ब्रिटिश मेडिकल जर्नल
में छपी ‘नेशनल स्टडी ऑफ़ डेथ (इंडिया)’ 2010 के अनुसार एक पढ़े लिखे मर्द में आत्महत्या
करने की गुंजाइश 46 प्रतिशत होती है. वहीं एक पढ़ी-लिखी महिला के लिये ये गुंजाइश बढ़
कर 90 प्रतिशत तक पहुंच जाती है. भारत में एक बच्ची के लिए घर से बाहर निकल कर स्कूल
तक जाने का रास्ता कई सवालों और तानों को चीरकर निकलता है. कॉलेज तक पहुंचते-पहुंचते
ज़्यादातर घरवालों की आज़ाद ख्याली पस्त हो जाती है. वो बच्ची से युवती बनी अपनी बेटी
के सीने पर दुपट्टा डालकर उसे सिलाई-कढ़ाई में जीने की कला सिखाने लगते हैं. जो युवती
सुई-धागों को पारकर युनिवर्सिटी के मैदान तक पहुंचती है वो प्रगतिशील मानी जाती है. 2009-2010 की कैटलिस्ट की रिपोर्ट के मुताबिक जहां ग्रामीण इलाकों में पैसे कमाने वाली
महिलाएं 26 प्रतिशत हैं वहीं शहरों में ये तादाद 14 प्रतिशत पर ठहर जाती है. यानि उच्च
शिक्षा के बावजूद मुट्ठीभर महिलाएं ही आत्मनिर्भरता की तरफ़ कदम बढ़ा पाती हैं. बाकि
बची महिलाओं की प्रगतिशीलता चूल्हे के धुंए के साथ उड़ जाती है.
मर्दों की इस दुनिया में औरत की हैसियत बदबू करती फ़िज़ा की लाश जैसी है. जिसके करीब जाने के लिए नाक को कपड़े से ढंकना पड़ता है. औरत का अस्तित्व गीतिका के ख्वाबों जैसा है जिसकी उड़ान कोई और तय करता है. रंग-बिरंगी, शोख़ और बेबाक ज़िंदगी जीने के बावजूद क्यूं एक औरत को अकेलापन चुनना पड़ता है. ऊंचे ओहदे तक पहुंचने के बावजूद ऐसा क्या है जो एक औरत ज़िंदगी की गोद में बेबस महसूस करने लगती है. मौत ही आखिरी रास्ता क्यों बचता है. विवेका बाबाजी, नफ़ीसा जोसेफ़ या कुलजीत रंधावा फ़ैशन जगत के झिलमिलाते सितारे थे, पैसा, शोहरत और आलिशान पोशाकों ने एक वक्त पर ज़िन्दगी को चमकदार बनाया हुआ था. रैंप पर चलते हुए इनकी चाल में वो शान होती जो हार को रास्ता बदलने पर मज़बूर कर दे. लेकिन रैंप की वो अकड़ ज़िंदगी में क्यूं नहीं उतर सकी. करियर की ढलान के साथ ये खुद भी क्यूं ढल गईं.
एक आम राय है कि चकाचौंध आखिर अंधा ही करती है. लेकिन फ़िज़ा तो एक वकील थी. और गीतिका ऐयर-होस्टेस. ना तो मोटी-मोटी किताबों को पढ़कर काले कोट तक पहुंचना आसान है और ना ही ऊंची-ऊंची सैंडल पहनकर दिन भर खड़े रह कर मुस्कुराते हुए चाय परोसना आसान है. जहां एक को करते हुए सिर दुखता है, वहीं दूसरे से कमर. इन आत्महत्याओं से कवयित्री मधुमिता शुक्ला और गायिका भंवरी देवी की हत्या की डोर भी जुड़ती हुई दिखती है.
मर्दों का बनाया समाज औरत की आज़ादी की सीमा निर्धारित करता है. वो स्त्रीवाद के नाम पर औरत को उसके घर से बाहर तो निकाल लेता है लेकिन अपने घर में जगह नहीं देता. एक स्त्री को बचपन से ही निर्भरता की ट्रेनिंग दी जाती है. उसे चलना नहीं, घिसटना सिखाया जाता है. किताबों के बीच भी उसे चावल की किस्में सिखाई जाती हैं. होम-वर्क के साथ ही उसे भाई की किताबों पर कवर चढ़ाना याद करवाया जाता है. सुबह अपनी यूनिफ़ॉर्म के साथ वो भाई की स्कूल की शर्ट और पिता की टाई भी इस्त्री करती है. ट्यूशन जाने से पहले उसे किचन के बर्तन और भाई का कमरा साफ़ करना होता है. खेल में भाई उसे मार सकता है लेकिन उसे हंसते हुए बात को टालना होगा क्युंकि उसे सिखाया गया है कि भाई तुमसे प्यार करता है. हालांकि वो खुद प्यार में दो-चार मुक्के अपने भाई को नहीं रसीद कर सकती. क्युंकि उसके बाद प्यारा भाई उसका भुरता बना देगा. पति परमेश्वर है तो कॉलेज में बना दोस्त भी उसी कैटेगरी का ट्रीट्मेंट चाहता है. बचपन से पिलाई गई घुट्टी कितना असर करती है अब दिखेगा. दोस्त की ऐंठ वैसी ही जैसी पिता की मां पर देखती है. इससे क्यों बात की, उसकी तरफ़ क्यों देखा. बचपन में भाई का होमवर्क करती थी. अब परमेश्वर-दोस्त के असाइनमेंट बनाने लगी. उसने देखा बचपन की सीख बिल्कुल सटीक है. रिश्ते निभाने के लिए उसे किनारे खड़े होना होगा. केंद्र में हमेशा कोई पुरुष होना ही चाहिए. कभी भाई, कभी पिता, कभी परमेश्वर-दोस्त, कभी पति. वहीं एक मर्द को ये समाज बचपन से ही शोषक बनना सिखाता है. हम अपने बेटों को ‘गोपाल कांडा’ बना रहे हैं. जिसके लिए औरत अपने घर से सिर्फ़ मर्दों का दिल बहलाने के लिए निकलती है.
एक स्त्री का अकेलापन पुरुष के अकेलेपन से बेहद अलग होता है. स्त्री को एक साथी चाहिए ताकि वो उस साथी की परवाह कर सके. किसी का ख्याल रख सके. उस किसी के सिर पर हाथ रखकर उसकी बंद होती आंखें देख सके. अब चाहे वो कितने भी ऊंचे ओहदे पर हो या उसके अकाउंट में कितना भी पैसा हो. वो इन सब के बल पर अपना ख्याल रखवाने के लिए नौकर तो रख सकती है लेकिन ऐसा साथी नहीं ढ़ूंढ़ सकती जिसके लिए खुद उसके मन में परवाह हो. समाज में पुरुष हमेशा संपूर्ण और निश्छल रहता है. फ़िज़ा उर्फ़ अनुराधा चांद मोहम्मद उर्फ़ चन्द्रमोहन से ये जानते हुए शादी करती है कि उसने अपनी पहली पत्नी को नहीं छोड़ा. वहीं चंद्रमोहन की पहली पत्नी भी फ़िज़ा और उसकी शादी की बात जानते हुए उसे फिर से अपना लेती है. हिसार के बिश्नोई मंदिर में पूजा-पाठ कर के चांद मोहम्मद को फिर से चंद्र मोहन बना लिया जाता है. 2007 में कोर्ट, गर्भवती मधुमिता शुक्ला की हत्या करवाने के मामले में उसके प्रेमी अमरमणी त्रिपाठी को आजीवन कारावास की सज़ा सुनाती है. और 2007 के उत्तर प्रदेश असेंबली इलेक्शन में वही अमरमणी त्रिपाठी महाराजगंज डिस्ट्रिक्ट से सीट जीतता है.
औरत के लिए वापसी का कोई दरवाज़ा नहीं है. उसकी गलतियों पर ना तो उसे समाज माफ़ करता है और ना ही खुद उसके अपने घर वाले. एक बार चौखट लांगने के बाद वो लौट नहीं सकती. शायद यही वजह है कि दुनिया जीतने के बाद भी वो खुद को हारा हुआ ही महसूस करती है. ज़िन्दगी की नींव हमारे सही-गलत फ़ैसलों पर रखी जाती है. लेकिन औरत को गलत फ़ैसले करने के बाद फिर से एक नई शुरुआत करने का हक नहीं है. जब सामने का रास्ता अंधकारमय हो और पीछे का किवाड़ अंदर से बंद हो तो फ़िज़ाएं घुटने लगती हैं.
आज यह लेख नवभारत टाइम्स में पढ़ा था ... बहुत सार्थक और सटीक बात कहता लेख ...
ReplyDeleteमर्दों का बनाया समाज औरत की आज़ादी की सीमा निर्धारित करता है. . . bilkul sahi kah rahin hain aap!! Par fir kyon ye baat ooth rahi hai... ?? Kyon auratein mardon ke khilaf bolne ki sahas dikha rahin hain?? Kaun hai jo is sajish me auraton ka sath de raha hai?? Mard aur auraton ki aazadi ki sima kya hai??
ReplyDeleteक्यूं घुटती हैं फ़िज़ाएं?????????
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