Wednesday 26 December 2012

जब नियम की किताब एक होगी…



बलात्कार को लेकर तीन बातें सुनने में बहुत आती हैं. पहली, लड़कियों के कम कपड़ों की वजह से बलात्कार या छेड़-छाड़ होती है. ये एक ऐसा बयान है जो इस दर्जे का भी नहीं कि उसपर चर्चा की जा सके, क्योंकि हम बखूबी जानते हैं बलात्कार 6 साल की बच्ची का भी होता है और साठ साल की दादी की सूरत वाली बुज़ुर्ग महिला का भी. दूसरी, बलात्कार शहरों में होते हैं क्युंकि यहां लड़कियां घर से बाहर निकलती हैं, लेकिन हम ये भी जनते हैं कि बलात्कार या उत्पीड़न के अधिकतर मामले घर में मौजूद सदस्यों द्वारा ही अन्जाम दिए जाते हैं. तीसरी बात कम सुनने में आती है, वो है बलात्कार दबे-कुचले इलाकों में ज़्यादा होते हैं क्योंकि वहां मर्द के भीतर कुंठाएं होती हैं, जबकि ‘प्रोग्रेसिव’ समाज में लड़के-लड़कियां एक एक-दूसरे से घुले-मिले रहते हैं सो वहां ऐसा कम होता है. अगर हम न्यूयॉर्क को दिल्ली से ज़्यादा प्रोग्रेसिव और मॉडर्न मानते हैं तो ये जानकार हैरानी हो सकती है साल 2011 में जहां दिल्ली में 568 बलात्कार के केस दर्ज करवाए गए, वहीं न्यूयॉर्क में ये आंकड़ा 2752 को छूता है, लंडन में 3334 और अरसों तक बराबरी और हक के लिए लड़ने वाले नेल्सन मन्डेला के दक्षिण एफ़्रिका की प्रादेशिक राजधानी केपटाउन में साल 2011 में 64514 बलात्कार के केस दर्ज हुए.

नौकरी करने, पैसा कमाने, अपनी पसंद के कपड़े पहनने या शादी करने से अगर बराबरी और इज़्ज़त मिलती तो दुनिया के इन मशहूर शहरों में लड़कियों को कॉलेजों, अस्पतालों या सड़कों पर ज़ोर-ज़बर्दस्ती का सामना नहीं करना पड़ता. अपने पैरों पर खड़े होने का मतलब अगर बैंक-बैलेंस होता तो मशहूर पॉप स्टार रिहाना अपने बॉयफ़्रेंड क्रिस ब्राउन से लगातार पिटने के बाद, कम्प्लेंट करवाने के बाद, सज़ा दिलवाने के बाद फिर उसी के साथ हंसते मुस्कुराते हुए पार्टियों में नज़र नहीं आतीं. ये सूरते-हाल हमें साफ़-साफ़ कहती है तुम केवल एक शरीर हो, तुम अपने पति-प्रेमी से पिटोगी और फिर बाहों में भी भरोगी.”
बलात्कार एक ज़हनियत है, जो औरत को मर्द से कम आंकती है, जो उसे सिर्फ़ भोगने की वस्तू बनाती है. वही ज़हनियत जो कई पुलिस एस.एच.ओ से कहलवाती है बलात्कार में लड़की की मर्ज़ी शामिल होती है. वही ज़हनियत जो पढ़े-लिखे समाज में भी दहेज की परंपरा को बनाए हुए है, ये ज़हनियत घरेलू हिंसा को गांव हो या शहर, भारत हो या विदेश हवा देती रहती है. फ़र्क बस इतना है कि कोई साड़ी के पल्लू से चेहरे के निशान ढंकती है तो कोई काले चश्मे की शह लेती है.

मेरे पिछले ऑफ़िस में एक लड़की थी हर वक्त अपने काम में मगन रहती. उसका ऑफ़िस के एक साथी से प्रेम-संबंध था. एक दिन किसी ने दोनों को ऑफ़िस के एक हिस्से में चुंबन करते देख लिया. ज़ाहिर सी बात है फिर बॉस को तो पता चलना ही था. बॉस ने आनन-फ़ानन में उस लड़की को ऑफ़िस से निकाल दिया. मगर वो लड़का आज दो साल के बाद भी उसी कंपनी में सिर उठाकर काम कर रहा है. स्कूल के दिनों की बात है जब एक लड़की के माता-पिता को इसलिए तलब किया गया था क्योंकि उसे अपने जन्मदिन पर एक दोस्त ने गुलाब के फूल दिए थे. ज़ाहिर सी बात है यहां भी फूल देने वाले लड़के को टीचर ने खुद ही समझा-बुझा दिया था. जिस समाज में प्रेम संबंध से बढ़ी नज़दिकियों के लिए लड़की को दोषी समझा जाता है, बल्कि इसके लिए बिना सुनवाई किए सज़ा भी सुना दी जाती है. वहां उम्मीद करना कि रातोंरात कोई बदलाव आएगा और सदियों से चले आ रहे नियम बदल जाएंगे नादानी होगी. ऑफ़िस परिसर में अपने प्रेमी से नज़दिकियां बढ़ाना अगर गलत है तो उस जुर्म के सहभागी दोनों हुए, कच्ची उम्र में संभलने की सीख अगर फूल लेने वाली को मिलनी चाहिए तो फूल देने वाले को भी मिलनी चाहिए. औरत और मर्द होने के आधार पर समाज के नियम बदल जाना ही बलात्कार की नींव रखता है.

दिल्ली में हर साल मुम्बई के मुकाबले कितने अधिक बलात्कार के केस दर्ज होते हैं, इसपर रीसर्च की जा सकती है. गांव-देहात के छुपे कमरों में कितनी बच्चियां इन हालात के आगे आवाज़ किए बगैर घुटने टेक देती हैं, इसपर बहस सुनी जा सकती है या काश दामिनी बस की जगह द्वारका को जाने वाले मेट्रो ले लेती, सोचकर मन में उठी टीस पर छटपटाया जा सकता है। पर सवाल और जवाब अभी भी वही रहेंगे, इन्सान के लिए लिंग, जाति, धर्म या रंग के आधार पर बने अलग-अलग नियमों ने वक्त-वक्त पर सड़कों पर प्रदर्शन करवाए हैं, बसें जलवाई हैं और लाठियां बरसाई हैं. बदलाव की लहर को स्कूली किताबों से गुज़रते हुए, घरों के ड्रॉइंग रूम में चाय-पानी के वक्त रुकना होगा. मां-बाप जब बेटे और बेटी को अपनी राय रखने का बराबर मौका देंगे. भाई देखेगा कि उसकी बहन सिर्फ़ बात-बात पर डांट खाने के लिए नहीं है. बेटा देखेगा कि उसकी मां का अपना वुजूद है. वो जो नौकरी से आने के बाद सीधा किचन में नहीं घुस जाती, वो जो ऑफ़िस जाने से पहले अकेले खड़े होकर पूरे घर का खाना नहीं बनाती. जब औरत को आधुनिकता का लिबास उढ़ाकर उसके कमाए पैसे और जिस्म पर अधिकार नहीं जमाया जाएगा. 
बलात्कार के ऊपर जाते आंकड़े तब थमेंगे जब समाज में ये सोच विकसित हो सके कि बलात्कार शारिरिक उत्पीड़न से ज़्यादा कुछ भी नहीं. इससे कोई इज़्ज़त-विज़्ज़त नहीं जाती. जब गर्मियों के मौसम में आदमी के शॉर्ट्स पहने को आराम और औरत के शॉर्ट्स पहनने को फ़ैशन का नाम ना दिया जाए. जब आदमी का सेहतमंद होना और औरत का पतला-दुबला होना खूबसूरती का पैमाना ना हो. जब एक ही नियमों की किताब से हम पढ़ना और पढ़ाना सीख जाएं।  

Wednesday 8 August 2012

क्यूं घुटती हैं फ़िज़ाएं


ब्रिटिश मेडिकल जर्नल में छपी ‘नेशनल स्टडी ऑफ़ डेथ (इंडिया)’ 2010 के अनुसार एक पढ़े लिखे मर्द में आत्महत्या करने की गुंजाइश 46 प्रतिशत होती है. वहीं एक पढ़ी-लिखी महिला के लिये ये गुंजाइश बढ़ कर 90 प्रतिशत तक पहुंच जाती है. भारत में एक बच्ची के लिए घर से बाहर निकल कर स्कूल तक जाने का रास्ता कई सवालों और तानों को चीरकर निकलता है. कॉलेज तक पहुंचते-पहुंचते ज़्यादातर घरवालों की आज़ाद ख्याली पस्त हो जाती है. वो बच्ची से युवती बनी अपनी बेटी के सीने पर दुपट्टा डालकर उसे सिलाई-कढ़ाई में जीने की कला सिखाने लगते हैं. जो युवती सुई-धागों को पारकर युनिवर्सिटी के मैदान तक पहुंचती है वो प्रगतिशील मानी जाती है. 2009-2010 की कैटलिस्ट की रिपोर्ट के मुताबिक जहां ग्रामीण इलाकों में पैसे कमाने वाली महिलाएं 26 प्रतिशत हैं वहीं शहरों में ये तादाद 14 प्रतिशत पर ठहर जाती है. यानि उच्च शिक्षा के बावजूद मुट्ठीभर महिलाएं ही आत्मनिर्भरता की तरफ़ कदम बढ़ा पाती हैं. बाकि बची महिलाओं की प्रगतिशीलता चूल्हे के धुंए के साथ उड़ जाती है.

मर्दों की इस दुनिया में औरत की हैसियत बदबू करती फ़िज़ा की लाश जैसी है. जिसके करीब जाने के लिए नाक को कपड़े से ढंकना पड़ता है. औरत का अस्तित्व गीतिका के ख्वाबों जैसा है जिसकी उड़ान कोई और तय करता है. रंग-बिरंगी, शोख़ और बेबाक ज़िंदगी जीने के बावजूद क्यूं एक औरत को अकेलापन चुनना पड़ता है. ऊंचे ओहदे तक पहुंचने के बावजूद ऐसा क्या है जो एक औरत ज़िंदगी की गोद में बेबस महसूस करने लगती है. मौत ही आखिरी रास्ता क्यों बचता है. विवेका बाबाजी, नफ़ीसा जोसेफ़ या कुलजीत रंधावा फ़ैशन जगत के झिलमिलाते सितारे थे, पैसा, शोहरत और आलिशान पोशाकों ने एक वक्त पर ज़िन्दगी को चमकदार बनाया हुआ था. रैंप पर चलते हुए इनकी चाल में वो शान होती जो हार को रास्ता बदने पर मज़बूर कर दे. लेकिन रैंप की वो अकड़ ज़िंदगी में क्यूं नहीं उतर सकी. करियर की ढलान के साथ ये खुद भी क्यूं ढल गईं.

एक आम राय है कि चकाचौंध आखिर अंधा ही करती है. लेकिन फ़िज़ा तो एक वकील थी. और गीतिका ऐयर-होस्टेस. ना तो मोटी-मोटी किताबों को पढ़कर काले कोट तक पहुंचना आसान है और ना ही ऊंची-ऊंची सैंडल पहनकर दिन भर खड़े रह कर मुस्कुराते हुए चाय परोसना आसान है. जहां एक को करते हुए सिर दुखता है, वहीं दूसरे से कमर. इन आत्महत्याओं से कवयित्री मधुमिता शुक्ला और गायिका भंवरी देवी की हत्या की डोर भी जुड़ती हुई दिखती है.

मर्दों का बनाया समाज औरत की आज़ादी की सीमा निर्धारित करता है. वो स्त्रीवाद के नाम पर औरत को उसके घर से बाहर तो निकाल लेता है लेकिन अपने घर में जगह नहीं देता. एक स्त्री को बचपन से ही निर्भरता की ट्रेनिंग दी जाती है. उसे चलना नहीं, घिसटना सिखाया जाता है. किताबों के बीच भी उसे चावल की किस्में सिखाई जाती हैं. होम-वर्क के साथ ही उसे भाई की किताबों पर कवर चढ़ाना याद करवाया जाता है. सुबह अपनी यूनिफ़ॉर्म के साथ वो भाई की स्कूल की शर्ट और पिता की टाई भी इस्त्री करती है. ट्यूशन जाने से पहले उसे किचन के बर्तन और भाई का कमरा साफ़ करना होता है. खेल में भाई उसे मार सकता है लेकिन उसे हंसते हुए बात को टालना होगा क्युंकि उसे सिखाया गया है कि भाई तुमसे प्यार करता है. हालांकि वो खुद प्यार में दो-चार मुक्के अपने भाई को नहीं रसीद कर सकती. क्युंकि उसके बाद प्यारा भाई उसका भुरता बना देगा. पति परमेश्वर है तो कॉलेज में बना दोस्त भी उसी कैटेगरी का ट्रीट्मेंट चाहता है. बचपन से पिलाई गई घुट्टी कितना असर करती है अब दिखेगा. दोस्त की ऐंठ वैसी ही जैसी पिता की मां पर देखती है. इससे क्यों बात की, उसकी तरफ़ क्यों देखा. बचपन में भाई का होमवर्क करती थी. अब परमेश्वर-दोस्त के असाइमेंट बनाने लगी. उसने देखा बचपन की सीख बिल्कुल सटीक है. रिश्ते निभाने के लिए उसे किनारे खड़े होना होगा. केंद्र में हमेशा कोई पुरुष होना ही चाहिए. कभी भाई, कभी पिता, कभी परमेश्वर-दोस्त, कभी पति. वहीं एक मर्द को ये समाज बचपन से ही शोषक बनना सिखाता है. हम अपने बेटों को ‘गोपाल कांडा’ बना रहे हैं. जिसके लिए औरत अपने घर से सिर्फ़ मर्दों का दिल बहलाने के लिए निकलती है.

एक स्त्री का अकेलापन पुरुष के अकेलेपन से बेहद अलग होता है. स्त्री को एक साथी चाहिए ताकि वो उस साथी की परवाह कर सके. किसी का ख्याल रख सके. उस किसी के सिर पर हाथ रखकर उसकी बंद होती आंखें देख सके. अब चाहे वो कितने भी ऊंचे ओहदे पर हो या उसके अकाउंट में कितना भी पैसा हो. वो इन सब के बल पर अपना ख्याल रखवाने के लिए नौकर तो रख सकती है लेकिन ऐसा साथी नहीं ढ़ूंढ़ सकती जिसके लिए खुद उसके मन में परवाह हो. समाज में पुरुष हमेशा संपूर्ण और निश्छल रहता है. फ़िज़ा उर्फ़ अनुराधा चांद मोहम्मद उर्फ़ चन्द्रमोहन से ये जानते हुए शादी करती है कि उसने अपनी पहली पत्नी को नहीं छोड़ा. वहीं चंद्रमोहन की पहली पत्नी भी फ़िज़ा और उसकी शादी की बात जानते हुए उसे फिर से अपना लेती है. हिसार के बिश्नोई मंदिर में पूजा-पाठ कर के चांद मोहम्मद को फिर से चंद्र मोहन बना लिया जाता है. 2007 में कोर्ट, गर्भवती मधुमिता शुक्ला की हत्या करवाने के मामले में उसके प्रेमी अमरमणी त्रिपाठी को आजीवन कारावास की सज़ा सुनाती है. और 2007 के उत्तर प्रदेश असेंबली इलेक्शन में वही अमरमणी त्रिपाठी महाराजगंज डिस्ट्रिक्ट से सीट जीतता है.

औरत के लिए वापसी का कोई दरवाज़ा नहीं है. उसकी गलतियों पर ना तो उसे समाज माफ़ करता है और ना ही खुद उसके अपने घर वाले. एक बार चौखट लांगने के बाद वो लौट नहीं सकती. शायद यही वजह है कि दुनिया जीतने के बाद भी वो खुद को हारा हुआ ही महसूस करती है. ज़िन्दगी की नींव हमारे सही-गलत फ़ैसलों पर रखी जाती है. लेकिन औरत को गलत फ़ैसले करने के बाद फिर से एक नई शुरुआत करने का हक नहीं है. जब सामने का रास्ता अंधकारमय हो और पीछे का किवाड़ अंदर से बंद हो तो फ़िज़ाएं घुटने लगती हैं.

Friday 25 May 2012

गली-गली चोर है



मेरी मां की एक सहेली है. किसी भी मध्यवर्गीय हिन्दुस्तानी औरत की तरह मेरी मां की उस सहेली को भी धार्मिक कर्मकांड बहुत सुहाते हैं. उनकी बैचैन ज़िन्दगी बच्चों के दिन-रात परेशान करने, एक-एक पैसे का हिसाब रखने और पति के हर वक्त के गुस्से के बीच गुज़र रही है. ऐसे में उनके पास शांति के दो ही रास्ते हैं. एक तो औरत को साज़िशों का पिटारा बताने वाले टीवी सीरियल या फिर पूजा-पाठ को सुख का रास्ता बताने वाले मौलाना. अपने पति के दिमाग को ठंडा रखने और अपने बच्चों के परीक्षाओं में अच्छे नम्बर लाने की उम्मीद में वो मौलानाओं को झाड़-फूंक के लिए पैसे देती रहती हैं. अक्सर ही उन्हें अपने बेटे के गले में कोई नया ताबीज़ पहनाते हुए या चादर के नीचे मौलाना की दी हुई चीनी बिछाते हुए देखा जा सकता है. पिछले दिनों कुछ ऐसा हुआ कि उनके धार्मिक विश्वास को बहुत बड़ा झटका लगा.

तकरीबन पंद्रह दिन पहले की बात है, उनके पति ने घर पर एक मौलाना को बुलाया. शाहीन बाग़ (दिल्ली) में रहने वाले ये मौलाना इनके घर अक्सर आते रहते थे. उस दिन घर पर सिर्फ़ पति-पत्नी थे. दोपहर का वक्त था और बच्चे कहीं बाहर गए हुए थे. मौलाना ने घर में घुसते ही ऊंची आवाज़ में कहा “तुम्हारी पत्नी के ऊपर बुरा साया है, इसके अन्दर गंदगी घुस गई है जिसे बाहर निकालना होगा.” पत्नी घबरा गई और पति की तरफ़ देखने लगी. ऐसे में उस मौलाना ने पति की तरफ़ इशारा करके कहा कि तुम किचन में जाओ और थोड़ा सा आटा गूंध कर लाओ. मैं तुम्हारी पत्नी को ठीक करूंगा. उसके बाद उस मौलाना ने पत्नी को सामने एक कुर्सी पर बिठा लिया और उसके चहरे, गले और फिर सीने पर हाथ चलाने लगा. पत्नी अपने ऊपर बुरे साए की बात सुन कर पहले ही घबराई हुई थी और फिर मौलाना के इस तरह की हरकत से बिल्कुल रुंहासी हो गई. मौलाना की हिम्मत खुल गई और वो कुछ और करने के लिए आगे बढ़ने लगा, ऐसे में वो झट से खड़ी हुईं और उसे पीछे हटने के लिए कहा. तब तक उनके पति कमरे में आ चुके थे और हालात कुछ-कुछ समझ गये थे. मौलाना के जाने के बाद पति ने पत्नी से सवाल-जवाब शुरु किए जैसे उसके तुम्हारे साथ क्या किया, कहां-कहां छुआ और ये कि अगर उसने तुम्हें सीने पर हाथ लगाया है तो मैं तुम्हें तलाक़ दे दूंगा. पत्नी ने डर से अपने पति को एक लफ़्ज़ भी नहीं कहा और इतनी बड़ी बात चुपचाप सह गई. मेरी मां को ये सब बताते हुए वो बुरी तरह रो रही थीं और कह रही थीं कि मैं अब नरक में जाउंगी, मैं अपवित्र हो गई हूं.

मां को अपनी सहेली के आंसुओं में लाचारी दिखी, लेकिन मुझे उन आसुंओ में दो सवाल चमकते नज़र आए. ये कैसी व्यवस्था है जो पीड़ित को दोषी बना देती है. हमारा समाज बलात्कार या यौन उत्पीड़न के मामलों से इस तरह पेश आता है जिसमें अपराधी गर्व का पात्र बनता है. एक आदमी को ये गर्व से कहते सुना जा सकता है कि मैंने तो अपनी जवानी के दिनों में बहुत सी लड़कियां छेड़ीं. आज होने वाले हर अपराध को यह कह कर पल्ला झाड़ा जा सकता है कि कलयुग में पाप का वास रहेगा. लेकिन ये कोई आज की कहानी नहीं है. हमारे पुराणों में अहल्या बस्ती है. जिसके शरीर को इन्द्र ने छल से हासिल किया. इन्द्र को स्वर्ग का देवता माना जाता है, अगर स्वर्ग का शासक ऐसा है तो बेशक स्वर्ग किसी स्त्री के लिए सुरक्षित नहीं होगा. खैर, उस समय गौतम महर्षि ने अहल्या को शाप देकर पत्थर का बना दिया था. अर्थात उन्होंने अहल्या को त्याग दिया था. सतयुग और कलयुग में फ़र्क कहां है. आज भी जिस्म पर बात आए तो औरत की गलती मान कर उसे तलाक दे दिया जाता है और उस समय भी औरत को इन्सान नहीं खाने की चीज़ समझा जाता था जिसे अगर जूठा कर दिया जाए तो खा नहीं सकते.

इस घटना ने एक और सवाल उठाया है और वो ये है कि हम टीवी पर आने वाले निर्मल बाबा पर शोर मचाते हैं लेकिन गली-गली में बैठे ऐसे हज़ारों ठगों को नज़र अन्दाज़ क्यूं कर देते हैं. हमारे विवेक पर मिट्टी डालने का काम कोई एक खास बहरूपिया नहीं कर रहा बल्कि छोटे-बड़े स्तर पर आज हर मौहल्ले में ऐसे ढोंगियों ने लूट मचाई हुई है. अगर आज शाहीन बाग़ के उस मौलाना के खिलाफ़ कोई आवाज़ उठाए तो धर्म पर हमले का हावाला देकर, कई गुट खतरनाक हालात पैदा कर सकते हैं. किसी भी अच्छे या बुरे काम की शुरुआत एक छोटे क़दम से ही होती है. अगर हम एक अच्छे काम को उसके शुरुआती दौर में ना सराहें तो मुमकिन है कि वो जल्दी सांस तोड़ दे. उसी तरह अगर हम गलत क़दमों को शुरु में ही ना रोकें तो वो बढ़ते चले जाएंगे, हम पर चढ़ते चले जाएंगे. सौ-दो सौ रुपए लेकर घर में सुख-शांति का दावा करने वाले और सौ- दो सौ करोड़ का चैनल चलाने वाले, ’ऑनलाइन’ पैसा मंगाने वाले बाबाओं में ज़्यादा फ़र्क नहीं है. बस इतना कि एक गली में गुंडा-गर्दी करने वाला मवाली है और एक ए.सी में बैठकर ड्र्ग डीलींग करता डॉन.

सबसे बड़ी व्यथा ये है कि औरत कमज़ोर है इसलिए किसी गैर के छूने से तलाक़ के लायक हो जाती है. लेकिन ऐसे कपटी बाबाओं और मौलानाओं के पीछे खड़ी भीड़ के डर से हम उनपर उंगली उठाने से भी डरते हैं.

Thursday 24 May 2012

मॉर्डन भारत का पिछड़ापन




भारतीय समाज में बलात्कार या शारिरिक उत्पीड़न के मामलों में औरत को दोषी करार देने का रवैया बहुत पुराना है. ये वही देश है जहां अहल्या को इन्द्र की वासना के कारण पत्थर बनने का शाप दिया गया. इसी समाज में बलात्कार पीड़ित फांसी की रस्सी गले में डाल कर, बेगुनाह होते हुए भी गुनहगार बन जाता है. यही वो मुल्क है जहां नाबालिग बच्ची का शोषण होने की खबर आने पर उसकी पढ़ाई-लिखाई बंद करवा दी जाती है. इसी महान देश के भरे बाज़ारों में शरीफ़ मर्द एक औरत को वैश्या कह उसके कपड़े नोचते हैं. और इसी मुल्क में माल्या परिवार के होनहार, पढ़े-लिखे, ऊंचे तबके वाले सिद्धार्थ अपनी आईपीएल टीम के एक खिलाड़ी का पक्ष लेते हुए एक स्त्री को ‘कैरक्टर सर्टीफिकेट’ देते हुए फ़ेल करते हैं.

ऑस्ट्रेलियाई खिलाड़ी ‘ल्यूक पॉमर्शबैक’ आईपीएल में रॉयल चैलेंजर्स बैंगलोर के लिए खेलते हैं, पिछले दिनों एक अमरीकी महिला ने उनके खिलाफ़ पुलिस में शारीरिक उत्पीड़न का मामला दर्ज करवाया. उस महिला के अनुसार ल्यूक पॉमर्शबैक मैच के बाद होटल के उनके कमरे तक आए जहां उन्होंने छेड़छाड़ की और साथ ही कमरे में मौजूद उनके मंगेतर के साथ मारपीट भी की. वैसे तो सही-गलत का फ़ैसला कानून करेगा लेकिन जैसा कि हमारे समाज में होता आया है, किसी भी बलात्कार या यौन उत्पीड़न के मामले में कानूनी लड़ाई से पहले ही स्त्री को दोषी करार दे दिया जाता है. सिद्धार्थ माल्या की पढ़ाई भले ही विदेशी हो, उनकी भाषा भले ही विलायती हो मगर उनके भीतर एक हिन्दुस्तानी मर्द बैठा है. उनके पिता के दुनियाभर में खरीदे हुए बहुत से बंगले ज़रूर हैं लेकिन उनके अन्दर सिर्फ़ एक ही समाज है, ये समाज वही है जो स्त्री को ‘अच्छी पत्नी’ बनने की सलाह देता है.

सिद्धार्थ माल्या ने इस घटना के बाद एक ट्वीट किया था जिसके तहत वो अमरीकी महिला अपने मंगेतर के साथ होते हुए भी उनपर डोरे डाल रही थी, उस महिला ने सिद्धार्थ से उनका ‘ब्लैकबेरी मैसेंजर पिन’ मांगा था और उसका बर्ताव एक होने वाली पत्नी जैसा नहीं था. हमारे समाज में ये माप-दंड तय हैं कि एक पत्नी का बर्ताव कैसा होना चाहिए, उसे कितने कदम चलना चाहिये, किसी पराए मर्द से कितनी बात करनी चाहिए या कितना और कैसे हंसना चाहिये. तथाकथित मॉडर्न हिंदुस्तानी समाज में ऐसी सोच का पनपना दिखाता है कि ऑक्सफ़ॉर्ड, हॉवर्ड या फिर डॉलर में पैसे लेने वाली फ़र्ज़ी विदेशी यूनिवर्सिटियों से डिग्री ले लेने से किसी की ज़हनियत नहीं खुल जाती. ना ही ‘अरमानी’ और ‘वरसाचे’ के कपड़े पहनने से कोई अपना मूल स्वभाव छुपा सकता है. स्त्री का संघर्ष अभी चल रहा है, हर तबका अपने तरीके से उसे टांग पकड़ कर नीचे खींचेगा. ये मान लेना भूल होगी कि अमीर और तथाकथित ’एलीट’ समाज में स्त्री का कोई अस्तित्व है. अगर आपके पड़ोस वाले घर की लड़की बालकनी में ज़्यादा वक्त बिताती है तो वो मौहल्ले की ‘रंभा’ बन जाती है, वहीं अगर कोई रईस तबके की लड़की अपने मंगेतर के साथ होते हुए भी किसी ‘पराए’ मर्द से ‘ब्लैकबैरी मैसेंजर पिन’ मांगती है तो वो ’वाइफ़ मटीरिअल’ नहीं कहलाती. ये दोनों ही मामले अलग-अलग समाज के ज़रूर हैं पर इनके पीछे आधार एक ही है. स्त्री का एक लगा-बंधा, पुरुषों द्वारा तय किया कैरक्टर होता है. बीवी हो तो शर्मीली हो, बहन हो तो कहना सुनती हो, मां हो तो त्याग की देवी हो. प्रेमिका अपनी है तो बाइक पर चढ़ना, पार्क में बैठना सही, दोस्त की है तो चालू कहलाएगी. अगर मान लिया जाए कि वो अमरीकी लड़की सिद्धार्थ के साथ ’फ़्लर्ट’ कर रही थी तो क्या इसका ये मतलब हुआ कि वो एक अच्छी बीवी बनने लायक नहीं है. लेकिन सिद्धार्थ जिस विदेशी माहौल में पले-बढ़े हैं वहां तो ‘फ़्लर्ट’ करने, ‘ब्लाइंड डेट’ पर जाने या फिर किसी लड़की के आगे बढ़ कर फोन नंबर मांगने तक को बुरा नहीं समझा जाता. तो क्या इसका मतलब ये हुआ कि ये उदारवादी सोच खोखली है. सिद्धार्थ के इस बयान के हिसाब से तो हर साल ‘किंगफ़िशर कैलेंडर’ में छपने वाली कोई भी लड़की शादी के लायक नहीं है.

आधुनिकता का लिहाफ़ ओढ़ने वाले एलीट समाज के भीतर छुपी दकियानूस बू वक्त-वक्त पर पिछड़े समाज तक पहुंचती रहती है. ऐसे में पिछड़ेपन के समर्थक सीना चौड़ा कर के यही कहते हैं “ऐश्वर्या राय हॉलीवुड चली गयी, फिर भी मंगलिक थी तो पेड़ के फेरे लिए ना, कुछ भी कर लो रहोगी तो लड़की ही.”  असल में हम एक बेहद ‘कनफ़्यूज़ड’ दौर से गुज़र रहे हैं, औरत की आज़ादी का राग अलापते हुए उसे लोहे की ज़ंजीरों से निकाल कर, चांदी की हथकड़ियां पहना रहे हैं. जहां अब तक संघर्ष परदे और घूंघट से था, वहीं अब मिनी स्कर्ट और बिकीनी से भी निपटना है. कमर चौबिस इन्च से ज़्यादा नहीं, गले पर ‘कॉलर बोन’ और चार इन्च की पेंसिल हील की ज़बर्दस्ती ने इसी आधुनिक समाज की स्त्री को कई लाइलाज जोड़ों की बीमारी और पीठ दर्द सौंपा है. स्त्री-विमर्श का ढोल पीटने वालों को अब सिर्फ़ चारदिवारी पर सवाल नहीं उठाने बल्कि ‘स्लट वॉक’ का समर्थन करने वालों से भी पूछना है कि क्या हंसी-ठहाके लगाते हुए टोरॉंटो की नकल कर लेना काफ़ी है. क्या कैनेडा की स्त्री की आज़ादी की लड़ाई और एक भारतीय स्त्री के स्वावलंबी होने के संघर्ष का रास्ता एक ही होगा.

हम दोहरी मार झेल रहे हैं. हमें एक सड़े-गले समाज में रहते हुए खुली हवा में सांस लेने का नाटक करना है. इन हालात में खुद को आज़ाद ख्याल साबित करने के लिए छोटे कपड़े पहनने की मजबूरी वैसी ही है, जैसे पवित्रता साबित करने के लिए साड़ी पहनना. ऐसे आधुनिक समाज से स्त्री का कोई भला नहीं होने वाला जहां शॉर्ट-टॉप तो पहना जा सकता है लेकिन लॉंग मगंलसूत्र के साथ.


Thursday 22 March 2012

सरकारी स्कूल महान नहीं हैं…

‘नक्सली’ किसी स्कूल से नहीं गरीबी और अत्याचार से पैदा होते हैं. बेशक सरकारी स्कूल नक्सली पैदा नहीं करते मगर इतना काफ़ी नहीं है. हमें समझना होगा कि ‘क्या गलत नहीं होता इसे लेकर गर्व महसूस करना है या क्या बेहतर हो सकता है उसके लिये ज़ोर लगाना है’. अगर श्री श्री रविशंकर ने सरकारी स्कूलों के बारे में गलत बयान दिया तो इसका मतलब ये नहीं है कि हिन्दुस्तान के सारे सरकारी स्कूल महान हो गये. संस्कार ना तो सरकारी स्कूल में पढ़ने से आते हैं और ना ही प्राइवेट स्कूल में परोसे जाते हैं. संस्कार मिलते हैं घर से, किताबों से और अच्छी सोहबत से.

एक प्राइवेट स्कूल में भी गाली-गलोज, मार-पिटायी खूब होती है. हां, ये फ़र्क ज़रूर है कि गालियां अंग्रेज़ी में दी जाती हैं और लड़ाई-झगड़े सिर्फ़ बच्चों तक सीमित होते हैं. टीचरों में इतनी हिम्मत नहीं होती कि वो बच्चों को हाथ भी लगा दें. अगर किसी टीचर ने ऐसा कर दिया तो खुद स्कूल प्रिंसिपल उस टीचर को सबक याद करवाती दिख जाती है. वहीं ज़्यादातर सरकारी स्कूलों में बच्चों पर हाथ उठाया जाता है जिसे किसी भी रूप में सही नहीं ठहराया जा सकता. हो सकता है सरकारी स्कूलों से आई.ए.एस और आई.पी.एस निकलते हों. ऊंचे ओहदों पर बैठे ज़्यादातर लोग सरकारी स्कूलों से ही पढ़े हों पर इसका ये मतलब नहीं कि जो गलत है उसे भी सही मान लिया जाये. अक्सर ही सामने आता है कि गांव-देहात में सरकारी स्कूलों के अध्यापक खुद ही ठीक से ए,बी,सी,डी नहीं जानते और बच्चों को गलत अंग्रेज़ी पढ़ाते हैं. गणित, हिन्दी और समाज-शास्त्र पढ़ाने के लिये एक ही टीचर होते हैं, और विज्ञान के नाम पर सिर्फ़ सवाल-जवाब रटाए जाते हैं. सवाल उस व्यवस्था पर उठता है जो चौदह साल तक के बच्चों को मुफ़्त शिक्षा देने का दावा तो करती है पर असल में कई जगहों पर तो ब्लैक बोर्ड तक नहीं होता, कुर्सी-टेबल और किताबें तो दूर की बात है. कहते हैं आधी जानकारी होना, जानकारी ना होने से ज़्यादा खतरनाक होता है. हमारे ज़्यादातर सरकारी स्कूलों में यही आधी जानकारी दी जाती है.

प्राइवेट स्कूल भी दूध के धुले नहीं हैं, कई महंगे प्राइवेट स्कूलों में अच्छी शिक्षा के नाम पर बच्चों को हिन्दी पढ़ाना बन्द कर दिया गया है. कई स्कूलों में हिन्दी में बात करने पर ‘फ़ाइन’ लगता है. यहां तक कि ऐसे भी प्राइवेट स्कूल हैं जो बच्चे का दाखिला लेने से पहले एक खास तरह का फ़ॉर्म भरवाते हैं, जिनमें कुछ ऐसे सवाल होते हैं कि आप हफ़्ते में कितनी बार मैक-डॉनल्ड्स जाते हैं, किस ब्रैंड के कपड़े पहनते हैं या आपके कितने रिश्तेदार बाहरी मुल्कों में रहते हैं. बेशक श्री श्री रविशंकर से जीने की कला वही लोग सीख पाते हैं जो ऐसे किसी फ़ॉर्म को कॉलर उंचा करके भर पाते हैं. ऐसे में चांद जैसी गोल आंखों और आधे चांद जैसी मुस्कान वाले रविशंकर को अपना टार्गेट देखते हुए ही बात करनी है. किसी को रिझाने का सबसे अच्छा तरीका है, उसे उंचा कहा जाये और दूसरों को गलत साबित किया जाये. रविशंकर अपनी भीड़ को खुश करने की कोशिश में निजीकरण के फ़ायदे ही गिनवायेंगे. भले ही इसके लिये गलत बयानी ही क्युं ना करनी पड़े. मगर इसका ये मतलब कतई नहीं है कि हम सरकारी स्कूलों के काले चिट्ठे भूल जायें और पूरी तरह से उन्हें आदर्श स्कूलों का दर्जा दे दें. क्लास के वक्त बच्चों का बाहर ग्राउंड में खेलना, टीचर का वक्त पर क्लास में ना आना, या स्कूल ही नहीं आना, बोर्ड परीक्षा में चीटिंग होना, टीचरों का जाति-धर्म देख कर भेदभाव करना, ये सबकुछ हमारे सरकारी स्कूलों में होता है. रविशंकर कुछ भी कहें पर हमें इस सच से मुंह नहीं मोड़ना चाहिये. कपिल सिब्बल का कहना कि मैं सरकारी स्कूल से पढ़ा हूं पर मैं नक्सलवादी नहीं हूंकाफ़ी नहीं है.

गांव-देहात और छोटे शहरों में तो कई सरकारी स्कूल ऐसे हैं जहां तबेले खुले हुए हैं, जिन्हें सिर्फ़ कमेटी हॉल की तरह शादियों के लिये इस्तेमाल किया जाता है. इन स्कूलों के टीचरों को वक्त पर तन्ख्वाह तो मिलती है, पर इलाके के बच्चे ‘क’ और ‘ख’ का फ़र्क नहीं समझते. अगर बात सिर्फ़ दिल्ली और महानगर के सरकारी स्कूल की हो तब भी इतनी लापरवाही सामनी आती है जिसमें टीचरों का बच्चों को झिड़क कर बात करना, छड़ी से मारना, कोहनी पर फुट्टे से मारना, उंगली के जोड़ों पर पेन्सिल से चोट करना, वक्त पर स्लेबस पूरा ना करना और सज़ा के तौर पर घंटों धूप में चक्कर लगवाना शामिल है.

बच्चे कांच की तरह होते हैं इन्हें बहुत ज़्यादा परवाह की ज़रूरत होती है. बिल्कुल संभाल कर रखना, बिल्कुल संभाल कर उठाना. अगर एक बार गलती से भी चटक पड़ गयी तो फिर वो कांच का हिस्सा बन जायेगी. सिर्फ़ ये सोच कर संतुष्टी कर लेना कि हम नक्सली पैदा नहीं करते काफ़ी नहीं है. एक दुतकारा हुआ, झिड़का हुआ बचपन उम्रभर की टीस देता है. एक बच्चे का मानसिक विकास और निडर होकर हंसना-खेलना, गलतियां करना उतना ही ज़रूरी है जितना वक्त पर खाना-पीना और सोना. अफ़सोस हम अपनी आने वाली पीढ़ी के खान-पान की एहमियत तो समझते हैं पर सबसे अहम उसके बचपन की कद्र नहीं कर पाते.

Thursday 26 January 2012

हम धर्मनिरपेक्ष नहीं…

तो आखिरकार ना सलमान रुश्दी हिन्दुस्तान आ सके और ना ही उन्हें वीडिओ कॉन्फ़रेन्स के दौरान देखा-सुना जा सका. जीत मिली तलवार हाथ में लिये और जायमाज़ कंधे पर टांगे हुए जाहिलों को. सफ़ेद कुर्ता पहने और लाल बत्ती की गाड़ी में बठे मतलब-परस्तों को, और सिरदर्द गया खाकी वाले टेबल तोड़ते कामचोरों का. तो फिर नुकसान किसका हुआ, जब भी कोई लड़ाई, जंग या बहस होती है. तो कोई ना कोई तो हारता है, किसी ना किसी का तो नुकसान होता ही है. हां, तो घाटे में गये फिर हर बार की तरह हम, हम लोग.

सलमान रुश्दी का हिन्दुस्तान ना आना हमारी हार है. उस देश की, उस जनता की जो खुद को उदार कहती है. उस शासन पर लानत है जो एक लेखक को कुछ घंटों के लिए भी सुरक्षा नहीं दिला सकता. राजस्थान पुलिस यह कह कर अपना पल्ला झाड़ती रही कि रुश्दी की जान को खतरा है, उनके नाम की सुपारी दी गयी है. पुलिस इस लिये है कि दंबगों को काबू में करके तयशुदा कार्यक्रम चलता रहने में मदद करे या इसलिये कि गुंडों की धमकी के बारे में जानकारी देकर आपको डर कर घर बैठने के लिए कहे. जो सोचते हैं, फ़र्क नहीं पड़ता कोई रुश्दी आये या ना आये. या समझते हैं, क्या हुआ जो ‘इन्टरनेट’ के खुले मंच पर धर्म का बैनर हाथ में लिए, जनसमूह की आवाज़ को दबाने की चाल चली जा रही है. वो ये नहीं जानते, साथ खड़े शख्स का कटता गला देख कर चुप रहोगे तो तुम भी मरोगे.

अगर हिन्दुस्तान धर्मनिरपेक्ष देश है तो फिर जब यहां धार्मिक व्यक्ति को पूजा-पाठ करने, मंदिर-मस्जिद जाने, अज़ान देने, घंटी बजाने, ताज़िया या मुर्तियां निकाल कर सड़क जाम करने की अज़ादी है. तो एक नास्तिक व्यक्ति को अपने विचार रखने की आज़ादी क्युं नहीं होनी चाहिए. अगर कोई मज़हब नहीं मानता और फिर भी हर रोज़ मन्दिर की घंटियों की आवाज़ उसके कान में जाती है या सुबह-सुबह ना चाहते हुए भी उसे अज़ान सुननी पड़ती है. तब वो नहीं चिल्लाता कि मेरी भावनाएं आहत हो रही हैं, तो फिर मज़हब वाले ही क्युं इतनी छुई-मुई हैं. इस सहनशील देश में अगर किसी ने आपके धार्मिक ग्रंथ के बारे में कुछ कह दिया तो आपने दंगों की धमकी दे डाली, किसी ने आपके पूजनीय देवता की पैंटिंग बना दी तो आपने तलवारें निकाल लीं. किसी ने कहा ये मज़हब बेरहम है आपने इस मजाल पर उसकी गरदन काट ली. जैसे ही किसी ने चूं तक की आपने उसके खिलाफ़ फ़तवा जारी कर दिया. और फिर फ़तवा जारी करने के बाद भी चैन नहीं. जब आप सलमान रुश्दी के खिलाफ़ फ़तवा जारी कर ही चुके हैं तो आपका उनसे कोई मतलब तो रहा नहीं वो कहीं भी आये जायें, कुछ भी कहें, कुछ भी करें. अब वो आप के मज़हब के तो रहे नहीं जो उनके कुछ ‘गलत’ कह देने से आपकी नाक कट जाएगी. फिर भी देवबंद जैसी दकियानूसी सोच वाली संस्था इस मुल्क में बड़ी शान से अपनी मनमानी करती है. अगर कोई मज़हब को नहीं मानता तो क्या उसे इस मुल्क में अपनी मर्ज़ी से जीने का, सोचने का, रहने का अधिकार नहीं है. किसी धार्मिक ग्रंथ के खिलाफ़ बोलने से या किसी मुर्ति या पैग़म्बर की कपड़ों या बिना कपड़ों की तस्वीर बना देने से हज़ारों मुक़दमे दर्ज हो जाते हैं. यहां तक कि धार्मिक संवेदनाओं को ठेस पहुंची कह कर हमारे कोर्ट फ़ैसले भी सुना देते है.

दुनिया भर में कभी किसी काफ़िर ने ऐसा कोई मुक़दमा नहीं किया कि फ़लां ग्रंथ पर प्रतिबंध लगाओ उसमें लिखा है काफ़िरों को आग में जलाया जायेगा. ना ही कभी ऐसा हुआ, किसी नास्तिक ने एफ़.आई.आर की हो कि होली में मुझ पर रंग डाला गया या दिवाली, क्रिस्मस या ईद की पार्टी के नाम पर मुझसे ऑफ़िस, कॉलेज या स्कूल में ’कम्पलसरी डोनेशन’ वसूला गया. अगर एक धार्मिक व्यक्ति अपने दिल की बात कह सकता है तो एक नास्तिक का भी शब्दों पर उतना ही अधिकार है. हमारा मुल्क किताबों पर रोक लगाने में तो महारथी हो ही चुका है. लेखकों, आर्टिस्टों को बेइज़्ज़त करने में भी हमने विदेशों में खूब नाम कमाया है, अब हममें इतनी भी सहनशीलता नहीं बची कि किसी लेखक को कम से कम सुन सकें. उस सरकार का क्या अर्थ जो अपने ‘पी.आई.ओ होल्डर’ लेखक को सुरक्षा के साथ एक आयोजन का हिस्सा न बनने दे सके. ऐसी सरकार या पुलिस पर हमें भरोसा क्युं होना चाहिए जो देवबंद नामी संस्था से डर जाए. ये सरकार कटपुतली है जो सही-गलत का फ़ैसला नहीं कर सकती. यह एक विशेष धार्मिक संस्था को इतनी शय देती है कि वो संस्था किसी के कानूनी अधिकार को छीन ले. और फिर यही सरकार धर्मनिरपेक्षता को अपनी ‘यू.एस.पी’ भी कहती है.

मुम्बई पुलिस के सूत्रों की खबर से ये बात सामने आयी है कि राजस्थान पुलिस ने सलमान रुश्दी को झूठ कह कर आने से रोका. हालांकि राज्य सरकार अपने इस दावे पर कि रुश्दी की जान को खतरा था अभी भी अड़ी हुई है. अगर ये बात सही है तब भी केंद्र सरकार, राज्य सरकार और पुलिस रुश्दी को सुरक्षा देने की ज़िम्मेदारी से बच नहीं सकते. क्रिकेटरों और फ़िल्मी सितारों को आये दिन जान से मारने की धमकी मिलती रहती है. ऐसे में इन सिलेब्रिटीज़ को ’ज़ेड’ सुरक्षा उपलब्द कराने में ग़ज़ब की तेज़ी दिखाई जाती है. उन्हें स्टेडियम में जाने या शूटिंग करने से रोका नहीं जाता है.

ये वो मुल्क है जो खुद को कलात्मक समझता है, पर अपने कैनवास के हीरो हुसैन को इज़्ज़त ना दे सका. ये वो मुल्क है जो कहता है हमारा ह्रदय विशाल है लेकिन पड़ोसी मुल्क की शरणार्थी लेखिका को रहने के लिये थोड़ी ज़मीन ना दे सका. ये वही मुल्क है जहां गुरुदावारे के तहखानों में कटारें, मन्दिर के आहाते में लठबाज़ और मस्जिद के कुतबों में नफ़रत की बू मिलती है. क्या हमें इसी हिन्दुस्तान पर गर्व है. क्या हम आने वाली पुश्तों को यही मुल्क सौंपना चाहते हैं.