Sunday, 11 July 2010

धूप सी ज़िन्दगी

महंगाई तो वाकई बढ़ गयी है. इतना ज्यादा की लोग दूर दराज़ के गाँव से सिर्फ 300 रूपए प्रति दिन पर दिल्ली की तपती धूप में खटने को आ पहुंचे. तेज़ धूप में बैठ कर भाषण सुनना, जगह जगह तालियाँ बजा देना और चीख चीख के नारे लगाने का काम बुरा नहीं है. पता नहीं मुद्दा क्या है, आखिर ये मंच पर सफ़ेद कपड़ों में खड़ा आदमी माइक देखते ही चिल्लाने क्यूँ लगता है. खैर इन सब से मुझे क्या मतलब रखना. बस ये शोर शराबा ख़त्म होते ही पैसे मिल जाएँ फिर गाँव पहुँच कर पड़ोसियों को बताऊंगा की राम लीला मैदान कितना बड़ा है. इंडिया गेट पास से कैसा दिखता है. धूप थोड़ी तेज़ ज़रूर है मगर यहाँ गाँव में रोज़गार गेरेंटी योजना से कहीं ज्यादा पैसा मिल रहा है. गेरेंटी योजना के मिलने वाले पैसो की कोई गेरेंटी नहीं है, कितनी मुश्किल होती है काम पाने के लिए 'जॉब कार्ड' बनवाने के लिए कितने धक्के खाने पड़ते हैं, कहीं से जोड़ जाड के सरकारी अफसर को घूस खिलानी पड़ती है. मगर यहाँ पैसे की पूरी गेरेंटी है. आखिर इन्हें अगली बार भी तो ज़रुरत पड़ेगी. उस तरफ पंडाल लगा तो है पर इस बात की हिदायत मिली है की मंच के सामने धूप में ही बैठना है. भूख भी लग रही है, खाना कब मिलेगा. खाना - एक वक़्त था जब हमारे घर में नए कपडे बनाने के लिए सोचना पड़ता था और आज खाने में क्या बनेगा इसके लिए सौ बार सोचना पड़ता है. मालिक की ज़मीन पर खून पसीना बहा कर भी क्या हाथ आता है ? दादागिरी सहो, ठण्ड में गलो, धूप में तपो और बारिश में घुलो. फिर भी मुट्ठी भर अनाज और सांसें मिलती हैं. खैर अब ये कौन आ गया...ओह्ह पार्टी के नए महा महिम ! अब ये कितना बोलेंगे. अभी तो इन्हें जूस पिलाया गया है, पता नहीं इनके जिस्म में जान क्यूँ नहीं होती, ओहदे के साथ-साथ वज़न बढ़ता जाता है और जान खत्म होती जाती है. बस सारी जान माइक पर ही दिखती है. अभी पीछे चक्कर खा कर गिर गए थे. ज़रा सी गर्मी बर्दाश्त नहीं होती चले हैं रैली करने. वैसे इन्हें कौन सा पहाड़ तोड़ना है, थोड़ी दूर चलेंगे फिर अपने ए.सी रथों पर चढ़ जायेंगे.
यहाँ हर तरफ कितने कैमरे घूम रहे हैं. कहते हैं कैमरे वालों को भी पैसा मिलेगा. ये सब टीवी पर दिखेगा और इस रैली को बहुत फ़ायदा पहुंचेगा. एक बार अफसर बाबू बता रहे थे की टीवी पर परेशान लोगों को दिखाने से बहुत फ़ायदा होता है. तो ये कैमरे वाले कभी हमारे गाँव की तरफ क्यूँ नहीं आते. वहां तो लगभग सभी परेशान हैं. खैर मेरी परेशानी तो कुछ दिनों के लिए जाएगी. मेरे, जोरू के और कुंदन के मिला कर हुए 900. बस ये कुंदन के पैसे उस के हाथ पर ना रख दें, उड़ा आएगा कहीं. दिन भर घूमता रहेगा, लड़ाई झगड़ों में लगा रहेगा, ना जाने कहाँ से ये नया फितूर दिमाग में भर लिया है. कहता है पार्टी के लिए काम करके नेता बनेगा. अब इसे कौन समझाए नेता ऐसे नहीं बनते, हर जगह की तरह यहाँ भी जुगाड़ लगता है, नोट लगते हैं, सोचता है दो चार प्रदर्शनों में जा कर तीर मारेगा. गधे को इतना समझ नहीं आता की कार्यकर्ताओं को सिर्फ डंडे खाने के लिए आगे किया जाता है. यहाँ ही ना जाने कितने लड़के पोस्टर्स बाँट रहे हैं अब इनमें से थोड़ी ना कोई उन ए.सी रथों तक पहुँच पायेगा. मैं चाहता हूँ की मेरा बेटा मेरा कुंदन पढ़ लिख ले, किसी शीशे वाली चमचमाती बिल्डिंग में काम करे. ये जो मंच पर खड़े भाषण दे रहे हैं इन्हें क्या पता कोई कुंदन नाम का 18 साल का लड़का कितना निराश है. गाँव के स्कूल से आठवी की पर क्या फ़ायदा. कहता था बापू शहर जा कर पढूंगा, वो पता नहीं क्या बनना चाहता था, कहता था बड़े बड़े होटलों में काम करूंगा. सातवीं में था तब कोई बड़े-बड़े पढाई लिखाई करवाने वाले लोग अपने जिले में आये थे. बस उनकी बातों में आ गया. मैं गरीब आदमी खाने को पैसा नहीं कहाँ से लाता शहर भेजने के लिए पैसे. मंच पर बैठे सफ़ेद कुरते वाले नेताजी ने कई साल पहले कहा था हमारी सरकार आएगी तो आपकी तकदीर बदल जाएगी. इनकी सरकार आकर चली भी गयी पर मेरे लिए कहाँ कुछ बदला, मेरा बेटा ना जाने किस रास्ते पर जाने को खड़ा है. एक झोंपड़ा है उसमें भी बारिश में पानी टपकता है. आवास योजना के नाम पर आज तक फूटी-कौड़ी भी हाथ नहीं लगी. पैरों में छाले पड़ गए पर मेरी झोपडी तो आज भी तेज़ हवा से काँप उठती है. बड़ी मुश्किल से पेट काट कर पैसा जोड़ कर एक गाय खरीदी थी वो ठीक से चारा ना मिलने पर बीमार हो कर मर गयी. छोटी बिंदिया पैदा होने के 2 साल बाद ही निमोनिया से मर गयी. मेरी बिटिया बिंदिया हँसते हुए उसकी आँखें चमकती थीं. लोगों ने कहा बेटी है तुम्हे डुबो देगी पर मेरी गरीबी ने उसे डुबो दिया.
कितना बोलेंगे ये लोग ? खाना कब मिलेगा, सुबह से भूख से मर रहा हूँ, धानी और कुंदन भी भूखे होंगे. चलो लेकिन इतना तो है की 2 दिन ठीक से पेट भर कर खा पाएंगे. आधी भूख के साथ पतीले में लगी खुर्ची को नहीं देखना पड़ेगा.
भाड़ में जाए महंगाई! ये तो मध्यम वर्ग का दर्द है अपने को क्या.

(Edited version Published in Jansatta on 8th may 2010)

8 comments:

  1. लेकिन सच में, मंहगाई बहुत हो गई है.

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  2. फौजिया, गरीब की यही जिन्दगी है. पिछले बासठ सालों से यही तो हुआ है गरीब के साथ.

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  3. समय का तीक्ष्ण विश्लेषण महंगाई के बहाने........

    समय हो तो इस कविता नुमा अंशों को पढ़ें और अपनी माकूल राय दें
    बाज़ार,रिश्ते और हम http://shahroz-ka-rachna-sansaar.blogspot.com/2010/07/blog-post_10.html

    शहरोज़

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  4. "बहुत बढ़िया पोस्ट...यथार्थवादी.."

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  5. bahut sahi fauziya...ek taraf to mahgai ki maar bol kar bharat band karwaya aur karodo ka nuksaan karaya aur wahi khud party ke vidhayak ko dhudh chandan kesar se nahlaya...
    mahgai hia...bahut jayada mahngai hai lekin isse kaise nipte ye sochne ke bajaye ye log apni raajniti khel rhe hai aur in sab me aam janta to bus aam ki tarah hi chusati ja rhi hai...

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  6. yahi to badkismati hai garib ki fauzia...

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  7. महंगाई बरदाश से वाहत है पर क्यों चिन्ता करें आखिर आम आदमी की सरकार को आम आदमी का गला घोटने का अधिकार जो प्राप्त है।

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  8. Ha ha ha ha ha.......
    Thoda sa aur!
    Ha ha ha ha ha.......
    Karari chot karee hai Mohtarma!

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