Friday 31 December 2010

हिप-हॉप पर हाय हाय

वैसे तो हिप-हॉप जेनरेशन से लोगों को ज्यादा उम्मीदें नहीं हैं. बड़े बुज़ुर्ग कहते हैं की देश का भविष्य नरक में है क्यूंकि वो एक ऐसी पीढ़ी के हाथों में है जिसके बायें बाजू पर बड़ा सा टेटू है और दायें हाथ में अंग्रेजी गानों से भरा आई पोड. शिकायत ये भी है की आज की जेनरेशन बोले तो 'हिप-हॉप पीढ़ी' बस पार्टियाँ करने में और सोशल नेट्वर्किंग साइट्स पर चेटिंग करने में व्यस्त है. नाराज़गी के अंबार की तरफ नज़र दौडाएं तो ऐसी अनगिनत उलझने दिख जायेंगी जो बड़े बुजुर्गों को परेशान किये हुए है.

चारपाई पर बैठे एक अंकल हुक्का गुडगुडाते हुए कहते हैं 'आज की पीढ़ी नहीं जानती की संस्कृति किसे कहते हैं'
सच है तभी तो आज की कथित बिगड़ी जेनरेशन मंदिर में हाथ भी जोड़ लेती है और गुरूद्वारे में माथा भी टेक लेती है, दोस्तों के साथ चर्च जा कर मोमबत्ती जलाने में भीं इस जेनरेशन को कोई आपत्ति नज़र नहीं आती. साथ ही मज़ारों पर जा कर ख्वाहिशों के धागे भी बाँध लेती है. उनकी भगवान एक है वाली फिलोसफी किसी को अच्छी नहीं लगती. आज के बच्चे यारी दोस्ती को इतनी एहमियत देते हैं की धर्म और जाती जैसे ढकोसले उनके लिए मायने नहीं रखते. माता पिता कितना भी समझाएं ' वो छोटी ज़ात का है उसके साथ मत रहा करो' या 'वो अपने धर्म का नहीं है उससे दोस्ती मत बढाओ' ये जुमले आज के बच्चों पर असर नहीं करते. एक वक़्त था जब बच्चे माँ-बाप की इस बात को गाँठ बाँध लेते थे की 'दोस्ती हमेशा बराबरी में होती है' मगर आज की बदनाम पीढ़ी के दोस्तों की फेहरिस्त में हर क्लास और सोसाइटी के युवा शामिल होते हैं.
कौन बिगड़ रहा है इसका फैसला किस बात से होता है. हम कितनी बार बड़ों के पैर छूते हैं या इस बात से की हम किसी बुज़ुर्ग महिला को बस में सीट देते हैं, किसी नेत्रहीन का हाथ पकड़ कर रास्ता पार करवाने में मदद करते हैं. हिप-हॉप जेनरेशन की कौन सी बात सबसे नागवार गुज़रती है. शायद अपनी जिद पर अड़ जाना या शायद मस्त रहना. क्या खुश रहना ग़लत है, बेवजह हँसना ग़लत है या अपनी सोच को साबित करने की ललक ग़लत है ? आज बच्चे पंद्रह साल की उम्र में ही तय कर लेते हैं की उन्हें क्या करना ही, उन्हें ज़िन्दगी से क्या चाहिए. इन्फोर्मेशन टेक्नोलोजी ने आज के युवाओं को सब कुछ एक साथ संभालना सिखा दिया है. दौड़ इतनी तेज़ है की सब भाग-भाग के हकलान हो रहे हैं, रुकने का वक़्त नहीं है, नब्बे प्रतिशत नंबर लाने का प्रेशर भी सर पर सवार है इस पर भी ये हिप-हॉप गेनरेशन वक़्त निकालती है अपने लिए, सड़कों पर मटरगश्ती करने के लिए, सिनेमा हॉल में सीटियाँ बजाने के लिए और तो और बेधड़क ऊँची आवाज़ में गाने बजाने के लिए.

मुंह में पान चबा रहे एक अंकल ने सड़क किनारे पीक थूकते हुए पेशानी पर हाथ रखते हुए कहा ' नौजवान पीढ़ी ज़िम्मेदार नहीं हैं' माना आज की जेनरेशन का नारा है 'जागो रे' माना की आज के युवा वोटिंग को एहमियत देते हैं, माना की आज के युवा अपने स्कूल-कॉलेजों में सोशल इशुज़ पर सेमीनार और डिबेट प्रोग्रामस आयोजित करते हैं, माना की आज के युवा गेर सरकारी संस्थाओं से जुड़ कर ख़ामोशी से कोई हल्ला मचाये बिना काम करते हैं, पर इससे क्या होगा.

टीवी के सामने बैठे चाचा जी हेलेन का 'पिया तू अब तो आजा' देखते हुए कहते हैं आज कल बच्चे सिर्फ नाच गाने की तरफ आकर्षित हो रहे हैं, पर शायद चाचाजी ने इस बात को जानने की ज़हमत नहीं उठाई की जिन म्यूजिक चेनल्स पर कल तक सिर्फ अंग्रेजी गाने चलते थे और जिन पर हिंदी भाषा में एक लाइन बोलना भी शर्म की बात समझा जाता था आज उसके होस्ट्स हिंदी क्यूँ बड़बड़ाते हैं. म्यूजिक चेनल्स जो दस साल पहले लव प्रोब्लेम्स सोल्व करने और दूसरों को बकरा बनाने का काम करते थे आज ड्रग्स से बचने, ट्रेफिक नियमों का पालन करने और बिजली-पानी बचाने का सन्देश क्यूँ देते हैं. क्या सही में हमारी यंग जेनरेशन के बदलने से कोई ख़ास नुक्सान हुआ है ?

यंग जेनरेशन का तो मतलब ही जोश होता है. तो जाहिर है जोश तेज-तर्रार होगा, कभी-कभार आपे से बाहर भी हो सकता है. फिर आज ही क्यूं ये तेजी तो आज से बीस साल पहले के युवाओं ने भी महसूस की होगी और उन्हें भी रास्ता भटकने के ताने सुनने ही पड़े होंगे. घर की ज़मींदारी और पिता की दुकान पर बैठने की जगह खुद अपना काम शुरू करने से लेकर सरकारी नौकरी के लिए कदम बढ़ाना, पचीस-तीस साल पहले युवा पीढी के ठोस कदम थे. और अगर बात की जाए साठ-सत्तर बरस पहले की तो उस वक्त युवा पीढी ने अंग्रेजों की सत्ता को स्वीकार करने की जगह अपनी पहचान के लिए हथियार उठाएँ थे. यंग जेनरेशन बदनाम थी, बदनाम रहेगी.

हिप-हॉप जेनरेशन के बायें हाथ पर टेटू और दायें में अंग्रेजी गानों से भरा आई पोड ज़रूर है पर दिल और दिमाग में एक जज्बा है, नेक नियत है, ओब्सर्वेशन पॉवर है जिसे तानो की नहीं तालियों की ज़रुरत है.

Monday 27 December 2010

माया जादू

बेलगाम ख्वाहिशें दर्द के ऐसे रास्ते पर ले जाती है जहाँ से लौटना नामुमकिन होता है. ख्वाब, मोहब्बत, वासना, एक ही माला के मोती हैं.जब तक माला गुंथी हुई है खूबसूरत है पर जैसे ही एक मोती भी गिरा, धीरे-धीरे सारे मोती बिखर जायेंगे. जो मोती साथ में सलीके से बंधे चमकते हैं वो ज़मीन पर बिखर कर पांव में चुभेंगे. केतन मेहता की माया मेमसाब 90 के दशक की सबसे बोल्ड फिल्मों में से एक है. दीपा साही यानी माया खुद से कहती है "आगे मत बढ़ो वरना जल जाओगी, पर रुक गयी तो क्या बचोगी" सपनो के राजकुमार का इंतज़ार करने वाली, रूमानी किस्सों में डूबी रहने वाली , गीत गुनगुनाने वाली माया जब फारुख शेख यानी डॉ. चारू दास से मिलती है तो उसे नज़र आता है वो लम्हा जब दोनों एक दूसरे से बातों बातों में खेलते हैं. लफ़्ज़ों की जादूगरी माया को उस डॉक्टर की तरफ आकर्षित करती है. बड़े से महल में अपने बूढ़े पिता के साथ अकेले रहने वाली माया को फारूख में अपनी रूमानी कहानियों के सच होने का रास्ता दिखने लगता है. फारुख शादीशुदा है पर माया का जादू उन पर चढ़ जाता है. चारू ने अपनी बीवी को कुछ कुछ वैसा ही धोका दिया जैसा आगे चल कर माया चारू को देती है चूँकि माया बेलगाम है उसकी बेवफाई का स्तर इतना ऊँचा हो जाता है की खुद माया का दम घुटने लगता है.


चारू की पत्नी के मरने बाद माया उसकी ग्रहस्ती में आती है. जो माया अपनी पुरानी हवेली में घूमती-नाचती फिरती थी बंद कमरे के मकान में बस जाती है. अब तक सब ठीक था पर परेशानी तब खड़ी हुई जब शादी के बाद भी माया अपने "आईडिया ऑफ़ रोमांस" से बाहर नहीं आई. उसने डायरी पर ख्वाबों का महल बनाना नहीं छोड़ा उसने प्रेमी के साथ भाग चलने के ख्वाब देखने नहीं छोड़े, उसकी रोमांस की चाहत शादी पर खत्म नहीं हुई वो प्रेमी द्वारा सबसे ज्यादा चाहे जाने, बाहों के घेरे में दिन भर बैठे रहने और आँखों की तारीफ़ में कसीदे पढवाने को अब भी बेचैन थी. यही थी माया की भूल. कवितायेँ पत्नी के लिए नहीं प्रेमिका के लिए लिखी जाती हैं ये माया की समझ नहीं आया. अपनी ज़िन्दगी में वो अब भी तलाशती रही वो राजकुमार जो उसे निहारे, उसके लिए बेचैन रहे, आहें भरे. माया को ये मिला जतिन (शारुख खान) में, फिर रूद्र (राज बब्बर) में और फिर जतिन में, प्लेटोनिक फिर जिस्मानी और फिर ओबसेशन. भावनाएं कितनी तेज़ी से तीव्र होती हैं इसकी गति का पता नहीं चलता. मालूम होता है तब जब आप रुकना चाहते हुए भी रुक ना सको. फिर चाहे जितनी भी चैन खींचो ट्रेन रूकती नहीं. माया जानती है "शुरुआत का कोई अंत नहीं"

लेकिन माया का अंत उसके ख्वाबों ने नहीं बल्कि हकीक़त ने किया. अपनी खाली ज़िन्दगी को कभी प्रेम संबंधों से तो कभी महंगे फर्नीचर से भरते हुए माया को अंदाजा नहीं हुआ, ख्वाबों के पैसे नहीं लगते पर ख्वाबों को हकीक़त का रूप देने में खजाने कम पड़ जाते हैं. आँखों पर ख्वाहिशों की पट्टी बांधे वो अपने घर को आलिशान बनाने और अपनी ज़िन्दगी को परियों की कहानी सा बनाने में लगी रही. पर जब उधार हद से पार हुआ और रिश्ता ओबसेशन में तब्दील दोनों ने ही उसके मुह पर तमाचा जड़ा.

अपने घर को नीलामी से बचाने के लिए माया के सामने शारीरिक सम्बन्ध बनाने का प्रस्ताव रखा गया. माया अपने जिस्म को छुपाये अपने पुराने प्रेमी प्रूद्र के पास गयी लेकिन वहां भी माया के जिस्म की ही पूछ थी उसकी तकलीफों के लिए जगह नहीं थी. रूद्र को अब माया में कोई दिलचस्पी नहीं थी जो उसकी मदद करता. माया दूसरे प्रेमी जतिन की बाहों में जा समायी और सब कुछ बचाने की गुहार लगायी. पर जतिन माया के किसी और से हमबिस्तर होने की बात पर आग बबूला तो हो सकता था पर उसे बेघर होते देखते हुए बेहिस था. मदद के दरवाज़े वहां भी बंद थे.

अपनी परियों की कहानी का ये अंजाम माया के बर्दाशत से बाहर था पर माया खूबसूरत इत्तेफाकों में यकीन करती थी तभी उसने एक बाबा का दिया "जिंदा तिलिस्मात" पी लिया. वो घोल ज़हर था या जादुई पानी माया नहीं जानती थी. माया जीते जी ख्वाबों के सच होने की कोशिश करती रही और मरते वक़्त भी किसी अलिफ़ लैला की कहानी के सच होने का इंतज़ार करती रही. ना उसके साथ सच ही रहा ना किस्सा ही. ज़िन्दगी कहाँ खत्म होती है और मौत कहाँ से शुरू होती है ये रास्ता दुनिया के किसी भी नक़्शे पर नहीं है, शायद माया को उस रास्ते पर चलते हुए ख्वाबों की पगडण्डी मिल गयी हो.वो दुनिया की तरह मौत को भी धोका देती हुई उसी पगडण्डी पर आगे चली जा रही हो.

Saturday 4 December 2010

फतवों का फंदा

फतवों को आमतौर पर आदेश के रूप में माना जाता है, गैर मुस्लिम समुदायों में बल्कि खुद मुस्लिम समाज में फतवों को लेकर अनगिनत ग़लतफ़हमियाँ हैं. असल में, मुफ्ती साहब से कोई भी मुस्लमान इस्लाम से जुडी उलझनों के बारे में सवाल कर सकता है. और इसी के जवाब में फतवा दिया जाता है. ये फतवा उस पूछे गए सवाल का जवाब होता है. तो फतवा अपने आप में एक राय है ना की आदेश. ये राय उसी एक ख़ास व्यक्ति को दी जाती है जिसने वो सवाल पूछा हो. उस राय पर अमल करना या ना करना उस इंसान की अपनी मर्ज़ी होती है. फतवों का आना कोई नई बात नहीं है चूँकि ये फतवे धार्मिक उलेमाओं और मुफ्तियों द्वारा दिए जाते हैं तो इन फतवों में किसी आधुनिक राय की उम्मीद करना बेवकूफी होगी. मसला ये है की किसी भी फतवे के आने पर टेलीविजन शोज़ में जिस तरह की बेहस देखी जाती है लगता है मानो ओसामा ने कोई टेप जारी कर दी हो. जिस दकियानूसी राय को समाज में रत्ती भर भी महत्व नहीं मिलना चाहिए उसे जम कर पब्लिसिटी मिलती है. हमारे यहाँ औरत के लिबास और उसकी शख्सियत से जुडी बातों को जितने मजेदार तरीके से परोसा जाता है उतना ही चटखारे लेकर स्वीकार भी किया जाता है.

एक औरत किस मज़हब को अपनाती है, किस तरह के कपडे पहनती है, ऑफिस में किससे बात करती है किसे नज़रंदाज़ करती है. ये किसी भी औरत का बुनियादी हक है उतना ही जितना किसी मर्द को ये हक है कि वो कैसे जिए. किसी भी मुल्क के संविधान के पन्नो पर नज़र दौडाएं तो वहां देशवासियों के हक और जिम्मेदारियों की फेहरिस्त मौजूद है. पर सामाजिक ताने बाने के कारण ज़मीन पर आते आते ये फ़र्ज़ और जिम्मेदारियां यानी राइट्स और ड्यूटीस अपनी शक्ल जेंडर देख कर बदल जाती हैं. एक पंडित अगर भगवा कपडे पहनता है या फिर अघोरी लंगोट धारण करता है तो कोई एतराज़ नहीं जताता पर किसी महिला के ‘ओशो संस्थान’ से जुड़ने पर लोगों की नज़रें टेढ़ी हो जाती हैं. फेशन की दुनिया में रेम्प वॉक अकेले फिमेल मॉडल्स नहीं करती, स्विमिंग कोसट्युम्स सिर्फ लड़कियों के दुबले शरीर पर नहीं सजते बल्कि पुरुष मॉडल्स भी बड़े एतमाद से स्टेज पर उतरते हैं मगर संस्कृति के नाम नारेबाजी बस औरत के कपड़ों पर ही की जाती है. कभी कोई प्रदर्शन ‘मिस्टर इंडिया’ कांटेस्ट के खिलाफ नहीं हुआ.


आज दुनिया दो गुटों में बंट गयी है. पहली वो जो काफी हद तक तालिबानी व्यवस्था की समर्थक है, मज़े की बात तो ये है इन्हें खुद ही नहीं मालूम कि ये कितनी दोहरी शख्सियत रखते हैं. ये इस्लामिक फतवों के विरोधी हैं पर टीवी सीरियलों में हर वक़्त साड़ी में लिपटी, पल्लू सर पर ओढ़े, रोती सिसकती नायिका को आदर्श गृहणी मानते हैं. चार लोगों के बीच बुरखे को औरत की आज़ादी का दुश्मन मानने वाले खुद अपनी बहुओं को घूँघट में ढांक कर रखते हैं. बेटी के कॉलेज से दस मिनट लेट घर आने पर सवालों की झड़ी लगा देने वाले भी नकाब को औरत पर ज़ुल्म मानते हैं. दूसरी तरफ वो लोग हैं जिन्हें महिला सशक्तिकरण सिर्फ ‘मिनी स्कर्ट’ में नज़र आता है. इन्हें लगता है छोटे कपडे और प्री-मेरिटल सेक्स को सपोर्ट करना ही प्रगतिशील विचारधारा है. अपने करियर को महत्त्व देने वाली महिलाओं को 'करियर बिच' पुकारने वाले समाज में अगर कोई लड़की 18 साल की उम्र में पढाई छोड़, शादी करके माँ बन जाती है तो उसे 'डेडिकेटेड वाइफ' कहा जाता है. नकाब ओढ़ कर कांफेरेंस रूम में मीटिंग करती हुई औरत को ये बेकवर्ड मानते हैं. फ्रांस और तुर्की में बुरखे पर प्रतिबन्ध लगाते वक़्त उन औरतों की आज़ादी को कोई महत्त्व नहीं दिया जाता जो अपनी मर्ज़ी से हिजाब लेती हैं. ये कुछ कुछ वैसा ही है जैसे कट्टर इस्लामिक देशो में बुरखे के बिना घर के बाहर निकलने पर पाबंदी है. यहाँ औरत की अपनी मर्ज़ी कोई एहमियत नहीं रखती.

कोई आदमी क्या पहनना चाहता है क्या नहीं ये उसकी खुद की पसंद नापसंद पर निर्भर करता है. आदमी मन मुताबिक जींस भी पहनते हैं, कुरता पजामा भी पहन सकते हैं. चाहें तो शोर्ट्स में भी गली के चक्कर लगा लेते हैं. लेकिन जब बात लड़कियों की आती है मामला थोड़ा सा उलझ जाता है. वो साड़ी पहने तो बहनजी कहलाती है, बुरखा ओढ़े तो पुरातनपंथी कही जाती है और अगर ‘शोर्ट स्कर्ट’ पहने तो आवारा का खिताब पाती है. मुख्तलिफ मुल्कों में मुख्तलिफ तरीकों से औरत के लिए ‘ड्रेस कोड’ बनाने की कोशिश की जाती रही है. जहाँ भी औरत की बात आती है वहां मज़हब कट्टर हो जाते हैं जैसे मुस्लिम कामकाजी महिलाएं मर्दों से बात ना करें, मुस्लिम महिलाएं परदे में रहे, मुस्लिम महिलाएं मोडलिंग ना करें. इस तरह का कोई भी फतवा मर्दों के लिए जारी नहीं होता, इसकी वजह ये है कि कोई मुफ्ती साहब से मर्दों से जुडी सही गलत बातों के बारे में सवाल ही नहीं करता.

इस बात पर गौर करना ज़रूरी होगा कि कुछ महीने पहले एक फतवे में कहा गया था की मुस्लमान कामकाजी महिलाएं अपने पुरुष सहकर्मियों से बात चीत ना करें. इस्लाम के आखिरी पैगम्बर की बीवी 'खदीजा' खुद एक कामकाजी महिला थीं. हदीस के हिसाब से 'खदीजा' अपने वक़्त कि बेहद रईस औरतों में से थीं. ज़ाहिर सी बात है अगर वो ‘बिजनस वूमेन’ थीं तो उनके सहकर्मी मर्द रहे भी होंगे और उनसे ज़रूरी या गेंर ज़रूरी बातचीत भी होती होगी. अपने मौलानाओं की कोई भी बात आँख बंद कर मान लेने वालों को थोड़ा अपना दिमाग भी इस्तेमाल करना चाहिए.

Friday 29 October 2010

रिच्ची, मिड्डी और झुग्गी

‘रिच्ची’ तेज़ म्यूजिक बजाता हुआ अपनी लम्बी गाडी में दिल्ली की चमाचम सड़कों से चला जा रहा था तभी उसकी नज़र बस स्टैंड पर खड़े ‘मिड्डी’ पर पड़ी. पहले तो उसने सोचा गाडी ना रोकूँ फिर सीना चौड़ा करते हुए नई नई गाडी का टशन मारते हुए गाडी ठीक मिड्डी के सामने रोकी. "हे कैसे हो, कहाँ जा रहे हो आओ मैं तुम्हे ड्रॉप कर दूँ." मिड्डी पहले तो गाडी के जूँ से आ कर रुकने पर चौंका फिर जब रिच्ची पर नज़र पड़ी तो थोड़ा झिझकते हुए बोला "अरे नहीं तुम जाओ...मैं बस से चला जाऊंगा, असल में इस गाडी का पोस्टर तो ज़रूर शौक से देखता हूँ पर बैठते हुए डरता हूँ" रिच्ची ने थोड़ा हैरानी से पुछा "अरे डरते क्यूँ हो, न्यू मॉडल है, कल ही पापा के आर्डर पर आई है, स्पेशली मेरे लिए". मिड्डी ने फ़ौरन कहा " नहीं नहीं रिच्ची, मॉडल तो बहुत अच्छा है लेकिन मैं डरता इस बात से हूँ आज तो बैठ जाऊंगा पर फिर रात भर इस आलिशान गाडी की सैर याद आती रहेगी" "ओह्हो..कितना सोचते हो तुम, आओ बैठो" रिच्ची ने दरवाज़ा खोल दिया.

"हाँ तो तुम कहाँ जा रहे हो" रिच्ची ने गाडी फिर से स्टार्ट करते हुए पुछा. "असल में कॉलेज का प्रोजेक्ट पूरा करना था कॉमनवेल्थ खेल,भरष्टाचार और युवा पर मैंने सोचा मिडल क्लास के एंगल से तो सब लिख ही रहे हैं तो अपने बारे में लिखने का कोई फायेदा नहीं है, फिर सोचा तुमसे मिलूं लेकिन लगा तुमने कहाँ कॉमनवेल्थ देखे होंगे, तुम तो बिजी होगे, पार्टीस और ओउटिंग में, है ना ? इसीलिए ज़रा ‘झुग्गी’ से मिलने रहा था" मिड्डी ने अपनी फेक 'लीवाइस' की शर्ट का कॉलर ठीक करते हुए बताया. इस पर रिच्ची थोड़ा बुरा मानते हुए बोला " वॉट आर यू सेयिंग मैन, मैंने inaugration वी.आई.पी सीट्स पर बैठ कर देखा था. पापा ने बड़ी मुश्किल से पासेस अरेंज किये बट तुम्हे तो पता है, मनी है तो सब कुछ फनी है...बस कुछ नोट ढीले करो और काम बन जाता है. अब देखो ना लास्ट इयर जब मैं exams में चीटिंग करते हुए पकड़ा गया था. मुझे तो लगा था काम खत्म लेकिन पापा सब ठीक कर देते हैं. उस पेपर में तुमसे ज्यादा अच्छे मार्क्स आये थे मेरे." तभी गाड़ी को एक हल्का सा झटका लगा "ओह माई गोंड ! ये गढ्ढा कितना खतरनाक था. ठंग की सडकें भी नहीं बना सकते, इस देश का कुछ नहीं हो सकता, इतना करप्शन है...तुम्हे पता है? इस गाड़ी को यू.एस से मंगवाने के लिए पापा ने कितने लोगों को पैसा खिलाया...अब नहीं खिलाते तो ये कार मेरे बर्थडे से पहले नहीं आती, यू नो द सिस्टम" "खैर तुम बताओ क्या चल रहा है आज कल" रिच्ची ने रेड लाइट पर गाड़ी रोकते हुए पूछा. "कुछ ख़ास नहीं बस कॉमनवेल्थ के लिए volunteering की, ये तजुर्बा मेरे सी.वी में जुड़ जाएगा तो अच्छा होगा ना, पापा की उम्र हो गयी है अब वो भी सब-इंस्पेक्टर की नौकरी से थक चुके हैं. सोचता हूँ कुछ करने लायक हो जाऊं तो उनसे कहूँ...बस पापा अब और रिश्वत लेना बंद करिए, मैं अब आपका हाथ बंटा सकता हूँ. पता है कल बिजली मीटर चेक करने वाला घर आया. उसने मीटर की गड़बड़ पकड़ ली, लगा धमकाने की फाइन होगा, ब्लेक लिस्टेड होगे...फिर पापा से उसकी फ़ोन पर बात करवाई, थोड़ा लेन देन और मामला सेट, अब बताओ बिना कुछ लिए ये सरकारी चोर मानते ही नहीं."

झुग्गी के आशियाने के पास गाड़ी रुकी, झोपड़ पट्टी के पास लगे कॉमनवेल्थ के पोस्टर्स जगह जगह से फट गए थे, जिन शानदार होरडिंगस ने इलाके को छुपाने की कोशिश की थी वो हट चुके थे. रिच्ची ने मिड्डी को सड़क किनारे उतरा और अपने रास्ते चल दिया. मिड्डी ने देखा झुग्गी बाहर ही खड़ा था "अरे मिड्डी तुम यहाँ, क्या बात है आज तो बड़े लोग आये हैं. क्या हुआ" झुग्गी ने मिड्डी को देखते ही पूछा. "बस ज़रा अपने कॉलेज का कुछ काम था, कुछ सवाल करूँगा फ़टाफ़ट से जवाब देना" मिड्डी से वहां खड़ा रहना थोड़ा मुश्किल हो रहा था, उसका ध्यान ना चाहते हुए भी बार बार झुग्गी के गंदे बालों पर चला जाता और वो दूसरी तरफ देखने लगता लेकिन जहाँ देखता वहां ऐसा ही कुछ दिखता जिससे तबियत बिगड़ जाती...कभी पास बहती नाली पर नज़र पड़ती तो कभी झोपड़ों के पासें बने कूड़ेदान पर. झुग्गी शायद मिड्डी की हालत समझ गया था तभी बोला "अरे इतना घबराओ मत.. पूछो जो पूछना है और भागो यहाँ से"

अच्छा बताओ मिड्डी ने नाक पर रुमाल रखते हुए सवाल किया "कोमन्वेअल्थ से क्या मिला?" झुग्गी ने कहा "फूटपाथ पर दुकाने ना लगने, सिग्नल पर सामान ना बेचने से झोपड़ों में भूख.
मिड्डी ने पुछा "तुम सरकार की नज़र में क्या हो?
झुग्गी बोला "वो कूड़ा जिसे झाड़ू मार कर बिस्तर के नीचे कर दिया जाता है"
मिड्डी ने आखरी सवाल किया " तुम्हारी नज़र में भरष्टाचार क्या है?"
झुग्गी ने जवाब दिया "भीख में मिले २५ रूपए में से जब १० रूपए ट्राफिक हवालदार को देने पड़ें."

Sunday 26 September 2010

बरसात की उलझन

ज़मीन पर आवाज़ गूंजी "यार ये बारिश क्यों होती है? बरसात कब खत्म होगी? ये बरसात आती ही क्यों है? उफ़्फ, बरसात इस शहर के लायक है ही नहीं...।" ये चुभती हुई आवाजें बरसात के कानो तक पहुंची। बरसात ने चेहरे से बादल हटाये और मचलते हुए फिर थिरकने लगी. एक आवाज़ फिर गूंजी- "इस बारिश ने तो नाक में दम कर दिया है, मुझे बरसात से नफरत है...।" इस बार बरसात चौंकते हुए रुकी, थिरकन थामते हुए उसने नीचे देखा। दूर दूर तक गाड़ियां। हज़ारों गाड़ियां। लाखों लोग। सब परेशान हाल। ट्रैफिक सिग्नल पर बेतहाशा छोटी-बड़ी गाड़ियों का जमघट। सिग्नल रुका हुआ और लोग बरसात की मेहरबानी के बावजूद दुखी। ट्रैफिक जाम की वजह से हर तरफ लोग चिढ़े हुए थे, गुस्से में थे। बरसात ने तय किया कि ट्रैफिक जाम से बात करके मामला सुलझाया जाए और उसने आगे बढ़ कर ट्रैफिक जाम का दरवाज़ा खटखटाया.

बेतहाशा शोर की वजह से दरवाज़ा देर से खुला। ट्रैफिक चौखट पर खड़ा नींद में बेसुध लग रहा था। बरसात चिढ कर बोली- 'एक बात बताओ, तुम मेरे आने पर ठहर क्यों जाते हो? क्यों तुम्हारे आसपास इतना जमघट लग जाता है? बताओ क्या तुम सही रफ़्तार से क़दम नहीं बढ़ा सकते? रुकने का क्या मतलब है? तुम्हारे आलस की वजह से मुझसे सब खफा हो जाते हैं? कोई मेरे आने पर बेफिक्री से भीगने नहीं उतरता। तुम्हारी वजह से कोई घर जल्दी नहीं पहुंचता और घर बैठी बीवी मेरे आने की ख़ुशी में पकौड़े नहीं तलती, बल्कि चिंता में खिड़की पर टंगी रहती है।' यह सुन कर ट्रैफिक जाम अपनी बाहें फैलाता हुआ अंगडाई लेते हुए बोला- 'देखो बरसात, इसमें मेरी कोई गलती नहीं। मैं तो जहाँ मौका मिलता है, वहीं फ़ैल जाता हूँ। अब सडकें पतली हैं, हर जगह पानी है, गढ्ढा है तो ऐसे में मैं क्या करूं। मुझे बिखरना पसंद है मैं तो मौका मिलते ही बिखर जाऊंगा। तुम्हे दिक्कत है तो सड़क से बात करो। उससे कहो कि वह साफ-सुथरे तरीके से बिछी रहे।"
इतना कह कर ट्रैफिक सिग्नल ने दरवाज़ा ज़ोर से बंद कर दिया। बरसात ने फिर एक बार बादलो की टोह से नीचे देखा। पतली-पतली सड़कों पर दूर तक पानी भरा हुआ था। कई जगहों पर लोग कपड़ों को संभाले पानी में से गुज़र रहे थे. बरसात ने यह देख कर अपनी जुल्फें समेट लीं। पर इस बार आंखों से आंसू छलछला आए और बूंदें ज़मीन को छूने चली गईं। भीगी जुल्फों से न सही, आंखों से सही, बारिश लगातार जारी रही। अब बरसात से रहा नही गया। काफी मशक्क़त के बाद उसने सड़क का घर ढूंढ़ निकाला।

बरसात अपनी मायूस आंखों के साथ सडक के द्वारे जा पहुंची। थोड़ी देर दरवाज़ा खटखटाने पर भी जब आवाज़ नहीं आई तो बरसात ने झांक कर देखा। सड़क आईने के सामने बैठी खुद को देख रही थी। यह देख बरसात को गुस्सा आया और वह अन्दर आकर बोली- 'अच्छा, तुम यहां खुद को निहार रही हो और मैं तुम्हारी वजह से कितना कुछ सह रही हूं। एक वक़्त था जब लोग मेरे आने की दुआएं मांगते थे। मुझे याद करके खुश होते थे। मगर तुमने सब बिगाड़ दिया। तुम्हारे पल-पल बदलते रूप ने लोगों को मेरे खिलाफ कर दिया है। बरसात ने तड़पते हुए सड़क का आंचल पकड़ लिया और कहा- "क्यों तुम मुझे बदनाम कर रही हो? तुम मेरी छुअन बर्दाश्त नहीं कर पाती। मेरे आते ही तुम उधड़ने लगती हो, घुटने लगती हो।"
सड़क ने खामोशी से आईने की ओर इशारा किया और पूछा- "क्या तुम बूढ़े होने का दर्द समझती हो?" बरसात ने सवालिया नज़रों से सड़क की तरफ देखते हुए 'नहीं' का इशारा किया। सडक उठ कर आईने के सामने से हट गयी और अपना आंचल बरसात के हाथों से खींचा। बरसात ने गौर किया कि सड़क का आंचल जगह-जगह से फटा हुआ है। बरसात ने महसूस किया की सड़क के आंचल से बदबू आ रही है। इतनी कि बरसात से बर्दाश्त नहीं हुई और वह आंचल छोड़ कर खड़ी हो गयी। सड़क ने अपना आंचल फिर से ओढ़ लिया और बोली- "बरसात, मैं अब बूढी हो चुकी हूं। कई साल से मुझ पर खूब मेकअप किया जा रहा है। देखो, पानी लगने से मेकअप तो उतरता ही है। असल में मेरा मेकअप वाटर रेजिस्टेंट होता है। वाटर प्रूफ मेकअप कभी लगाया ही नहीं गया। इसलिए मेरा रंग तुम्हारे आते ही बदल जाता है। लोग मुझसे डरने लगते है। मेरे चेहरे के गड्ढों को देख कर मज़ाक उड़ाते हैं। ऐसे में मुझे गुस्सा आ जाता है तो मैं भी अपने गड्ढों में पानी जमा होने देती हूं और आते-जाते लोगों को इसमें गिरने का मज़ा चखाती हूं। अगर तुम्हें इतनी ही तकलीफ है तो जाकर "डेवलपमेंट" से बात करो। उसी की वजह से मेरा ये हश्र हुआ है। मुझे तोडा-मरोड़ा और नोचा जा रहा है।" इतना कह कर सड़क वापस आईने के सामने बैठ गयी।
बरसात जाने का इशारा समझ कर बाहर आ गई। उसने सुना था "डेवलपमेंट" ऊंची इमारतों में रहती है। सो, गरीबी-मुफ़लिसी के झोपड़ों से गुजरते हुए मध्यम वर्ग के डोलते आशियाने से होते हुए वह "डेवलपमेंट" की चमकदार ऊंची इमारत के सामने जा पहुंची।

पहले तो बरसात ने बाहर से आवाज लगाई। फिर कुछ देर बेल बजाई और जब गुस्से में दरवाजा तोड़ने जा रही थी तो "डेवलपमेंट" बाहर आई। बेहद खूबसूरत चमकदार आंखें, चेरहे पर इतनी कशिश थी कि बरसात इंसान की दीवानी की वजह समझ गई। बरसात ने फिर अपना दुखड़ा होना शुरू किया। डेवलपमेंट चुपचाप सुनती रही। जब बरसात रोते-रोते चुप हो गई तो "डेवलपमेंट" ने बरसात का हाथ पकड़ कर इमारत के अंदर खींच लिया। अंदर पहुंचते ही बरसात खामोश हो गई। उसकी आंखें भौंचक्की-सी हो गईं। उसने देखा कि इमारत अंदर से खोखली है, जो बाहर से दिखता है वह अंदर से कुछ और है। चमक के अंदर खालीपन है। बरसात घबरा कर चिल्लाई- "...ये क्या है? तुम... तुम तो झूठ हो...।"
"डेवलपमेंट" हंसी औऱ बरसात को दरवाजे के बाहर धक्का देते हुए बोली- "मेरे नाम पर क्या-क्या नहीं होता...। लेकिन दरअसल मैं वह हूं, जो होकर भी नहीं है...।"
बरसात डर कर बादलों में जा छुपी और उसने फिर कभी किसी से बात नहीं करने की कसम खा ली।

Friday 13 August 2010

ओवर फ्लो होती आज़ादी

आज़ादी इस साल फिर उसी वक़्त आएगी. १५ अगस्त की रात से ही मेसजेस की कतार लग जाएगी. इनबॉक्स आज़ादी के जश्न से भर जाएगा. सुबह एक-आध लोग फ़ोन भी कर लेंगे. दोपहर में टीवी चेनलों पर 'ग़दर एक प्रेम कथा' देश भक्ति की दुहाई देगी. सनी देओल का अकेले पचास पाकिस्तानियों को पीटना और 'भारत माता की जय' चिल्लाना दर्शकों को देश भक्ति की भावना से लबालब भर देगा. दिन भर रेडिओ पर 'ये देश है वीर जवानों का' चलेगा. दूरदर्शन मणि रत्नम की 'रोजा' दिखा कर तसल्ली कर लेगा. कुछ लोगों को मनोज कुमार की भूली बिसरी फिल्मे याद आएँगी. सड़क किनारे बिकने वाले गुब्बारों से लेकर हाथों में खनकने वाली चूड़ियां भी तिरंगी हो जायेंगी. प्रधान मंत्री देश से मुखातिब हो कर 'हिंदी' में भाषण देने की जी तोड़ कोशिश करेंगे. राष्ट्रीय पति महोदया कुछ एक अवार्ड-रिवार्ड बाँट कर घर चली जायेंगी. कल्बों में 'इंडीपेंडेंस डे मिक्स' बजेगा. मेरे देश की धरती सोना उगले के रीमिक्स वर्जन पर जाम छलकेंगे लोग नाचेंगे गायेंगे.

आज़ादी एक कोने में खड़ी ये सब तकती रहेगी. रात गए लौटते वक़्त कुछ झोपड़ों को देखेगी. कुछ गेर कानूनी बस्तियों की तरफ नज़र दौडाएगी. फ्लाय -ओवर के नीचे सोये अधनगे बच्चों को देखेगी. सड़क किनारे लेटे कुछ भिकारियों के साथ सो रहे आवारा कुत्तों से डरेगी.
किसी खेत के पास से गुजरेगी तो लहलहाती फसलों को निहारेगी पर तभी खाट पर लेटे किसान के पिचके पेट और उभरी हड्डियों पर नज़र पड़ेगी. बाढ़ पीड़ित इलाकों के पास से गुजरेगी तो आँख कान बंद कर लेगी. राजघाट के पास से जाते हुए कुछ पल को रुकेगी. खुद को टटोलेगी. parliament स्ट्रीट की साफ़ शफ्फाक सड़कों पर चलते हुए एक तंज़िया नज़र इंडिया गेट पर डालेगी.
मॉल्स में ब्रांडेड कपड़ों पर स्वतंत्रता दिवस के मौके पर 50 % ऑफ का पोस्टर दिखेगा. शो रूम्स में वाशिंग मशीन, फ्रिज, टीवी, फर्नीचर इन्देपें डेंस स्कीम के साथ मिलेंगे. बाज़ार में कपडे धोने वाला ब्रुश भी तीन रंगों का होगा जब कोई कहेगा "अरे भैया कोई और रंग नहीं है?" तो दुकानदार कहेगा 'मेडमजी स्वतंत्रता दिवस करीब है तो यही ट्रेंड में है"

कुछ बुजुर्गों के बीच चल रही बहस सुनते हुए वहीँ खड़ी हो जायेगी. "अजी हमने आज़ादी के लिए इतनी कुर्बानियां दी तब जा कर मिली है, ये नौजवान पीढ़ी क्या जाने गुलामी क्या होती है" तभी भेड़ बकरियों की तरह कॉल सेंटरों की केब में बैठे नौजवान खुद को तसल्ली देते सुनाई देंगे "ड्यूटी-अवर्स १० घंटे है लेकिन १० हज़ार महिना भी तो मिलता है" कहीं से कोई जोश से कहेगा "हमें बोलने की आज़ादी है, अपने फैसले खुद लेने की आज़ादी है" तो प्रतिबंधित किताबें, कला-कृत्यां और पेंटिंग्स मुह चिढाने लगेंगी. कोई फिर विश्वास से बोलेगा "हम पर कोई पहरा नहीं है, हम अपने हिसाब से जी सकते हैं" ये सुन आज़ादी को फिर ढाढस बंधेगी लेकिन वैसे ही असम, कश्मीर, छत्तीसगढ़ से रोते बिलकते बच्चों की चीख सुनाई देने लगेगी. एक बार फिर कोई बोलेगा "राईट तू इन्फोर्मेशन " तभी कॉमन वेल्थ की कान चीरती हंसी आज़ादी को होश में ले आएगी. जैसे जैसे रात ढलेगी आज़ादी के जोश की तरह वो खुद भी अगले साल तक के लिए सो जाएगी.

Thursday 22 July 2010

इन्साफ का बहलावा

उसकी दुनिया में धुआं भरा है, हर तरफ़ चीखती चिल्लाती आवाज़ें गून्जती हैं . पतला सूखा जिस्म दो लड़खड़ाती टांगों पर खड़ा रहता है. वो चलते चलते गिर जाता है तो उसकी मां गोद मे उठा लेती है. वो ये नहीं सोचता कि मैं लाचार हूं, अपाहिज होने के दर्द से वो अभी मुखातिब नही हुआ है. पर उसकी मां इस तक्लीफ़ को हर रोज़ महसूस करती है. शारदा सोचती है उससे कहां गलती हुई उसने तो हर बार अपनी नन्ही सी जान को पोलिओ की बून्दें पिलाईं. लोग कह्ते हैं ये अभिशाप उस अमरीकी कार्बाइड कम्पनी का है जो 25 साल पह्ले शहर के लोगों को रोज़गार देती थी. जिसकी दी तन्ख्वाह पर घर के चूल्हे जलते थे वही कम्पनी रातों रात शहर की ज़िन्दगी को जला गयी.

बरसों से सुन रहे हैं अहिंसा के रास्ते पर चल कर भी जंग जीती जा सकती है. पर भोपाल गैस पीड़ितों को सदियों से मिल रहे झूठे दिलासे और फिर अधुरे इन्साफ़ के अलावा कुछ नही मिला. वो खामोशी से मार्च करते हुए आते और जन्तर मन्तर पर शान्तिप्रिय धरना करके वापस चले जाते. इतने साल से उनकी मांगो की किसी ने सुध नही ली. सरकार को अमरीकी रिशते सुधारने और वक़्त वक़्त पर पडोसी मुल्कों पर धाक जमाने की कोशिश करने से फ़ुर्सत नहीं थी. भोपाल गैस त्रासदी के पीड़ितों का केस मज़बूत करने के लिये किसी 'उज्वल निकम' ने मिडिआ मे शोर नहीं मचाया. वो गरीब थे उनका शहर रातो रात तबाह हो गया पर देश के लोग अपनी इमारतों को और ऊँचा करने की कोशिशों में लगे रहे. जब मासूम बच्चे लंगडाते और खिसकते हुए भोपाल की सड़कों पर अपना बचपन जीने की कोशिश कर रहे थे,उस वक्त विकास के नाम पर दूसरे ज़िलों में फेक्ट्रियां बिछायी जा रही थी. करीब 55 हज़ार लोगों की ज़िन्दगी बेआवाज़ गूंज के साथ दम तोड देती है और राजधानी मे कोई उफ़्फ़ नही करता. तकरीबन पांच लाख लोग अपाहिज हो जाते हैं लेकिन उनके सहारे के लिए कोई हाथ आगे नहीं बढ़ता.
हाई प्रोफाइल केस हो तो मिडिया का इन्साफ प्रेम भी खूब देखने को मिलता है, एयर होस्टासेस को नौकरी से निकाला जाए तो पीली युनिफोर्म में अन्याय का रोना रोती फूटेज की टीवी पर बाढ़ जाती है. कास्टिंग काउच के राज़ पर से पर्दा हटाने के लिए आये दिन स्टिंग ओपरेशंस होते रहे. हर वो चीज़ जो सोफे पर बैठ कर हाथ में पोपकोर्न और सोफ्ट ड्रिंक के साथ लुत्फ़ दे वो चेनलों पर मौजूद है. किसी दोषी के सज़ा पाने पर मीडिया ट्रायल के नाम पर सीना चौड़ा करने वाले मिडिया चेनल्स भोपाल गेस कांड पर बेजुबान से हैं.

महंगाई और आतंकवाद के मसलों पर सडकें जाम करने वाली विपक्ष पार्टी ज़हरीली गैस के निर्माताओं के क़र्ज़ तले दबी है. मौजूदा सरकार को कमज़ोर कहने वाले खुद छुपे बैठे हैं. खुद को गरीबों का हितेषी बताने वाले, कैमरे का एंगल देख कर झोपड़ों में रात गुज़ारने वाले सफ़ेद पोश नेता भी कोई आश्वासन नहीं बंधा रहे. कॉमन वेल्थ का काम समय पर पूरा होगा या नहीं, अफज़ल गुरु की फ़ाइल आगे बढ़ी या नहीं, नेनो प्लांट के लिए टाटा को सही जगह ज़मीन मिली या नहीं मिली, एशियन खेलों में भारतीय क्रिकेट टीम क्यूँ नहीं गयी. इन मसलों पर विचार विमर्श करने वाली राजनीतिक पार्टियों को नाटक पार्टियाँ कहते तो बेहतर होता.

तीन दिसंबर 1984 की अँधेरी रात जब अमरीकी कंपनी युनिओं कार्बाइड की रासायनिक गेस हवा में रिस रही थी, तब कुछ लोग खाना खा कर गहरी नींद में सो रहे होंगे. कितने लोग घर के बाहर चारपाई बिछा कर बातों में मशगूल होंगे. सभी की आँखों में आने वाले दिन के ख्याल रहे होंगे. कोई नई नवेली दुल्हन अपने पति के मायेके से ले कर जाने की राह तक रही होगी. कोई बच्चा खिलोने की जिद करते करते रोते हुए सो गया होगा और माँ ने उसके चेहरे पर आंसुओं की बूँद देख कर सोचा होगा कल खरीद दूँगी खिलौना. कोई अपने जोड़े हुए पैसों से नई रजाई लाने वाला होगा. कुछ लोग रात के वक़्त धुंध के बढ़ जाने की वजह के बारे में सोच रहे होंगे. जितने लोग उतनी उम्मीदें, जितनी आँखें उतने ख्वाब पर मौत को ज़िन्दगी पर हावी होने में वक़्त ही कितना लगता है. भोपाल गैस त्रासदी की तस्वीरों पर नज़र दौड़ाओ तो रूह कांप जाए. हर तस्वीर की अपनी कहानी हर तस्वीर का अपना दर्द. स्पेनिश फिलोसोफेर 'पाउलो कोहेलो' ने कहा है हर इंसान अपने आप में एक दुनिया है और हर एक शख्स के मरने पर एक दुनिया मरती है. सच है आदमी अपने मरने के साथ सभी यादें जो उसके ज़हन में हैं, सारे लोग जिनसे वो मिला, सभी तकलीफें जिन पर वो रोया, साड़ी खुशियाँ जिन पर वो हंसा वो हर एहसास अपने साथ ले जाता है.

सरकारी आंकड़ों के हिसाब से यूनियन कार्बाइड की लापरवाही से तकरीबन 3 हज़ार दुनिया खत्म हुईं और 7 से 8 हज़ार दुनियाओं पर भूचाल आया. लेकिन सच तो ये हैं की इस घटना से, फिर उसके बाद चलने वाली कानूनी प्रक्रिया और सरकारी घटियापन से पूरी इंसानियत आहत हुई है. न्यायपालिका की फाइलों के ढेर पर चढ़ कर मजलूम के विश्वास ने फांसी लगायी है.

Sunday 11 July 2010

धूप सी ज़िन्दगी

महंगाई तो वाकई बढ़ गयी है. इतना ज्यादा की लोग दूर दराज़ के गाँव से सिर्फ 300 रूपए प्रति दिन पर दिल्ली की तपती धूप में खटने को आ पहुंचे. तेज़ धूप में बैठ कर भाषण सुनना, जगह जगह तालियाँ बजा देना और चीख चीख के नारे लगाने का काम बुरा नहीं है. पता नहीं मुद्दा क्या है, आखिर ये मंच पर सफ़ेद कपड़ों में खड़ा आदमी माइक देखते ही चिल्लाने क्यूँ लगता है. खैर इन सब से मुझे क्या मतलब रखना. बस ये शोर शराबा ख़त्म होते ही पैसे मिल जाएँ फिर गाँव पहुँच कर पड़ोसियों को बताऊंगा की राम लीला मैदान कितना बड़ा है. इंडिया गेट पास से कैसा दिखता है. धूप थोड़ी तेज़ ज़रूर है मगर यहाँ गाँव में रोज़गार गेरेंटी योजना से कहीं ज्यादा पैसा मिल रहा है. गेरेंटी योजना के मिलने वाले पैसो की कोई गेरेंटी नहीं है, कितनी मुश्किल होती है काम पाने के लिए 'जॉब कार्ड' बनवाने के लिए कितने धक्के खाने पड़ते हैं, कहीं से जोड़ जाड के सरकारी अफसर को घूस खिलानी पड़ती है. मगर यहाँ पैसे की पूरी गेरेंटी है. आखिर इन्हें अगली बार भी तो ज़रुरत पड़ेगी. उस तरफ पंडाल लगा तो है पर इस बात की हिदायत मिली है की मंच के सामने धूप में ही बैठना है. भूख भी लग रही है, खाना कब मिलेगा. खाना - एक वक़्त था जब हमारे घर में नए कपडे बनाने के लिए सोचना पड़ता था और आज खाने में क्या बनेगा इसके लिए सौ बार सोचना पड़ता है. मालिक की ज़मीन पर खून पसीना बहा कर भी क्या हाथ आता है ? दादागिरी सहो, ठण्ड में गलो, धूप में तपो और बारिश में घुलो. फिर भी मुट्ठी भर अनाज और सांसें मिलती हैं. खैर अब ये कौन आ गया...ओह्ह पार्टी के नए महा महिम ! अब ये कितना बोलेंगे. अभी तो इन्हें जूस पिलाया गया है, पता नहीं इनके जिस्म में जान क्यूँ नहीं होती, ओहदे के साथ-साथ वज़न बढ़ता जाता है और जान खत्म होती जाती है. बस सारी जान माइक पर ही दिखती है. अभी पीछे चक्कर खा कर गिर गए थे. ज़रा सी गर्मी बर्दाश्त नहीं होती चले हैं रैली करने. वैसे इन्हें कौन सा पहाड़ तोड़ना है, थोड़ी दूर चलेंगे फिर अपने ए.सी रथों पर चढ़ जायेंगे.
यहाँ हर तरफ कितने कैमरे घूम रहे हैं. कहते हैं कैमरे वालों को भी पैसा मिलेगा. ये सब टीवी पर दिखेगा और इस रैली को बहुत फ़ायदा पहुंचेगा. एक बार अफसर बाबू बता रहे थे की टीवी पर परेशान लोगों को दिखाने से बहुत फ़ायदा होता है. तो ये कैमरे वाले कभी हमारे गाँव की तरफ क्यूँ नहीं आते. वहां तो लगभग सभी परेशान हैं. खैर मेरी परेशानी तो कुछ दिनों के लिए जाएगी. मेरे, जोरू के और कुंदन के मिला कर हुए 900. बस ये कुंदन के पैसे उस के हाथ पर ना रख दें, उड़ा आएगा कहीं. दिन भर घूमता रहेगा, लड़ाई झगड़ों में लगा रहेगा, ना जाने कहाँ से ये नया फितूर दिमाग में भर लिया है. कहता है पार्टी के लिए काम करके नेता बनेगा. अब इसे कौन समझाए नेता ऐसे नहीं बनते, हर जगह की तरह यहाँ भी जुगाड़ लगता है, नोट लगते हैं, सोचता है दो चार प्रदर्शनों में जा कर तीर मारेगा. गधे को इतना समझ नहीं आता की कार्यकर्ताओं को सिर्फ डंडे खाने के लिए आगे किया जाता है. यहाँ ही ना जाने कितने लड़के पोस्टर्स बाँट रहे हैं अब इनमें से थोड़ी ना कोई उन ए.सी रथों तक पहुँच पायेगा. मैं चाहता हूँ की मेरा बेटा मेरा कुंदन पढ़ लिख ले, किसी शीशे वाली चमचमाती बिल्डिंग में काम करे. ये जो मंच पर खड़े भाषण दे रहे हैं इन्हें क्या पता कोई कुंदन नाम का 18 साल का लड़का कितना निराश है. गाँव के स्कूल से आठवी की पर क्या फ़ायदा. कहता था बापू शहर जा कर पढूंगा, वो पता नहीं क्या बनना चाहता था, कहता था बड़े बड़े होटलों में काम करूंगा. सातवीं में था तब कोई बड़े-बड़े पढाई लिखाई करवाने वाले लोग अपने जिले में आये थे. बस उनकी बातों में आ गया. मैं गरीब आदमी खाने को पैसा नहीं कहाँ से लाता शहर भेजने के लिए पैसे. मंच पर बैठे सफ़ेद कुरते वाले नेताजी ने कई साल पहले कहा था हमारी सरकार आएगी तो आपकी तकदीर बदल जाएगी. इनकी सरकार आकर चली भी गयी पर मेरे लिए कहाँ कुछ बदला, मेरा बेटा ना जाने किस रास्ते पर जाने को खड़ा है. एक झोंपड़ा है उसमें भी बारिश में पानी टपकता है. आवास योजना के नाम पर आज तक फूटी-कौड़ी भी हाथ नहीं लगी. पैरों में छाले पड़ गए पर मेरी झोपडी तो आज भी तेज़ हवा से काँप उठती है. बड़ी मुश्किल से पेट काट कर पैसा जोड़ कर एक गाय खरीदी थी वो ठीक से चारा ना मिलने पर बीमार हो कर मर गयी. छोटी बिंदिया पैदा होने के 2 साल बाद ही निमोनिया से मर गयी. मेरी बिटिया बिंदिया हँसते हुए उसकी आँखें चमकती थीं. लोगों ने कहा बेटी है तुम्हे डुबो देगी पर मेरी गरीबी ने उसे डुबो दिया.
कितना बोलेंगे ये लोग ? खाना कब मिलेगा, सुबह से भूख से मर रहा हूँ, धानी और कुंदन भी भूखे होंगे. चलो लेकिन इतना तो है की 2 दिन ठीक से पेट भर कर खा पाएंगे. आधी भूख के साथ पतीले में लगी खुर्ची को नहीं देखना पड़ेगा.
भाड़ में जाए महंगाई! ये तो मध्यम वर्ग का दर्द है अपने को क्या.

(Edited version Published in Jansatta on 8th may 2010)

Sunday 23 May 2010

मिडल क्लास की नोकीली नाक


निरुपमा या उसके जैसी अनगिनत लड़कियों कि मौत ने समाज के तीन चेहरों को सामने रखा है. पहला तो वो जो सीधा सीधा क़त्ल का विरोध करता है और व्यक्ति की स्वतंत्रता को एहमियत देता है, दूसरा वो जो खाप पंचायत की तरह अक्खड़ है और लड़कियों के चौखट लांगने पर मुह पर तकिया रख कर सांस रोक देने को सही मानता है. पर तीसरा चेहरा सबसे ज्यादा घिनोना है क्यूंकि ये वो लोग हैं जो अपनी बेटियों को इज्ज़त के नाम पर जान से मारने का हौसला तो नहीं रखते पर उन्हें मानसिक रूप से प्रताड़ित ज़रूर करते हैं, ये वो चेहरा है जो समाज में खुद को शरीफ और नए ख्यालात वाला दिखाता है पर अपनी बेटियों और बहनों को ताले में बंद रखता है. यही वो समाज है जहाँ लड़की कि ज़बरदस्ती शादी कर दी जाती है. हिंदी फिल्मों का वो विलन जो बेटी के प्रेमी को गुंडों से पिटवाता है इस चेहरे से हुबहू मिलता है.


गैर बिरादरी में शादी करना. दूसरी ज़ात के शख्स से कोई ख़ास रिश्ता कायम करना हमारे समाज में गुनाह है. ख़ास कर तब जब ऐसा घर की बेटी करे. बेटी का boyfriend नाम के शख्स के लिए हमारे यहाँ कोई जगह नहीं होती. हाँ बेटे की girlfriend के घर पर फ़ोन आने की छूट ज़रूर होती है. हमारा मिडल क्लास हाई सोसाइटी के समकक्ष खड़े होने की होड़ में लगा हुआ है. वो भी शानदार पार्टियों में नाचना चाहता है, समाज की परवाह किये बिना मस्ती में हंसना चाहता है पर दूसरी तरफ अपने पड़ोसियों के आगे संस्कृति की दुहाई भी यही देता है. सामने वाले घर में अगर ऊँची आवाज़ में गाने बजे तो दरवाज़ा पीट कर तमीज भी अपना मिडल क्लास ही सिखाता है. ये बात और है कि अगर किसी कि नज़र ना पड़े तो अपने घर का कूड़ा दूसरों के घर के सामने फेंकने से इस नोकीली नाक वाले समाज को गुरेज़ नहीं होता. दो चेहरे तो आज हर शख्स के हैं लेकिन दो सभ्यताओं और दो मान्यताओं के बीच इस दोगले समाज की हालत थाली के बेंगन जैसी हो गयी है. रियालिटी शोज़ में टीवी पर थिरक रहे बच्चों को देख कर ये कभी मुस्कुराता है, कभी रोता है. किसी की जीत पर खुश तो किसी की हार पर उदास होता है लेकिन अपनी ही बेटी के 'डांस क्लासेस' ज्वाइन करने की जिद को सिरे से खारिज कर देता है.

एक मिडल क्लास परिवार में माँ बाप अपने बच्चों को पढ़ाते हैं, पालते हैं इस उम्मीद के साथ कि वो आगे चल कर उनका नाम रौशन करेंगे. उनकी मर्ज़ी से घर बसायेंगे, अगर बेटा है तो अच्छा दहेज़ लेंगे अगर बेटी है तो रुखसत कर के अपना फ़र्ज़ उतारेंगे. हमारे मिडल क्लास समाज में अच्छी औलादें नहीं होतीं. यहाँ अच्छा बेटा या अच्छी बेटी होती है. अच्छा बेटा वो है, जो नशा ना करे, सड़क पर मार पीट ना करे, पढाई करके अच्छी नौकरी करते हुए अपना घर बसाये, शादी के बाद बीवी की तरफ से ना बोले और माता पिता का साथ देते हुए कभी कभार बीवी को डांट फटकार भी लगाता रहे. लेकिन अच्छी बेटी बनने के लिए फेहरिस्त थोड़ी लम्बी है. सबसे पहले, अच्छी बेटियों का मतलब होता है जिसका कोई boyfriend ना हो. जो पढ़ाई करे co-education भी ले. पर लड़कों से ज्यादा बातचीत ना करे, अपने रिश्तेदारों के बीच गवांर ना लगे पर modern भी ना हो. जॉब करना चाहे तो करे पर शाम 6 बजे तक घर आजाये. घर का काम काज भी अच्छे से जानती हो, छुटी के दिन किचन में हाथ बंटाए. खाना अच्छा पकाए और अंग्रेजी भी अच्छी बोलती हो. शादी के बाद नौकरी का ख्याल दिल से निकाल कर अपनी सारी पढ़ाई और उपलब्धियों को भूल कर परिवार कि देख रेख में लग जाए. लेकिन हमे हमेशा वो नहीं मिलता जो हम चाहते हैं और नई पीढी ने हमेशा ही पुरानी पीढी को निराश ही किया है. तो फिर अगर बेटे ने किसी को पसंद किया और घर से दूर जा कर अपनी ज़िन्दगी बसा ली तो कुछ रोने-धोने, कुछ इमोशनल ब्लैक मेल के बाद बेटे के कारण बहु को आधे मन से ही सही अपना लिया जाता है. पर अगर बेटी ऊँची उड़ान भरने लगे, अगर बेटी प्यार मोहब्बत में पड़ जाए तो क्या करें ? इज्ज़त के नाम पर उसकी बलि चढ़ा दें ? हाँ. क्यूँ नहीं क्यूंकि इज्ज़त बड़ी मुश्किल से मिलती है, दुनिया में इज्ज़त कमाने में बरसों लग जाते हैं पर गवाने में एक पल लगता है. वैसे भी मिडल क्लास के पास इज्ज़त के अलावा और है भी क्या. असल में मिडल क्लास के पास आँख नहीं है कि वो बदलती दुनिया को देख सके, कान नहीं है कि मासूम ख्वाहिशों को सुन सके पर हाँ नाक ज़रूर है बेहद ऊँची और नुकीली. अगर किसी ने पंख फैला कर उड़ना चाहा तो इसी नुकीली नाक से उसके परों को काट दिया जाता है.

निरुपमा ने अपना जिला छोड़ते वक़्त आँखों में छोटे छोटे ना जाने कितने ख्वाब सजाये होंगे. सोचा होगा 'ज़िन्दगी में कुछ कर दिखाउंगी सबसे जीत जाउंगी' उसकी सहेलियां जिनके साथ बचपन में खेली उनमें से ज़्यादातर शादी के बंधन में बंध चुकी हैं या फिर किसी अच्छे रिश्ते के इंतज़ार में हैं. पर वो अलग थी कुछ करना चाहती थी आगे बढ़ना चाहती थी. सोचा था अपनी ज़िन्दगी को अपने हिसाब से जियेगी. माता पिता ने हमेशा ही उसका साथ दिया, पढाई के लिए कभी नहीं रोका. आगे बढ़ने के लिए रुकावट नहीं बने. उसके यहाँ लड़कियों को ज्यादा नहीं पढाया जाता पर पिता ने उसे दिल्ली भेजा, घर छोड़ते वक़्त मन में एक डर था पर आगे की ज़िन्दगी के ख्वाब उसे अपनी तरफ खींच रहे थे. उसके पिता का समाज में काफी रुतबा था देश की सबसे बड़ी university में उनकी बेटी का पढना उनके रुतबे में इजाफा करता. पर रुतबे को बढ़ाने वाला प्लान रुतबे को ले डूबने पर तुला था तो क्या करते. बेटी कि ज़िन्दगी रुतबे से ऊँची तो नहीं ही होती.
निरुपमा की मौत सिर्फ एक इंसान का क़त्ल नहीं है इस क़त्ल ने उस ख्वाब को ज़ख़्मी किया है जो बड़ी मुद्दतों के बाद लड़कियों ने देखना शुरू किया है.

( नवभारत टाईम्स में 19 मई को प्रकाशित )