उसकी दुनिया में धुआं भरा है, हर तरफ़ चीखती चिल्लाती आवाज़ें गून्जती हैं . पतला सूखा जिस्म दो लड़खड़ाती टांगों पर खड़ा रहता है. वो चलते चलते गिर जाता है तो उसकी मां गोद मे उठा लेती है. वो ये नहीं सोचता कि मैं लाचार हूं, अपाहिज होने के दर्द से वो अभी मुखातिब नही हुआ है. पर उसकी मां इस तक्लीफ़ को हर रोज़ महसूस करती है. शारदा सोचती है उससे कहां गलती हुई उसने तो हर बार अपनी नन्ही सी जान को पोलिओ की बून्दें पिलाईं. लोग कह्ते हैं ये अभिशाप उस अमरीकी कार्बाइड कम्पनी का है जो 25 साल पह्ले शहर के लोगों को रोज़गार देती थी. जिसकी दी तन्ख्वाह पर घर के चूल्हे जलते थे वही कम्पनी रातों रात शहर की ज़िन्दगी को जला गयी.
बरसों से सुन रहे हैं अहिंसा के रास्ते पर चल कर भी जंग जीती जा सकती है. पर भोपाल गैस पीड़ितों को सदियों से मिल रहे झूठे दिलासे और फिर अधुरे इन्साफ़ के अलावा कुछ नही मिला. वो खामोशी से मार्च करते हुए आते और जन्तर मन्तर पर शान्तिप्रिय धरना करके वापस चले जाते. इतने साल से उनकी मांगो की किसी ने सुध नही ली. सरकार को अमरीकी रिशते सुधारने और वक़्त वक़्त पर पडोसी मुल्कों पर धाक जमाने की कोशिश करने से फ़ुर्सत नहीं थी. भोपाल गैस त्रासदी के पीड़ितों का केस मज़बूत करने के लिये किसी 'उज्वल निकम' ने मिडिआ मे शोर नहीं मचाया. वो गरीब थे उनका शहर रातो रात तबाह हो गया पर देश के लोग अपनी इमारतों को और ऊँचा करने की कोशिशों में लगे रहे. जब मासूम बच्चे लंगडाते और खिसकते हुए भोपाल की सड़कों पर अपना बचपन जीने की कोशिश कर रहे थे,उस वक्त विकास के नाम पर दूसरे ज़िलों में फेक्ट्रियां बिछायी जा रही थी. करीब 55 हज़ार लोगों की ज़िन्दगी बेआवाज़ गूंज के साथ दम तोड देती है और राजधानी मे कोई उफ़्फ़ नही करता. तकरीबन पांच लाख लोग अपाहिज हो जाते हैं लेकिन उनके सहारे के लिए कोई हाथ आगे नहीं बढ़ता.
हाई प्रोफाइल केस हो तो मिडिया का इन्साफ प्रेम भी खूब देखने को मिलता है, एयर होस्टासेस को नौकरी से निकाला जाए तो पीली युनिफोर्म में अन्याय का रोना रोती फूटेज की टीवी पर बाढ़ आ जाती है. कास्टिंग काउच के राज़ पर से पर्दा हटाने के लिए आये दिन स्टिंग ओपरेशंस होते रहे. हर वो चीज़ जो सोफे पर बैठ कर हाथ में पोपकोर्न और सोफ्ट ड्रिंक के साथ लुत्फ़ दे वो चेनलों पर मौजूद है. किसी दोषी के सज़ा पाने पर मीडिया ट्रायल के नाम पर सीना चौड़ा करने वाले मिडिया चेनल्स भोपाल गेस कांड पर बेजुबान से हैं.
महंगाई और आतंकवाद के मसलों पर सडकें जाम करने वाली विपक्ष पार्टी ज़हरीली गैस के निर्माताओं के क़र्ज़ तले दबी है. मौजूदा सरकार को कमज़ोर कहने वाले खुद छुपे बैठे हैं. खुद को गरीबों का हितेषी बताने वाले, कैमरे का एंगल देख कर झोपड़ों में रात गुज़ारने वाले सफ़ेद पोश नेता भी कोई आश्वासन नहीं बंधा रहे. कॉमन वेल्थ का काम समय पर पूरा होगा या नहीं, अफज़ल गुरु की फ़ाइल आगे बढ़ी या नहीं, नेनो प्लांट के लिए टाटा को सही जगह ज़मीन मिली या नहीं मिली, एशियन खेलों में भारतीय क्रिकेट टीम क्यूँ नहीं गयी. इन मसलों पर विचार विमर्श करने वाली राजनीतिक पार्टियों को नाटक पार्टियाँ कहते तो बेहतर होता.
तीन दिसंबर 1984 की अँधेरी रात जब अमरीकी कंपनी युनिओं कार्बाइड की रासायनिक गेस हवा में रिस रही थी, तब कुछ लोग खाना खा कर गहरी नींद में सो रहे होंगे. कितने लोग घर के बाहर चारपाई बिछा कर बातों में मशगूल होंगे. सभी की आँखों में आने वाले दिन के ख्याल आ रहे होंगे. कोई नई नवेली दुल्हन अपने पति के मायेके से ले कर जाने की राह तक रही होगी. कोई बच्चा खिलोने की जिद करते करते रोते हुए सो गया होगा और माँ ने उसके चेहरे पर आंसुओं की बूँद देख कर सोचा होगा कल खरीद दूँगी खिलौना. कोई अपने जोड़े हुए पैसों से नई रजाई लाने वाला होगा. कुछ लोग रात के वक़्त धुंध के बढ़ जाने की वजह के बारे में सोच रहे होंगे. जितने लोग उतनी उम्मीदें, जितनी आँखें उतने ख्वाब पर मौत को ज़िन्दगी पर हावी होने में वक़्त ही कितना लगता है. भोपाल गैस त्रासदी की तस्वीरों पर नज़र दौड़ाओ तो रूह कांप जाए. हर तस्वीर की अपनी कहानी हर तस्वीर का अपना दर्द. स्पेनिश फिलोसोफेर 'पाउलो कोहेलो' ने कहा है हर इंसान अपने आप में एक दुनिया है और हर एक शख्स के मरने पर एक दुनिया मरती है. सच है आदमी अपने मरने के साथ सभी यादें जो उसके ज़हन में हैं, सारे लोग जिनसे वो मिला, सभी तकलीफें जिन पर वो रोया, साड़ी खुशियाँ जिन पर वो हंसा वो हर एहसास अपने साथ ले जाता है.
सरकारी आंकड़ों के हिसाब से यूनियन कार्बाइड की लापरवाही से तकरीबन 3 हज़ार दुनिया खत्म हुईं और 7 से 8 हज़ार दुनियाओं पर भूचाल आया. लेकिन सच तो ये हैं की इस घटना से, फिर उसके बाद चलने वाली कानूनी प्रक्रिया और सरकारी घटियापन से पूरी इंसानियत आहत हुई है. न्यायपालिका की फाइलों के ढेर पर चढ़ कर मजलूम के विश्वास ने फांसी लगायी है.