खैर, फ़रहा खान बॉलीवुड की गिनीचुनी महिला निर्देशकों में से एक हैं. उनकी बनायी फ़िल्में हिस्सों में मज़ेदार होती हैं, यानी कोई सीन बेतरह लोट-पोट कर देगा तो कोई खुद के बाल नोचने पर मजबूर करेगा. यही फ़रहा खान एक बार एक अवार्ड फ़ंकशन में फ़िल्ममेकर आशुतोश गोवारेकर से इसलिये भिड़ गयी थीं क्युंकि उन्होंने फ़रहा को स्टेज पर सबके सामने ’शट-अप’ कह दिया था. खुद के लिये ’शट-अप’ लफ़्ज़ इस्तेमाल किये जाने पर बेज़्ज़ती महसूस करने वाली निर्देशक तवायफ़ के अस्तित्व को हंसी में उड़ाती हैं. ज़ाहिर सी बात है वो ठहरीं इज़्ज़तदार औरत जो तीन बच्चों की मां है, साथ ही अपने काम में इतनी माहिर कि 'शीला की जवानी' आइटम नंबर को रिलीज़ से पहले ही हिट करवा दें. तवायफ़ का क्या है वो तो छोटी-छोटी जालियों से झांकने वाली औरत है, जिसका कोई पति नहीं, जिसके बच्चे पढ़ लिख नहीं पाते और जो ख़्वाबों को बिना ’बीप’ वाली गाली लम्बी सी देती है. वो गहरे रंग के चमकीले कपड़े तो पहनती है पर उसके पास रंगबिरंगी उमंगे नहीं होतीं. एक बात फिर भी कॉमन है, उसके पेशे में भी दूसरों के कपड़े उतारे जाते हैं फ़र्क इतना है निर्देशक ये ७०एमएम की स्क्रीन पर करते हैं और तवायफ़ बन्द कमरे में. फ़िल्म के किसी सीन को जब अश्लील बताया जाता है तो इज़्ज़तदार फ़िल्ममेकर उसे ’एस्थेटिक’ कहते हैं. इज़्ज़तदार अभिनेत्री की ’न्युड’ फोटो इज़्ज़तदार मेगज़ीन के पहले पन्ने पर छप कर सेल्स बढ़ाती है. इस तसवीर को इज़्ज़तदार फोटोअग्राफ़र ’आर्ट’ कहता है. सेक्स को जीवन का हिस्सा बताने वाले, 'आर्गुमेन्टेटिव कामासूत्र' किताब को हाथ में थामे लोग तवायफ़ लफ़्ज़ पर तंज़िया मुसकान बिखेरते हैं. तथाकथित प्रगतिवादी मानते हैं कि सेक्स के बिना समाज नहीं है लेकिन सेक्स-वर्कर समाज का हिस्सा नहीं है.
हां तो अक्षय कुमार जिस इज़्ज़त को लुटने से बचाने को बेकार बताते हैं उसका वाकई कोई भरोसा नहीं. ये कभी भी कहीं भी जा सकती है, कुछ की गाली-गलोज से चली जाती है. कुछ की थप्प्ड़ पड़ने से चली जाती है, बहुतों की शादी टूटने से चली जाती है. बच्चों के परीक्षा में फ़ेल होने से माता-पिता की इज़्ज़त चली जाती है तो माता-पिता के अनपढ़ होने से बच्चों की दोस्तों में चली जाती है. बेटी के घर से भागने पर भी इज़्ज़त जाती है और दहेज ना मिलने पर खुद बेटी की ससुराल में चली जाती है. दोस्त को जन्मदिन पर महंगा तोहफ़ा ना दे पाने के कारण अकसर ही जाती है. यहां तक की पड़ोसी अगर अपने यहां हो रही दावत में ना बुलायें तो भी ये इज़्ज़त बेज़्ज़ती में बदल जाती है. आम तौर पर इज़्ज़त जाती है या बेज़्ज़ती होती है पर इज़्ज़त लुटती तभी है जब किसी का ’रेप’ हो जाये. वैसे ’रेप’ का मतलब होता है किसी के साथ ज़ोर ज़बरदस्ती कर शारीरिक सम्बंध बनाना. ’तीस मार खां’ के निर्माताओं को तवायफ़ की इज़्ज़त बचाना इसलिये बेकार लगता है क्युंकि वो सेक्स के लिये पैसे चार्ज करती है. वो अनछुई नहीं है साथ ही उसका कोई पति भी नहीं है. तो तवायफ़ का ’रेप’ तो हो सकता है पर उसकी इज़्ज़्त नहीं लुट सकती.
कुछ दिन पहले मैत्री पुष्प का एक उपन्यास पढ़ा ’गुनाह-बेगुनाह’ जिसमें एक वैश्या पुलिस थाने में रिमांड के दौरान बताती है कि वो जब १३ साल की थी तो अपने माता-पिता के साथ रहती थी. एक दिन उसकी मां ने उसे अपने पास बुला कर समझाया “बेटी अब तू बड़ी हो गयी है सो घर से बाहर निकलना, लड़कों के साथ खेल-कूद बंद कर. कहीं कोई ऊंच-नीच हो गयी तो तेरे पिता कहीं मुहं दिखाने लायक नहीं रहेंगे, उनकी इज़्ज़त लुट जायेगी.” कुछ रोज़ बाद जब वो घर में अकेली थी तो खुद उसके पिता ने उसका बलात्कार किया. जब उसने अपनी मां को बताया तो घर पर खूब बवाल हुआ. आखिरकार मां उसके पास आयी और बोली “बेटी ये बात किसी को नहीं बताना वरना तेरे पिता कहीं मुहं दिखाने लायक नहीं रहेंगे, उनकी इज़्ज़त चली जायेगी’. शायद इज़्ज़त चली जाने और इज़्ज़त लुट जाने में यही फ़र्क होता है.
सुश्री फौजिया जी ! समाज कितना भी सभ्य क्यों न हो गया हो नगरवधुएं हर युग में हमारे विद्रूपों का प्रतिनिधित्व करती रही हैं......उनकी आँखों में सदा ही कुछ अनुत्तरित प्रश्न रहे हैं ....त्रेता युग से लेकर आज कलियुग तक के लम्बे अंतराल में कोई इनके आँसू नहीं पोंछ सका ....हाँ ! इन आंसुओं को बेचकर कला के नाम पर कुछ लोग अपनी जेबें भरना और सीख गए हैं ....सभ्य समाज का एक और नया विद्रूप है यह. पीड़ाओं का व्यापार न जाने कब तक चलता रहेगा .....
ReplyDeleteयही दोहरे-तिहरे-चौहरे स्टैन्डर्ड और मुखौटे हम लोग लगाये रहते हैं और यूरोपियन-अमेरिकन्स को गालियां देते रहते हैं. कम से कम वे सेक्स वर्कर्स को स्वीकारते भी हैं और अपने लिये बिना मतलब में विश्वगुरु और नैतिकता का पाठ पढ़ाने का दम्भ तो लिये नहीं घूमते. बढ़िया आलेख.
ReplyDeleteI want to correct u, Ashutosh ne Farha ko 'shut-up' nahi balki unke bhai Sajid Khan Ko Kiya thha. So, Please check ur facts. I hope u don't mind.
ReplyDeletei am fully agree with u on this issue. also it is very regretful that sensor board dont take any action to such dialogues and pass the film. here 'ijjat' is only concerned with sexual intercourse permitted by various societies with their own definition which makes us hypocrite. one would not lose its ijjat committing any kind of crime. Our ijjat's first and last relation is with only one issue. we have no other morality.
ReplyDeleteआजकल तो इज्ज़त बहुत ही आयी गयी चीज़ हो गयी है, छोटी सी बातों में चली जाती है और कभी कभी बड़े घोटालों में हिलती नहीं है।
ReplyDeleteउसके पेशे में भी दूसरों के कपड़े उतारे जाते हैं फ़र्क इतना है निर्देशक ये ७०एमएम की स्क्रीन पर करते हैं और तवायफ़ बन्द कमरे में...दमदार लाइन लगी.. खुले परदे और बंद कमरे का खेल है...
ReplyDeleteअसल में सिनेमा दुनिया को बेहतर बनाने का औजार है .दुर्भाग्य से भारत में इस औजार का बड़ा हिस्सा करण जोहरो-फराह खानों जैसो के हाथ में है ..... आत्म मुग्ध ओर मुगालते में रहने वाले लोग .. जिनमे मौलिकता ओर सवेंदना की न केवल कमी है ..अलबत्ता इस बात को रियलिज़ करने के लिए आवश्यक दिमाग भी नहीं है ....
ReplyDeleteएकता कपूर को मत भूलियेगा ...
bahut purana lekh hai...itni deri se kyun padha rahi ho apne besabra pathkon ko ????
ReplyDeleteshayad film release hote hi kahin chhapa tha
इज्जतदार तो तवायफ़ के साथ हमबिस्तर होने वाले होते हैं। सफेदपोश कमीने ही इज्जत के ठेकेदार होते हैं, उन्हीं सफेदपोशों का प्रतिनिधित्व करती हैं फराह खान।
ReplyDeleteआपके ब्लॉग पर आते ही 'ये हौंसला...' सुनाई दिया, अच्छा लगता है यह गीत।
इस लेख में आपने कुछ समाज के कुछ अनछुए पक्षों उजागर किया है | धन्यवाद |
ReplyDeletem your fan
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