Wednesday 26 December 2012

जब नियम की किताब एक होगी…



बलात्कार को लेकर तीन बातें सुनने में बहुत आती हैं. पहली, लड़कियों के कम कपड़ों की वजह से बलात्कार या छेड़-छाड़ होती है. ये एक ऐसा बयान है जो इस दर्जे का भी नहीं कि उसपर चर्चा की जा सके, क्योंकि हम बखूबी जानते हैं बलात्कार 6 साल की बच्ची का भी होता है और साठ साल की दादी की सूरत वाली बुज़ुर्ग महिला का भी. दूसरी, बलात्कार शहरों में होते हैं क्युंकि यहां लड़कियां घर से बाहर निकलती हैं, लेकिन हम ये भी जनते हैं कि बलात्कार या उत्पीड़न के अधिकतर मामले घर में मौजूद सदस्यों द्वारा ही अन्जाम दिए जाते हैं. तीसरी बात कम सुनने में आती है, वो है बलात्कार दबे-कुचले इलाकों में ज़्यादा होते हैं क्योंकि वहां मर्द के भीतर कुंठाएं होती हैं, जबकि ‘प्रोग्रेसिव’ समाज में लड़के-लड़कियां एक एक-दूसरे से घुले-मिले रहते हैं सो वहां ऐसा कम होता है. अगर हम न्यूयॉर्क को दिल्ली से ज़्यादा प्रोग्रेसिव और मॉडर्न मानते हैं तो ये जानकार हैरानी हो सकती है साल 2011 में जहां दिल्ली में 568 बलात्कार के केस दर्ज करवाए गए, वहीं न्यूयॉर्क में ये आंकड़ा 2752 को छूता है, लंडन में 3334 और अरसों तक बराबरी और हक के लिए लड़ने वाले नेल्सन मन्डेला के दक्षिण एफ़्रिका की प्रादेशिक राजधानी केपटाउन में साल 2011 में 64514 बलात्कार के केस दर्ज हुए.

नौकरी करने, पैसा कमाने, अपनी पसंद के कपड़े पहनने या शादी करने से अगर बराबरी और इज़्ज़त मिलती तो दुनिया के इन मशहूर शहरों में लड़कियों को कॉलेजों, अस्पतालों या सड़कों पर ज़ोर-ज़बर्दस्ती का सामना नहीं करना पड़ता. अपने पैरों पर खड़े होने का मतलब अगर बैंक-बैलेंस होता तो मशहूर पॉप स्टार रिहाना अपने बॉयफ़्रेंड क्रिस ब्राउन से लगातार पिटने के बाद, कम्प्लेंट करवाने के बाद, सज़ा दिलवाने के बाद फिर उसी के साथ हंसते मुस्कुराते हुए पार्टियों में नज़र नहीं आतीं. ये सूरते-हाल हमें साफ़-साफ़ कहती है तुम केवल एक शरीर हो, तुम अपने पति-प्रेमी से पिटोगी और फिर बाहों में भी भरोगी.”
बलात्कार एक ज़हनियत है, जो औरत को मर्द से कम आंकती है, जो उसे सिर्फ़ भोगने की वस्तू बनाती है. वही ज़हनियत जो कई पुलिस एस.एच.ओ से कहलवाती है बलात्कार में लड़की की मर्ज़ी शामिल होती है. वही ज़हनियत जो पढ़े-लिखे समाज में भी दहेज की परंपरा को बनाए हुए है, ये ज़हनियत घरेलू हिंसा को गांव हो या शहर, भारत हो या विदेश हवा देती रहती है. फ़र्क बस इतना है कि कोई साड़ी के पल्लू से चेहरे के निशान ढंकती है तो कोई काले चश्मे की शह लेती है.

मेरे पिछले ऑफ़िस में एक लड़की थी हर वक्त अपने काम में मगन रहती. उसका ऑफ़िस के एक साथी से प्रेम-संबंध था. एक दिन किसी ने दोनों को ऑफ़िस के एक हिस्से में चुंबन करते देख लिया. ज़ाहिर सी बात है फिर बॉस को तो पता चलना ही था. बॉस ने आनन-फ़ानन में उस लड़की को ऑफ़िस से निकाल दिया. मगर वो लड़का आज दो साल के बाद भी उसी कंपनी में सिर उठाकर काम कर रहा है. स्कूल के दिनों की बात है जब एक लड़की के माता-पिता को इसलिए तलब किया गया था क्योंकि उसे अपने जन्मदिन पर एक दोस्त ने गुलाब के फूल दिए थे. ज़ाहिर सी बात है यहां भी फूल देने वाले लड़के को टीचर ने खुद ही समझा-बुझा दिया था. जिस समाज में प्रेम संबंध से बढ़ी नज़दिकियों के लिए लड़की को दोषी समझा जाता है, बल्कि इसके लिए बिना सुनवाई किए सज़ा भी सुना दी जाती है. वहां उम्मीद करना कि रातोंरात कोई बदलाव आएगा और सदियों से चले आ रहे नियम बदल जाएंगे नादानी होगी. ऑफ़िस परिसर में अपने प्रेमी से नज़दिकियां बढ़ाना अगर गलत है तो उस जुर्म के सहभागी दोनों हुए, कच्ची उम्र में संभलने की सीख अगर फूल लेने वाली को मिलनी चाहिए तो फूल देने वाले को भी मिलनी चाहिए. औरत और मर्द होने के आधार पर समाज के नियम बदल जाना ही बलात्कार की नींव रखता है.

दिल्ली में हर साल मुम्बई के मुकाबले कितने अधिक बलात्कार के केस दर्ज होते हैं, इसपर रीसर्च की जा सकती है. गांव-देहात के छुपे कमरों में कितनी बच्चियां इन हालात के आगे आवाज़ किए बगैर घुटने टेक देती हैं, इसपर बहस सुनी जा सकती है या काश दामिनी बस की जगह द्वारका को जाने वाले मेट्रो ले लेती, सोचकर मन में उठी टीस पर छटपटाया जा सकता है। पर सवाल और जवाब अभी भी वही रहेंगे, इन्सान के लिए लिंग, जाति, धर्म या रंग के आधार पर बने अलग-अलग नियमों ने वक्त-वक्त पर सड़कों पर प्रदर्शन करवाए हैं, बसें जलवाई हैं और लाठियां बरसाई हैं. बदलाव की लहर को स्कूली किताबों से गुज़रते हुए, घरों के ड्रॉइंग रूम में चाय-पानी के वक्त रुकना होगा. मां-बाप जब बेटे और बेटी को अपनी राय रखने का बराबर मौका देंगे. भाई देखेगा कि उसकी बहन सिर्फ़ बात-बात पर डांट खाने के लिए नहीं है. बेटा देखेगा कि उसकी मां का अपना वुजूद है. वो जो नौकरी से आने के बाद सीधा किचन में नहीं घुस जाती, वो जो ऑफ़िस जाने से पहले अकेले खड़े होकर पूरे घर का खाना नहीं बनाती. जब औरत को आधुनिकता का लिबास उढ़ाकर उसके कमाए पैसे और जिस्म पर अधिकार नहीं जमाया जाएगा. 
बलात्कार के ऊपर जाते आंकड़े तब थमेंगे जब समाज में ये सोच विकसित हो सके कि बलात्कार शारिरिक उत्पीड़न से ज़्यादा कुछ भी नहीं. इससे कोई इज़्ज़त-विज़्ज़त नहीं जाती. जब गर्मियों के मौसम में आदमी के शॉर्ट्स पहने को आराम और औरत के शॉर्ट्स पहनने को फ़ैशन का नाम ना दिया जाए. जब आदमी का सेहतमंद होना और औरत का पतला-दुबला होना खूबसूरती का पैमाना ना हो. जब एक ही नियमों की किताब से हम पढ़ना और पढ़ाना सीख जाएं।