऊँची और नुकीली. अगर किसी ने पंख फैला कर उड़ना चाहा तो इसी नुकीली नाक से उसके परों को काट दिया जाता है.
निरुपमा ने अपना जिला छोड़ते वक़्त आँखों में छोटे छोटे ना जाने कितने ख्वाब सजाये होंगे. सोचा होगा 'ज़िन्दगी में कुछ कर दिखाउंगी सबसे जीत जाउंगी' उसकी सहेलियां जिनके साथ बचपन में खेली उनमें से ज़्यादातर शादी के बंधन में बंध चुकी हैं या फिर किसी अच्छे रिश्ते के इंतज़ार में हैं. पर वो अलग थी कुछ करना चाहती थी आगे बढ़ना चाहती थी. सोचा था अपनी ज़िन्दगी को अपने हिसाब से जियेगी. माता पिता ने हमेशा ही उसका साथ दिया, पढाई के लिए कभी नहीं रोका. आगे बढ़ने के लिए रुकावट नहीं बने. उसके यहाँ लड़कियों को ज्यादा नहीं पढाया जाता पर पिता ने उसे दिल्ली भेजा, घर छोड़ते वक़्त मन में एक डर था पर आगे की ज़िन्दगी के ख्वाब उसे अपनी तरफ खींच रहे थे. उसके पिता का समाज में काफी रुतबा था देश की सबसे बड़ी university में उनकी बेटी का पढना उनके रुतबे में इजाफा करता. पर रुतबे को बढ़ाने वाला प्लान रुतबे को ले डूबने पर तुला था तो क्या करते. बेटी कि ज़िन्दगी रुतबे से ऊँची तो नहीं ही होती.
निरुपमा की मौत सिर्फ एक इंसान का क़त्ल नहीं है इस क़त्ल ने उस ख्वाब को ज़ख़्मी किया है जो बड़ी मुद्दतों के बाद लड़कियों ने देखना शुरू किया है.
( नवभारत टाईम्स में 19 मई को प्रकाशित )