Wednesday, 3 September 2014

संवेदनशील मुद्दों को साम्प्रदायिक बनाने का दौर


उत्तर-प्रदेश में ऑनर-किलिंग के नाम पर साल 2013 में 85 हत्याएं हुईं, वहीं बाक़ी देश में कुल मिलाकर 24.‘असोसिएशन फ़ॉर एड्वोकेसी ऐंड लीगल इनिशिएटिवके अनुसार उत्तर-प्रदेश में इज़्ज़त के नाम पर होने वाली हत्याएं पूरे देश में सबसे अधिक हैं. जाति, गोत्र और धर्म के बिन्दू प्रेम विवाह करने वालों के लिए ज़हर की गोलियों का काम करते हैं. भारतीय समाज में इज़्ज़त के लिए अपनी औलादों का कत्ल करने वालों के प्रति सहानुभूति पाई जाती है क्युंकि पुलिस और प्रशासन भी इसी समाज का हिस्सा हैं. अब सोचने वाली बात यह है कि जिस ज़मीन पर नफ़रत की फ़सल जंगली पौधों की तरह खुद खुद उग जाती है, वहां लव-जिहाद की खाद का असर क्या होगा!

उत्तर-प्रदेश में 2017 के विधानसभा चुनावों की नींव पड़नी शुरू हो गई है. लोकसभा चुनावों में परचम फहराने के बाद भाजपा का अपनी हिंन्दुत्ववादी रणनीतियों पर भरोसा मज़बूत हुआ है. उत्तर-प्रदेश में कोई अल्पसंख्यक उम्मीदवार खड़ा किए बिना 80 में से 71 सीटें जीतना छोटी बात है भी नहीं. यही वजह है कि सालों से सो रहेलव जिहादनामी कुंभकरण को जगा दिया गया है. 13 सितंबर को उत्तर-प्रदेश में होने वाले उपचुनावों में इसी कुंभकरण का क़द नापा जाएगा ताकि 2017 तक पहुंचने वाली सड़क तैयार की जा सके. हमेशा की तरह भाजपा ने बड़ी समझदारी से चिंगारी सुलगाकर किनारा करना शुरू कर दिया है और दक्षिणपंथी खेमा घी और हवा के साथ तैयार है. हाल ही में विश्व हिन्दू परिषद, हिन्दू जागरण मंच, अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद और भारतीय जनता युवा मोर्चा ने मेरठ में हाथ मिलाते हुएलव-जिहादसे लड़ने के लिएमेरठ बचाओ मंचनामक संगठन बनाया. माना जा रहा है कि ऐसे ही क़दम मुरादाबाद, मुज़फ़्फ़रनगर, बरेली, बुलंदशहर, सहारनपुर और भगतपुर में भी उठाए जाएंगे. गौरतलब है कि दक्षिणी उत्तर प्रदेश के ये ज़िले साम्प्रदायिक रूप से बेहद संवेदनशील हैं.

गोरखपुर से भाजपा के नवनिर्वाचित सांसद और उत्तर प्रदेश में पार्टी के स्टार प्रचारक योगी आदित्यनाथ ने हिन्दुओं को प्रतिशोध लेने के लिए मुसलमान लड़कियों से शादी करने की बात कही. समझने की बात ये है कि क्या किसी की बीवी होना सज़ा है, जो शादी के बदले शादी से हिसाब बराबर होगा? दूसरी बात, समाज की कुरीतियों को खत्म करने के लिए धर्म के ये ठेकेदार कभी अन्तरजातीय विवाह के समर्थन में क्यों कुछ नहीं बोलते. किसी भी समाज के लिए ये यकीन करना हमेशा मुश्किल होता है कि बेटियां खुद अपनी मर्ज़ी से घर छोड़ रही हैं. लड़कियों ने सोच-समझ कर फ़ैसला लिया, अपना जीवन-साथी खुद चुना, बेहद बगावती ख्याल है. इससे बेहतर अपनी बहनों को बेवकूफ़ समझो, इतना समझ लो कि उन्हें प्यार की दो बातें करके बरगलाया गया है. असल में बात हिन्दू-मुसलमान की है ही नहीं, प्रेम-विवाह ही समाज की आंखों की किरकिरी है. जहां दुल्हे के गले में पड़ी नोटों की माला उसकी शान बढ़ाती हो, जहां दुल्हन की अहमियत उसपर लदे ज़ेवर से तय होती हो, वहां शादी व्यापार है. पूरे व्यापार को ज़िन्दा रखने के लिए व्यापारी छोटी-मोटी आहूतियों से कभी नहीं हिचकता. जिन संस्कृतियों में लड़के वालों और लड़की वालों का रुत्बा बराबर होता है, वहां प्रेम विवाह को समाज का दुश्मन भी नहीं समझा जाता.     

लव-जिहाद नाम का शगूफ़ा पहली बार साल 2009 में छोड़ा गया था, जब कर्नाटक में एक हिन्दू लड़की ने एक मुसलमान लड़के से घर के खिलाफ़ जाकर शादी कर ली थी. लड़की के घर वालों ने पुलिस में अपहरण का मामला दर्ज करवाया. क्लबों में घुसकर लड़कियों को पीटने वाली श्रीराम सेना ने इस मुद्दे को भुनाने की खूब कोशिश की. बाद में लड़की ने अदालत के सामने अपनी मर्ज़ी से शादी करने की बात रखी और वापस अपने पति के पास चली गई. उस वक्त कर्नाटक पुलिस और सीबीआई ने लव-जिहाद नामी किसी भी संगठन के अस्तित्व से इनकार किया था

शर्म की बात है, भारत में राजनीति का स्तर इतना गिर गया है कि यहां महिला तस्करी जैसे संगीन अपराध को भी राजनैतिक रंग दिया जा रहा है. राष्ट्रीय अपराध ब्यूरो की मानव तस्करी से संबंधित रिपोर्टों के मुताबिक साल 2011 में उत्तर-प्रदेश में 3517 लोगों की अवैध तस्करी हुई, वहीं 2012 में ये आंकड़ा 3554 तक पहुंचा. इसमें से बड़ा हिस्सा महिलाओं की तस्करी से जुड़ा है. ‘ एशिआ फ़ाउंडेशनके अनुसार भारत में 90 प्रतिशत महिला तस्करी अन्तर्राज्यीय होती है, जबकि दूसरे देशों में पैटर्न इसके उलट है. यानि भारत में महिला-तस्करी के लिए विक्रेता और क्रेता दोनों ही भारी मात्रा में उपलब्ध हैं.

पुरुष-प्रधान समाज का दोगलापन देखिए, औरत की खरीद-फ़रोख्त के खिलाफ़ कभी एकजुट नहीं होता. पर अपनी मर्ज़ी से जीवन-साथी चुन रही लड़कियों से भिड़ने के लिए संगठन तैयार कर लेता है. वैसे इसी साल जुलाई में बीजेपी नेता ओपी धनकड़ ने हरयाणा में गिरते सेक्स-रेशियो का एक हल सुझाया था, बल्कि रैली के दौरान नौजवानों से एक वादा किया था. उन्होंने कहा था कि अगर हरियाणा में बीजेपी की सरकार आती है, तो राज्य का कोई भी नौजवान कुंवारा नहीं रहेगा और वह बिहार से लड़कियां लाकर उनकी शादी रचाएंगे. अब जिस समाज की मान्यताएं ही ये हों कि लड़की एक वस्तु है, उसका कोई वुजूद नहीं है, उसकी कोई मर्ज़ी नहीं है, लड़की की हां या ना एक ही होती है. वहां उसके फ़ैसले को इज़्ज़त क्यूं मिलेगी, वहां उसे नासमझ ही समझा जाएगा.

जो संगठन जनता को असली मुद्दों से भटकाकर, अपने संगठनों का समय और ऊर्जाकॉन्सपिरेसी थ्योरीपर खर्च करते हैं, ‘लड़की के बदले लड़कीजैसी घटिया सोच को समर्थन देते हैं, सभ्य-समाज में उनकी कोई जगह नहीं होती, मगर फिर बात तो यही है कि क्या हम सभ्य-समाज का हिस्सा हैं

Wednesday, 27 August 2014

विज्ञापन कम्पनियों के रंगभेदी रवैये पर रोक


एक लड़की नौकरी के इन्टर्व्यू के लिए जाती है. उसका चुनाव सिर्फ़ इस वजह से नहीं होता क्यूंकि लड़की का रंग सांवला है. वो अपनी इस नाकामी से बहुत निराश होती है. तभी उसकी ज़िन्दगी में आशा की किरण बन कर आती है, वो फ़ेयरनेस क्रीम जिसके इस्तेमाल के कुछ रोज़ बाद ही आप गोरे हो जाते हैं. ये गोरापन कोई ऐसा वैसा गोरापन नहीं है, इस गोरेपन में आपका चेहरा ‘फ़्लोरोसेंट बल्ब’ की तरह चमकने लगता है. सो ये लड़की अब अपना ‘सीएफ़एल’ नुमा चेहरा लिए दोबारा इन्टर्व्यू के लिए जा पहुंचती है. लड़की के चेहरे से निकलते तेज के आगे नतमस्तक होने के लिए कम्पनी का मालिक अपनी कुर्सी से खड़ा हो जाता है. जब मालिक फ़िदा तो नौकरी आपकी मुट्ठी में.

एक लड़की गायिका बनना चाहती है. मगर किस्मत की मारी बेचारी सांवली है, अब अगर आपका रंग ही सांवला हो तो आप सुरीले कैसे हो सकते हैं. सो लड़की के पिता उसे चमत्कारी फ़ेयरनेस क्रीम लाकर देते हैं. बस फिर क्या, चेहरा लाइट बल्ब की तरह दमकने लगता है और सुर चहकने लगते हैं.  लड़की ‘स्टार सिंगर’ बन जाती है.

ऊपर लिखे दोनों ही किस्से किसी की भी असल ज़िन्दगी के हिस्से नहीं हैं. ये दोनों ही ‘ओवर द टॉप’ ऐड्वर्टाइज़िंग के नमूने हैं. कुछ साल पहले तक फ़ेयरनेस क्रीम के विज्ञापन विवाह या प्रेम केंद्रित होते थे. जैसे एक लड़की के सांवले होने की वजह से लड़के वालों ने रिश्ते से इन्कार कर दिया या एक लड़की किसी से प्रेम करती है मगर लड़के को दूसरी गोरी त्वचा वाली लड़की पसंद है. ऐसे में सात दिन के अन्दर रंग निखारिए और जीवन-साथी पा जाइए.

अब चूंकि समाज बदल रहा है और लड़कियां घर की चौखट लांघ रही हैं, तो कम्पनियों ने अपने ‘टार्गेट ग्रुप’ को लुभाने के पैंतरे बदल लिए हैं. बेशक ऐडवर्टाइंज़िंग में बदलाव कम्पनी के वित्त के लिए होते हैं, समाज के हित के लिए नहीं.

भारत में ब्यूटी प्रोडक्ट्स का बाज़ार 9000 करोड़ रुपयों से अधिक का है. इसमें फ़ेयरनेस क्रीम/ब्लीच का हिस्सा 3000 करोड़ से ज़्यादा का है. यही वजह है कि लॉ रियाल (L’Oreal) या नीविया (Nivea) जैसी बड़ी विदेशी कम्पनियां भी जब भारतीय बाज़ार में उतरती हैं, तो वो भी यहां की मार्केट के अनुसार अपनी-अपनी गोरेपन की डिब्बियां दुकानों में सजा देती हैं. आज बाज़ार में रंग निखारने के लिए फ़ेस क्रीम, बॉडी लोशन, फ़ेस वॉश के साथ ही अंडर-आर्म को गोरा बनाने के डियोडरंट तक मौजूद हैं. अंग्रेज़ी कहावत “टॉल, डार्क एंड हैंडसम” को “फ़ेयर एंड हैंडसम” में बदले की कवायद भी जारी है.

 

हर देश का इतिहास अपने संघर्ष की बुनियाद पर लिखा जाता है. पिछली सदी में दुनिया के एक बड़े हिस्से ने रंगभेद के संघर्ष को देखा और जिया. यही वजह है कि वक्त गुज़रने के साथ-साथ पश्चिमी और अफ़्रीकी देश रंग-भेद के मसले पर संवेदनशील हुए. हालांकि ये संवेदनशीलता दक्षिण-एशियाई देशों तक नहीं पहुंची, क्युंकि यहां धर्म और जाति ज़्यादा बड़ा मसला था. सो आज हमारा कानून धर्म और जाति के आधार पर हुए भेदभाव को लेकर सख्त है, वैसे अभी मन्ज़िल बहुत दूर है पर हमने चलना तो शुरू कर ही दिया है. धर्म या जाति की तरह रंग भी इन्सान पैदा होते हुए खुद नहीं चुनता, इन्सान धर्म बदल सकता है, आज के दौर में अपनी वर्ण व्यवस्था से बाहर निकलकर कोई दूसरा काम भी चुन सकता है. लेकिन प्रकृति ने आप पर जो रंग चढ़ाया है उसे उतारा या बदला नहीं जा सकता.   

 

फ़ेयरनेस प्रोडक्ट्स के विज्ञापन रंग भेद को बढ़ावा देते हैं. ये काले या सांवले रंग के लोगों के बीच हीन भावना भरकर उन्हें अपने उपभोक्ताओं में बदलने की कोशिश करते हैं. सेल्फ़-रेगुलेटरी संस्था ऐड्वर्टाइज़िंग स्टैन्डर्डस काउंसिल ऑफ़ इंडिया’ (ए.एस.सी.आई) की ‘कोड-बुक’ चैप्टर III 1 b में धर्म, जाति, नस्ल या रंग के आधार पर टिप्पणी करने की मनाही है पर ज़ाहिरी तौर पर विज्ञापन कम्पनियां लम्बे समय तक इसकी अनदेखी करती रही हैं. यही वजह है कि फ़ेयरनेस प्रोडक्ट्स ने त्वचा और स्वाभिमान के लिए हानिकारक होते हुए भी, बिना किसी संकोच के चारों तरफ़ पैर पसार लिए.

 

पिछले हफ़्ते ए.एस.सी.आई ने इन कम्पनियों के लिए खासतौर पर कुछ गाइडलाइंस लागू कीं. इनके अनुसार फ़ेयरनेस प्रोडक्ट्स के विज्ञापनों को कई बातों के लिए मना किया गया है, जैसे रंग के आधार पर किसी तरह का भेदभाव दिखाना. ढके हुए रंग के लोगों को निराश, नाकाम, नाखुश या ये दिखाना कि वो अपने रंग की वजह से किसी तरह के नुकसान में हैं. रंग के आधार पर लैंगिक भेदभाव. विज्ञापन में मॉडल के चेहरे पर उसके रंग की वजह से कोई नकारात्मक भाव दिखाना. साथ ही, काले या गोरे रंग को किसी खास समुदाय, जाति, व्यवसाय या नस्ल से जोड़ना. 

विज्ञापन खूबसूरती को बेहद बदसूरती के साथ स्टेरीओटाइप करते हैं. काले रंग को नाकामयाबी से जोड़ने का चलन, बिना मतलब ही गोरी त्वचा को कटघरे में खड़ा कर देता है.  कुछ इस तरह जैसे गोरी त्वचा के लोगों को सब कुछ सिर्फ़ उनके रंग की वजह से ही मिलता है, जीवन-साथी, प्रेमी, नौकरी हो या प्रोमोशन. हर इन्सान की ज़िन्दगी की लड़ाई अलग होती है, हर किसी का अपना रास्ता और संघर्ष होता है, हम किसी के सफ़र को सिर्फ़ उसके रंग-रूप से नहीं आंक सकते.  सामान्यीकरण ने न कभी समाज का भला किया है, न ही किसी व्यक्ति विशेष का.