Wednesday, 27 August 2014

विज्ञापन कम्पनियों के रंगभेदी रवैये पर रोक


एक लड़की नौकरी के इन्टर्व्यू के लिए जाती है. उसका चुनाव सिर्फ़ इस वजह से नहीं होता क्यूंकि लड़की का रंग सांवला है. वो अपनी इस नाकामी से बहुत निराश होती है. तभी उसकी ज़िन्दगी में आशा की किरण बन कर आती है, वो फ़ेयरनेस क्रीम जिसके इस्तेमाल के कुछ रोज़ बाद ही आप गोरे हो जाते हैं. ये गोरापन कोई ऐसा वैसा गोरापन नहीं है, इस गोरेपन में आपका चेहरा ‘फ़्लोरोसेंट बल्ब’ की तरह चमकने लगता है. सो ये लड़की अब अपना ‘सीएफ़एल’ नुमा चेहरा लिए दोबारा इन्टर्व्यू के लिए जा पहुंचती है. लड़की के चेहरे से निकलते तेज के आगे नतमस्तक होने के लिए कम्पनी का मालिक अपनी कुर्सी से खड़ा हो जाता है. जब मालिक फ़िदा तो नौकरी आपकी मुट्ठी में.

एक लड़की गायिका बनना चाहती है. मगर किस्मत की मारी बेचारी सांवली है, अब अगर आपका रंग ही सांवला हो तो आप सुरीले कैसे हो सकते हैं. सो लड़की के पिता उसे चमत्कारी फ़ेयरनेस क्रीम लाकर देते हैं. बस फिर क्या, चेहरा लाइट बल्ब की तरह दमकने लगता है और सुर चहकने लगते हैं.  लड़की ‘स्टार सिंगर’ बन जाती है.

ऊपर लिखे दोनों ही किस्से किसी की भी असल ज़िन्दगी के हिस्से नहीं हैं. ये दोनों ही ‘ओवर द टॉप’ ऐड्वर्टाइज़िंग के नमूने हैं. कुछ साल पहले तक फ़ेयरनेस क्रीम के विज्ञापन विवाह या प्रेम केंद्रित होते थे. जैसे एक लड़की के सांवले होने की वजह से लड़के वालों ने रिश्ते से इन्कार कर दिया या एक लड़की किसी से प्रेम करती है मगर लड़के को दूसरी गोरी त्वचा वाली लड़की पसंद है. ऐसे में सात दिन के अन्दर रंग निखारिए और जीवन-साथी पा जाइए.

अब चूंकि समाज बदल रहा है और लड़कियां घर की चौखट लांघ रही हैं, तो कम्पनियों ने अपने ‘टार्गेट ग्रुप’ को लुभाने के पैंतरे बदल लिए हैं. बेशक ऐडवर्टाइंज़िंग में बदलाव कम्पनी के वित्त के लिए होते हैं, समाज के हित के लिए नहीं.

भारत में ब्यूटी प्रोडक्ट्स का बाज़ार 9000 करोड़ रुपयों से अधिक का है. इसमें फ़ेयरनेस क्रीम/ब्लीच का हिस्सा 3000 करोड़ से ज़्यादा का है. यही वजह है कि लॉ रियाल (L’Oreal) या नीविया (Nivea) जैसी बड़ी विदेशी कम्पनियां भी जब भारतीय बाज़ार में उतरती हैं, तो वो भी यहां की मार्केट के अनुसार अपनी-अपनी गोरेपन की डिब्बियां दुकानों में सजा देती हैं. आज बाज़ार में रंग निखारने के लिए फ़ेस क्रीम, बॉडी लोशन, फ़ेस वॉश के साथ ही अंडर-आर्म को गोरा बनाने के डियोडरंट तक मौजूद हैं. अंग्रेज़ी कहावत “टॉल, डार्क एंड हैंडसम” को “फ़ेयर एंड हैंडसम” में बदले की कवायद भी जारी है.

 

हर देश का इतिहास अपने संघर्ष की बुनियाद पर लिखा जाता है. पिछली सदी में दुनिया के एक बड़े हिस्से ने रंगभेद के संघर्ष को देखा और जिया. यही वजह है कि वक्त गुज़रने के साथ-साथ पश्चिमी और अफ़्रीकी देश रंग-भेद के मसले पर संवेदनशील हुए. हालांकि ये संवेदनशीलता दक्षिण-एशियाई देशों तक नहीं पहुंची, क्युंकि यहां धर्म और जाति ज़्यादा बड़ा मसला था. सो आज हमारा कानून धर्म और जाति के आधार पर हुए भेदभाव को लेकर सख्त है, वैसे अभी मन्ज़िल बहुत दूर है पर हमने चलना तो शुरू कर ही दिया है. धर्म या जाति की तरह रंग भी इन्सान पैदा होते हुए खुद नहीं चुनता, इन्सान धर्म बदल सकता है, आज के दौर में अपनी वर्ण व्यवस्था से बाहर निकलकर कोई दूसरा काम भी चुन सकता है. लेकिन प्रकृति ने आप पर जो रंग चढ़ाया है उसे उतारा या बदला नहीं जा सकता.   

 

फ़ेयरनेस प्रोडक्ट्स के विज्ञापन रंग भेद को बढ़ावा देते हैं. ये काले या सांवले रंग के लोगों के बीच हीन भावना भरकर उन्हें अपने उपभोक्ताओं में बदलने की कोशिश करते हैं. सेल्फ़-रेगुलेटरी संस्था ऐड्वर्टाइज़िंग स्टैन्डर्डस काउंसिल ऑफ़ इंडिया’ (ए.एस.सी.आई) की ‘कोड-बुक’ चैप्टर III 1 b में धर्म, जाति, नस्ल या रंग के आधार पर टिप्पणी करने की मनाही है पर ज़ाहिरी तौर पर विज्ञापन कम्पनियां लम्बे समय तक इसकी अनदेखी करती रही हैं. यही वजह है कि फ़ेयरनेस प्रोडक्ट्स ने त्वचा और स्वाभिमान के लिए हानिकारक होते हुए भी, बिना किसी संकोच के चारों तरफ़ पैर पसार लिए.

 

पिछले हफ़्ते ए.एस.सी.आई ने इन कम्पनियों के लिए खासतौर पर कुछ गाइडलाइंस लागू कीं. इनके अनुसार फ़ेयरनेस प्रोडक्ट्स के विज्ञापनों को कई बातों के लिए मना किया गया है, जैसे रंग के आधार पर किसी तरह का भेदभाव दिखाना. ढके हुए रंग के लोगों को निराश, नाकाम, नाखुश या ये दिखाना कि वो अपने रंग की वजह से किसी तरह के नुकसान में हैं. रंग के आधार पर लैंगिक भेदभाव. विज्ञापन में मॉडल के चेहरे पर उसके रंग की वजह से कोई नकारात्मक भाव दिखाना. साथ ही, काले या गोरे रंग को किसी खास समुदाय, जाति, व्यवसाय या नस्ल से जोड़ना. 

विज्ञापन खूबसूरती को बेहद बदसूरती के साथ स्टेरीओटाइप करते हैं. काले रंग को नाकामयाबी से जोड़ने का चलन, बिना मतलब ही गोरी त्वचा को कटघरे में खड़ा कर देता है.  कुछ इस तरह जैसे गोरी त्वचा के लोगों को सब कुछ सिर्फ़ उनके रंग की वजह से ही मिलता है, जीवन-साथी, प्रेमी, नौकरी हो या प्रोमोशन. हर इन्सान की ज़िन्दगी की लड़ाई अलग होती है, हर किसी का अपना रास्ता और संघर्ष होता है, हम किसी के सफ़र को सिर्फ़ उसके रंग-रूप से नहीं आंक सकते.  सामान्यीकरण ने न कभी समाज का भला किया है, न ही किसी व्यक्ति विशेष का.

No comments:

Post a Comment