ये लफ़्ज़ किसी स्त्रीविमर्श वाली किताब के नहीं हैं. ना ही ये किसी ऐसी लेखिका के हैं जिन पर कुछ विवादस्पद लिख कर ज़बर्दस्ती लाइमलाइट में आने के आरोप लगते हों. ये लफ़्ज़ एक गीत के हैं, और कोई हिन्दी गाना नहीं बल्कि मशहूर पॉप गायिका ’बियॉन्से’ के एल्बम का गीत ’इफ़ आई वर अ बॉय’. मतलब ये कि खूब तरक़्की करते मुल्क, खुद को प्रगतिवादी मानते, स्त्री को समान अधिकार और आज़ादी देने की बात करने वाले मुल्कों में कोई गायिका ये गाती है “अगर मैं लड़का होती तो ज़िन्दगी अपने हिसाब से जीती”. स्त्री की आज़ादी को मॉड्र्न कपड़ों से जोड़ने वालों के लिये ये गीत एक सवाल है. ये सवाल कोई नया नहीं वही घिसा-पिटा पुराना सवाल है, आज़ादी असल में क्या है? जो कोई खुद तय करके मेरे हाथ में थमा दे कि लो तुम पढ़ो, लिखो, घूमो, अपनी मर्ज़ी के अनुसार कपड़े पहनो पर हां रात 10 बजे तक घर आ जाना. या फिर ये कि जाओ मैंने तुम्हें आज़ादी दी अपने अनुसार जीने की लेकिन मेरे अलावा किसी और के साथ तुम डांस नहीं करोगी. बात घुमा-फिरा कर वही है, मेरे लिये कोई कुछ तय ही क्युं करेगा ? क्या मैं बालिग नहीं, क्या मैं ज़िन्दगी में गलतियां करके खुद कुछ सीखने का हक नहीं रखती ? क्या ये ज़रूरी है कि मैं किसी से अपने अधिकार मांगती चलूं ? क्या मैं खुद अपने अधिकार अपने पास नहीं रख सकती ?
असल में औरत की आज़ादी मर्द की ग़ुलाम होती है, औरत की आज़ादी की किस्में, सतहें और शर्तें कोई तय करता है. आस-पास मौजूद बेहद प्रगतिशील जोड़ों पर अगर नज़र डालें तो दिखेगा किसकी परत कहां तक है. कोई अपनी मर्ज़ी के मुताबिक़ कपड़े पहन सकती है मगर ससुराल वालों के आगे उसे साड़ी ही पहननी है, तर्क ये कि “मुझे तो कोई परेशानी नहीं पर मेरे माता-पिता को अच्छा नहीं लगेगा कि उनकी बहु वेस्टर्न कपड़े पहने” जॉब करती महिला के पति का घर के कामकाज में हाथ ना बंटाना तो नॉर्मल है. इसके अलावा प्रेम-विवाह (जो अपने आप में प्रगतिवादी होने चाहिये) वहां भी दोयम दर्जे की आज़ादी का कॉन्सेप्ट दिखता है. शादी इन्टर कास्ट हो तो लड़की अपने जीने के तौर तरीके बदले और अगर ये इन्टर रिलिजन शादी है तब तो अपना धर्म, अपना नाम, अपने खान-पान के तरीक़ों को भी बदलना पड़ेगा. जिस नाम को पुकार पुकार कर प्रेम किया उसे एक झटके में बदल डाला जाता है. पहचान ही बदल दी और खुद को आधुनिक प्रेमी कहते हैं. ये सब कुछ बेशक किसी लड़के को नहीं करना पड़ता. कहते हैं प्रेम में खुद को मिटाना पड़ता है, अब ये बात अपनी शख्सियत को मिटा कर प्रेमी की ज़िन्दगी में पांव रखने वाली लड़की से ज़्यादा कौन समझेगा.
खैर, बियॉन्से के इस गीत में कुछ पंक्तियां और जोड़ी जा सकती हैं. अगर मैं लड़का होती तो अपने नाम को शान से सारी ज़िन्दगी अपनी साथ रखती, मुझे किसी रिश्ते को बनाने के लिये पुराने रिश्तों से मुहं ना मोड़ना पड़ता. मेरी तरक़्की को लोग तिरछी निगाहों से ना देखते, मेरी वाह-वाही पर कोई तन्ज़ ना मारता, तोहमत ना लगाता. मैं बारिश में बीच सड़क पर जी भर के भीग सकती, कोई घूर-घूर कर देखता नहीं. अगर मैं लड़का होती तो बेशक गर्मी के मौसम में भी दुपट्टा ना ओढ़े रहती. मौसम के अनुसार छोटे-बड़े कपड़े पहनती. अगर मैं लड़का होती तो शादी के लिये मेरा गोरा रंग होना ज़रूरी ना होता. मैं फ़ेशन करती तो नकचढ़ी और फ़ेशन ना करती तो ’बहनजी’ ना कहलाई जाती.
कुछ ऐसे सवाल भी खड़े होते हैं जिनके पूछने पर लड़कियों को ये सुनना पड़ता है ’अपनी हद में रहो’ या फिर ’हे भगवान, तू फिर शुरु हो गयी’. ये सवाल कुछ यूं हैं, मैं क्यूं अपनी आज़ादी बार-बार किसी और से मांगने जाती हूं. क्यूं सिर्फ़ सज-संवर कर खुद को गहने से लाद कर ही संतुष्ट हो जाती हूं. क्यूं नहीं मुझ में आग जलती क्यूं नहीं मैं घर के सारे परदे जला डालती. एशियाई देश हों, अरब मुल्क या फिर वेस्टर्न कन्ट्रीज़ मेरे अस्तित्व को लेकर हर जगह क्यूं मुझे झगड़ना ही पड़ता है, रिश्तों से निकलना ही पड़ता है. और क्यूं आदमी के लिये मेरी मोहब्बत आज़ादी की आबो-हवा में पहुंचते ही खांसना शुरु कर देती है.
ज़ाहिर सी बात है अगर वो लड़का होतीं तो ना तो ऐसे सवाल करतीं और ना ही गुनगुनाती ‘इफ़ आई वर अ बॉय’.