Thursday, 22 March 2012

सरकारी स्कूल महान नहीं हैं…

‘नक्सली’ किसी स्कूल से नहीं गरीबी और अत्याचार से पैदा होते हैं. बेशक सरकारी स्कूल नक्सली पैदा नहीं करते मगर इतना काफ़ी नहीं है. हमें समझना होगा कि ‘क्या गलत नहीं होता इसे लेकर गर्व महसूस करना है या क्या बेहतर हो सकता है उसके लिये ज़ोर लगाना है’. अगर श्री श्री रविशंकर ने सरकारी स्कूलों के बारे में गलत बयान दिया तो इसका मतलब ये नहीं है कि हिन्दुस्तान के सारे सरकारी स्कूल महान हो गये. संस्कार ना तो सरकारी स्कूल में पढ़ने से आते हैं और ना ही प्राइवेट स्कूल में परोसे जाते हैं. संस्कार मिलते हैं घर से, किताबों से और अच्छी सोहबत से.

एक प्राइवेट स्कूल में भी गाली-गलोज, मार-पिटायी खूब होती है. हां, ये फ़र्क ज़रूर है कि गालियां अंग्रेज़ी में दी जाती हैं और लड़ाई-झगड़े सिर्फ़ बच्चों तक सीमित होते हैं. टीचरों में इतनी हिम्मत नहीं होती कि वो बच्चों को हाथ भी लगा दें. अगर किसी टीचर ने ऐसा कर दिया तो खुद स्कूल प्रिंसिपल उस टीचर को सबक याद करवाती दिख जाती है. वहीं ज़्यादातर सरकारी स्कूलों में बच्चों पर हाथ उठाया जाता है जिसे किसी भी रूप में सही नहीं ठहराया जा सकता. हो सकता है सरकारी स्कूलों से आई.ए.एस और आई.पी.एस निकलते हों. ऊंचे ओहदों पर बैठे ज़्यादातर लोग सरकारी स्कूलों से ही पढ़े हों पर इसका ये मतलब नहीं कि जो गलत है उसे भी सही मान लिया जाये. अक्सर ही सामने आता है कि गांव-देहात में सरकारी स्कूलों के अध्यापक खुद ही ठीक से ए,बी,सी,डी नहीं जानते और बच्चों को गलत अंग्रेज़ी पढ़ाते हैं. गणित, हिन्दी और समाज-शास्त्र पढ़ाने के लिये एक ही टीचर होते हैं, और विज्ञान के नाम पर सिर्फ़ सवाल-जवाब रटाए जाते हैं. सवाल उस व्यवस्था पर उठता है जो चौदह साल तक के बच्चों को मुफ़्त शिक्षा देने का दावा तो करती है पर असल में कई जगहों पर तो ब्लैक बोर्ड तक नहीं होता, कुर्सी-टेबल और किताबें तो दूर की बात है. कहते हैं आधी जानकारी होना, जानकारी ना होने से ज़्यादा खतरनाक होता है. हमारे ज़्यादातर सरकारी स्कूलों में यही आधी जानकारी दी जाती है.

प्राइवेट स्कूल भी दूध के धुले नहीं हैं, कई महंगे प्राइवेट स्कूलों में अच्छी शिक्षा के नाम पर बच्चों को हिन्दी पढ़ाना बन्द कर दिया गया है. कई स्कूलों में हिन्दी में बात करने पर ‘फ़ाइन’ लगता है. यहां तक कि ऐसे भी प्राइवेट स्कूल हैं जो बच्चे का दाखिला लेने से पहले एक खास तरह का फ़ॉर्म भरवाते हैं, जिनमें कुछ ऐसे सवाल होते हैं कि आप हफ़्ते में कितनी बार मैक-डॉनल्ड्स जाते हैं, किस ब्रैंड के कपड़े पहनते हैं या आपके कितने रिश्तेदार बाहरी मुल्कों में रहते हैं. बेशक श्री श्री रविशंकर से जीने की कला वही लोग सीख पाते हैं जो ऐसे किसी फ़ॉर्म को कॉलर उंचा करके भर पाते हैं. ऐसे में चांद जैसी गोल आंखों और आधे चांद जैसी मुस्कान वाले रविशंकर को अपना टार्गेट देखते हुए ही बात करनी है. किसी को रिझाने का सबसे अच्छा तरीका है, उसे उंचा कहा जाये और दूसरों को गलत साबित किया जाये. रविशंकर अपनी भीड़ को खुश करने की कोशिश में निजीकरण के फ़ायदे ही गिनवायेंगे. भले ही इसके लिये गलत बयानी ही क्युं ना करनी पड़े. मगर इसका ये मतलब कतई नहीं है कि हम सरकारी स्कूलों के काले चिट्ठे भूल जायें और पूरी तरह से उन्हें आदर्श स्कूलों का दर्जा दे दें. क्लास के वक्त बच्चों का बाहर ग्राउंड में खेलना, टीचर का वक्त पर क्लास में ना आना, या स्कूल ही नहीं आना, बोर्ड परीक्षा में चीटिंग होना, टीचरों का जाति-धर्म देख कर भेदभाव करना, ये सबकुछ हमारे सरकारी स्कूलों में होता है. रविशंकर कुछ भी कहें पर हमें इस सच से मुंह नहीं मोड़ना चाहिये. कपिल सिब्बल का कहना कि मैं सरकारी स्कूल से पढ़ा हूं पर मैं नक्सलवादी नहीं हूंकाफ़ी नहीं है.

गांव-देहात और छोटे शहरों में तो कई सरकारी स्कूल ऐसे हैं जहां तबेले खुले हुए हैं, जिन्हें सिर्फ़ कमेटी हॉल की तरह शादियों के लिये इस्तेमाल किया जाता है. इन स्कूलों के टीचरों को वक्त पर तन्ख्वाह तो मिलती है, पर इलाके के बच्चे ‘क’ और ‘ख’ का फ़र्क नहीं समझते. अगर बात सिर्फ़ दिल्ली और महानगर के सरकारी स्कूल की हो तब भी इतनी लापरवाही सामनी आती है जिसमें टीचरों का बच्चों को झिड़क कर बात करना, छड़ी से मारना, कोहनी पर फुट्टे से मारना, उंगली के जोड़ों पर पेन्सिल से चोट करना, वक्त पर स्लेबस पूरा ना करना और सज़ा के तौर पर घंटों धूप में चक्कर लगवाना शामिल है.

बच्चे कांच की तरह होते हैं इन्हें बहुत ज़्यादा परवाह की ज़रूरत होती है. बिल्कुल संभाल कर रखना, बिल्कुल संभाल कर उठाना. अगर एक बार गलती से भी चटक पड़ गयी तो फिर वो कांच का हिस्सा बन जायेगी. सिर्फ़ ये सोच कर संतुष्टी कर लेना कि हम नक्सली पैदा नहीं करते काफ़ी नहीं है. एक दुतकारा हुआ, झिड़का हुआ बचपन उम्रभर की टीस देता है. एक बच्चे का मानसिक विकास और निडर होकर हंसना-खेलना, गलतियां करना उतना ही ज़रूरी है जितना वक्त पर खाना-पीना और सोना. अफ़सोस हम अपनी आने वाली पीढ़ी के खान-पान की एहमियत तो समझते हैं पर सबसे अहम उसके बचपन की कद्र नहीं कर पाते.