Friday, 29 July 2011

इफ़ आई वर अ बॉय / अगर मैं लड़का होती

“अगर मैं एक दिन के लिये भी लड़का बन सकती तो मैं अपनी मर्ज़ी से देर तक घर के बाहर रुक सकती थी. दोस्तों के साथ बियर पीती, जो दिल चाहे वो करती और कोई मुझ पर किसी तरह का सवाल ना दाग़ता. अगर मुझे एक दिन के लिये भी लड़का बनने का मौका मिलता तो मैं जिसके साथ चाहती उसके साथ मस्ती करती और किसी के प्रति जवाबदेह ना होती.”

ये लफ़्ज़ किसी स्त्रीविमर्श वाली किताब के नहीं हैं. ना ही ये किसी ऐसी लेखिका के हैं जिन पर कुछ विवादस्पद लिख कर ज़बर्दस्ती लाइमलाइट में आने के आरोप लगते हों. ये लफ़्ज़ एक गीत के हैं, और कोई हिन्दी गाना नहीं बल्कि मशहूर पॉप गायिका ’बियॉन्से’ के एल्बम का गीत ’इफ़ आई वर अ बॉय’. मतलब ये कि खूब तरक़्की करते मुल्क, खुद को प्रगतिवादी मानते, स्त्री को समान अधिकार और आज़ादी देने की बात करने वाले मुल्कों में कोई गायिका ये गाती है “अगर मैं लड़का होती तो ज़िन्दगी अपने हिसाब से जीती”. स्त्री की आज़ादी को मॉड्र्न कपड़ों से जोड़ने वालों के लिये ये गीत एक सवाल है. ये सवाल कोई नया नहीं वही घिसा-पिटा पुराना सवाल है, आज़ादी असल में क्या है? जो कोई खुद तय करके मेरे हाथ में थमा दे कि लो तुम पढ़ो, लिखो, घूमो, अपनी मर्ज़ी के अनुसार कपड़े पहनो पर हां रात 10 बजे तक घर आ जाना. या फिर ये कि जाओ मैंने तुम्हें आज़ादी दी अपने अनुसार जीने की लेकिन मेरे अलावा किसी और के साथ तुम डांस नहीं करोगी. बात घुमा-फिरा कर वही है, मेरे लिये कोई कुछ तय ही क्युं करेगा ? क्या मैं बालिग नहीं, क्या मैं ज़िन्दगी में गलतियां करके खुद कुछ सीखने का हक नहीं रखती ? क्या ये ज़रूरी है कि मैं किसी से अपने अधिकार मांगती चलूं ? क्या मैं खुद अपने अधिकार अपने पास नहीं रख सकती ?

असल में औरत की आज़ादी मर्द की ग़ुलाम होती है, औरत की आज़ादी की किस्में, सतहें और शर्तें कोई तय करता है. आस-पास मौजूद बेहद प्रगतिशील जोड़ों पर अगर नज़र डालें तो दिखेगा किसकी परत कहां तक है. कोई अपनी मर्ज़ी के मुताबिक़ कपड़े पहन सकती है मगर ससुराल वालों के आगे उसे साड़ी ही पहननी है, तर्क ये कि “मुझे तो कोई परेशानी नहीं पर मेरे माता-पिता को अच्छा नहीं लगेगा कि उनकी बहु वेस्टर्न कपड़े पहने” जॉब करती महिला के पति का घर के कामकाज में हाथ ना बंटाना तो नॉर्मल है. इसके अलावा प्रेम-विवाह (जो अपने आप में प्रगतिवादी होने चाहिये) वहां भी दोयम दर्जे की आज़ादी का कॉन्सेप्ट दिखता है. शादी इन्टर कास्ट हो तो लड़की अपने जीने के तौर तरीके बदले और अगर ये इन्टर रिलिजन शादी है तब तो अपना धर्म, अपना नाम, अपने खान-पान के तरीक़ों को भी बदलना पड़ेगा. जिस नाम को पुकार पुकार कर प्रेम किया उसे एक झटके में बदल डाला जाता है. पहचान ही बदल दी और खुद को आधुनिक प्रेमी कहते हैं. ये सब कुछ बेशक किसी लड़के को नहीं करना पड़ता. कहते हैं प्रेम में खुद को मिटाना पड़ता है, अब ये बात अपनी शख्सियत को मिटा कर प्रेमी की ज़िन्दगी में पांव रखने वाली लड़की से ज़्यादा कौन समझेगा.

खैर, बियॉन्से के इस गीत में कुछ पंक्तियां और जोड़ी जा सकती हैं. अगर मैं लड़का होती तो अपने नाम को शान से सारी ज़िन्दगी अपनी साथ रखती, मुझे किसी रिश्ते को बनाने के लिये पुराने रिश्तों से मुहं ना मोड़ना पड़ता. मेरी तरक़्की को लोग तिरछी निगाहों से ना देखते, मेरी वाह-वाही पर कोई तन्ज़ ना मारता, तोहमत ना लगाता. मैं बारिश में बीच सड़क पर जी भर के भीग सकती, कोई घूर-घूर कर देखता नहीं. अगर मैं लड़का होती तो बेशक गर्मी के मौसम में भी दुपट्टा ना ओढ़े रहती. मौसम के अनुसार छोटे-बड़े कपड़े पहनती. अगर मैं लड़का होती तो शादी के लिये मेरा गोरा रंग होना ज़रूरी ना होता. मैं फ़ेशन करती तो नकचढ़ी और फ़ेशन ना करती तो ’बहनजी’ ना कहलाई जाती.

कुछ ऐसे सवाल भी खड़े होते हैं जिनके पूछने पर लड़कियों को ये सुनना पड़ता है ’अपनी हद में रहो’ या फिर ’हे भगवान, तू फिर शुरु हो गयी’. ये सवाल कुछ यूं हैं, मैं क्यूं अपनी आज़ादी बार-बार किसी और से मांगने जाती हूं. क्यूं सिर्फ़ सज-संवर कर खुद को गहने से लाद कर ही संतुष्ट हो जाती हूं. क्यूं नहीं मुझ में आग जलती क्यूं नहीं मैं घर के सारे परदे जला डालती. एशियाई देश हों, अरब मुल्क या फिर वेस्टर्न कन्ट्रीज़ मेरे अस्तित्व को लेकर हर जगह क्यूं मुझे झगड़ना ही पड़ता है, रिश्तों से निकलना ही पड़ता है. और क्यूं आदमी के लिये मेरी मोहब्बत आज़ादी की आबो-हवा में पहुंचते ही खांसना शुरु कर देती है.

ज़ाहिर सी बात है अगर वो लड़का होतीं तो ना तो ऐसे सवाल करतीं और ना ही गुनगुनाती ‘इफ़ आई वर अ बॉय’.

Sunday, 17 July 2011

तवायफ़ की इज़्ज़त

तवायफ़ की लुटती हुई इज़्ज़त बचाना और तीस मार खान को पकड़ना बेकार है. निर्देशक फ़रहा खान की फ़िल्म तीस मार खान में ये डायलॉग कम से कम १० बार तो बोला ही गया होगा. असल में इज़्ज़त का ठीका जिन लोगों ने ऊठाया है उन्हें तवायफ़ की हैसियत का अन्दाज़ा है. वो मानते हैं सौ लोगों के साथ हमबिस्तर होने से इज़्ज़त को मौत आ जाती है अब जो मर चुका उसे बचाने का क्या मतलब. वैसे इस डायलॉग में तवायफ़ की जगह आजकल रियेलिटी शो में बार-बार सुनायी जाने वाली मशहूर ’बीप’ का इस्तेमाल किया गया है. टीवी पर ये ’बीप’ बातचीत के दौरान गालियां छुपाने में जितनी कारगर साबित होती है ऊतनी ही यहां भी हुई है. मतलब यही कि साफ़-साफ़ समझ आता है नंबर मां का आया या बहन का या फिर गालियों की फ़ेहरिस्त में इजाद होकर कोई नया शब्द जुड़ा. सेंसर भी कमाल है, अपशब्दों पर ’बीप’ लगायेगा और निवस्र्त हिस्सों को ’मोज़ैक’ करेगा, पर दर्शक इतना बेवकूफ़ नहीं वो तो अपनी कल्पना शक्ति से उड़ता है. हर ’बीप’ और ’मोज़ैक’ का मतलब समझता है.

खैर, फ़रहा खान बॉलीवुड की गिनीचुनी महिला निर्देशकों में से एक हैं. उनकी बनायी फ़िल्में हिस्सों में मज़ेदार होती हैं, यानी कोई सीन बेतरह लोट-पोट कर देगा तो कोई खुद के बाल नोचने पर मजबूर करेगा. यही फ़रहा खान एक बार एक अवार्ड फ़ंकशन में फ़िल्ममेकर आशुतोश गोवारेकर से इसलिये भिड़ गयी थीं क्युंकि उन्होंने फ़रहा को स्टेज पर सबके सामने ’शट-अप’ कह दिया था. खुद के लिये ’शट-अप’ लफ़्ज़ इस्तेमाल किये जाने पर बेज़्ज़ती महसूस करने वाली निर्देशक तवायफ़ के अस्तित्व को हंसी में उड़ाती हैं. ज़ाहिर सी बात है वो ठहरीं इज़्ज़तदार औरत जो तीन बच्चों की मां है, साथ ही अपने काम में इतनी माहिर कि 'शीला की जवानी' आइटम नंबर को रिलीज़ से पहले ही हिट करवा दें. तवायफ़ का क्या है वो तो छोटी-छोटी जालियों से झांकने वाली औरत है, जिसका कोई पति नहीं, जिसके बच्चे पढ़ लिख नहीं पाते और जो ख़्वाबों को बिना ’बीप’ वाली गाली लम्बी सी देती है. वो गहरे रंग के चमकीले कपड़े तो पहनती है पर उसके पास रंगबिरंगी उमंगे नहीं होतीं. एक बात फिर भी कॉमन है, उसके पेशे में भी दूसरों के कपड़े उतारे जाते हैं फ़र्क इतना है निर्देशक ये ७०एमएम की स्क्रीन पर करते हैं और तवायफ़ बन्द कमरे में. फ़िल्म के किसी सीन को जब अश्लील बताया जाता है तो इज़्ज़तदार फ़िल्ममेकर उसे ’एस्थेटिक’ कहते हैं. इज़्ज़तदार अभिनेत्री की ’न्युड’ फोटो इज़्ज़तदार मेगज़ीन के पहले पन्ने पर छप कर सेल्स बढ़ाती है. इस तसवीर को इज़्ज़तदार फोटोअग्राफ़र ’आर्ट’ कहता है. सेक्स को जीवन का हिस्सा बताने वाले, 'आर्गुमेन्टेटिव कामासूत्र' किताब को हाथ में थामे लोग तवायफ़ लफ़्ज़ पर तंज़िया मुसकान बिखेरते हैं. तथाकथित प्रगतिवादी मानते हैं कि सेक्स के बिना समाज नहीं है लेकिन सेक्स-वर्कर समाज का हिस्सा नहीं है.

हां तो अक्षय कुमार जिस इज़्ज़त को लुटने से बचाने को बेकार बताते हैं उसका वाकई कोई भरोसा नहीं. ये कभी भी कहीं भी जा सकती है, कुछ की गाली-गलोज से चली जाती है. कुछ की थप्प्ड़ पड़ने से चली जाती है, बहुतों की शादी टूटने से चली जाती है. बच्चों के परीक्षा में फ़ेल होने से माता-पिता की इज़्ज़त चली जाती है तो माता-पिता के अनपढ़ होने से बच्चों की दोस्तों में चली जाती है. बेटी के घर से भागने पर भी इज़्ज़त जाती है और दहेज ना मिलने पर खुद बेटी की ससुराल में चली जाती है. दोस्त को जन्मदिन पर महंगा तोहफ़ा ना दे पाने के कारण अकसर ही जाती है. यहां तक की पड़ोसी अगर अपने यहां हो रही दावत में ना बुलायें तो भी ये इज़्ज़त बेज़्ज़ती में बदल जाती है. आम तौर पर इज़्ज़त जाती है या बेज़्ज़ती होती है पर इज़्ज़त लुटती तभी है जब किसी का ’रेप’ हो जाये. वैसे ’रेप’ का मतलब होता है किसी के साथ ज़ोर ज़बरदस्ती कर शारीरिक सम्बंध बनाना. ’तीस मार खां’ के निर्माताओं को तवायफ़ की इज़्ज़त बचाना इसलिये बेकार लगता है क्युंकि वो सेक्स के लिये पैसे चार्ज करती है. वो अनछुई नहीं है साथ ही उसका कोई पति भी नहीं है. तो तवायफ़ का ’रेप’ तो हो सकता है पर उसकी इज़्ज़्त नहीं लुट सकती.

कुछ दिन पहले मैत्री पुष्प का एक उपन्यास पढ़ा ’गुनाह-बेगुनाह’ जिसमें एक वैश्या पुलिस थाने में रिमांड के दौरान बताती है कि वो जब १३ साल की थी तो अपने माता-पिता के साथ रहती थी. एक दिन उसकी मां ने उसे अपने पास बुला कर समझाया “बेटी अब तू बड़ी हो गयी है सो घर से बाहर निकलना, लड़कों के साथ खेल-कूद बंद कर. कहीं कोई ऊंच-नीच हो गयी तो तेरे पिता कहीं मुहं दिखाने लायक नहीं रहेंगे, उनकी इज़्ज़त लुट जायेगी.” कुछ रोज़ बाद जब वो घर में अकेली थी तो खुद उसके पिता ने उसका बलात्कार किया. जब उसने अपनी मां को बताया तो घर पर खूब बवाल हुआ. आखिरकार मां उसके पास आयी और बोली “बेटी ये बात किसी को नहीं बताना वरना तेरे पिता कहीं मुहं दिखाने लायक नहीं रहेंगे, उनकी इज़्ज़त चली जायेगी’. शायद इज़्ज़त चली जाने और इज़्ज़त लुट जाने में यही फ़र्क होता है.

Wednesday, 6 July 2011

चाहती हूं सीधी होना



एक आसान से रास्ते पर
चलते हुए,
एक सुलझी हुई मंज़िल तक
पहुंचने की तमन्ना…
एक सीधी पगडन्डी से
गुज़रते हुए,
शाम ढले घर तक
पहुंचने की चाहत…
चाहती हूं कभी-कभी एक 'हीरो’ की
मनचली ’फ़ैन’ होना,
एक पॉप स्टार की दीवानी,
एक पसंदीदा रंग,
एक मनपसंद ’टूरिस्ट स्पॉट’,
एक शख्स की हंसी
में जहान देखना,
उसी की आंखों में
सुबहो शाम देखना…
यूं तो वो सीधी राहें,
मेरे उल्टे-पुल्टे लाइफ़ मैप
पर सूट नहीं करतीं…
वो फ़िल्मी हीरो,
वो गिटार बजाने वाला
मेरे दिल में जगह
बना नहीं सकता,
घर का दरवाज़ा भी
आधी रात से पहले
बुला नहीं सकता…
ना तो कोई एक रंग
मुझे बहला सकता है,
ना तो बस एक ही
शहर टहला सकता है…
सौ रास्तों से गुज़रते हुए
अनजान मंज़िल का ठिकाना,
टेढ़ी-मेढ़ी गलियों से मीलों
चले जाना…
असहज, अजीब, असमान्य, अनैतिक
ही है मेरा चुनाव,
'आसान' था पर मैंने चुना नहीं…