Tuesday, 24 February 2015

ख़तरे में पत्रकारिता तो लोकतंत्र पर साया




पिछ्ले साल दुनियाभर में क़रीब 60 पत्रकार मारे गए, साल 2013 में ये आंकड़ा 70 के पास था. एक तरफ़ इन पत्रकारों में सीरिया और इराक़ में आईसिस के चंगुल में फंसे कलमधारी शामिल हैं, वहीं दूसरी तरफ़ उड़ीसा में काजू उत्पादन के कारोबार में हो रही बाल मज़दूरी से परदा उठाने की कोशिश करने वाले तरुण कुमार आचार्य का नाम भी मौजूद है. एक तरफ़ इन आंकड़ों में आंध्रा प्रभा नाम के तेलगू अख़बार में तेल माफ़िया पर स्टोरी कर रहे एम.वी.एन शंकर हैं, वहीं साल 2015 की शुरुआत ही पेरिस में शार्ली हेब्डो पर हमले के साथ हुई. कमिटी टू प्रोटेक्ट जर्नलिस्ट्स (सी.पी.जे) की रिपोर्ट के अनुसार साल 1992 से अबतक दुनियाभर में 730 से ज़्यादा पत्रकारों का जनाज़ा क़त्ल ने उठाया है. इन्हीं रिपोर्ट्स को ठीक से खंगाला जाए तो हम पाएंगे इनमें से 90 प्रतिशत केसों में किसी को कोई सज़ा नहीं सुनाई गई.

प्रजातंत्र में पत्रकार होने की पहली शर्त होती है बेझिझक सच लिखना. दूसरी शर्त, सत्ताधारियों से बेधड़क सवाल पूछना. तीसरी शर्त, मज़लूमों और अल्पसंख्कों को आवाज़ देना. पत्रकार चाहे या ना चाहे जब वो कोई ख़बर दुनिया के सामने रखने की ठानता है तो यह उसकी पेशेवर ज़िम्मेदारी है कि वो अपने सामने मौजूद सच से आंखें ना चुराए. मार्टिन लूथर ने कहा था “जो सच तलाशते हैं, उन्हें साथ में मुसीबत भी मिलती है”. ईमानदारी से काम कर रहे पत्रकारों को मिलने वाली मुसीबत, नौकरी से हाथ धोना, मार-पीट और कई बार मौत की शक़्ल भी इख्तेयार कर लेती है. जिन देशों में ईमानदारी से खबर लिखने वाले सुरक्षित नहीं हैं, जहां उद्योगपतियों के कारनामों पर नज़र रखने वाले संवाददाता नौकरी से बर्खास्त होते हैं, तेल, कोयला या पानी माफ़िया का नाम उजागर करने वाले पत्रकार किसी भी दिन मौत के घाट उतार दिए जाते हैं, पर सलाखों के पीछे कोई नहीं जाता; वो देश लोकतांत्रिक नहीं हो सकते. नकली शराब के धंधे पर सच लिखने वाले की मौत का सच ही अगर उजागर ना हो, धर्म और जाति के नाम पर हो रही नाइंसाफ़ी पर कलम घिसने वाले को खुद मरने पर इंसाफ़ ना मिले, तो उस जनतंत्र का लिहाफ़ ऊपर से कितना भी सफ़ेद हो अंदर कीड़े पड़ चुके हैं.

सी.पी.जे की रिपोर्ट्स के मुताबिक़ पिछले 25 साल में भारत के अलग-अलग हिस्सों में मारे गए पत्रकारों का 30 फ़ीसदी वर्ग भ्रष्टाचार से जुड़े मसलों पर रिपोर्टिंग कर रहा था. इन आंकड़ों पर यक़ीन करना मुश्किल है लेकिन जब कर्नाटक के पत्रकार नवीन सुरिनजे (Naveen Soorinje) के साथ हुई घटना याद आती है तब लगता है, असल में पत्रकारों के खिलाफ़ षड़यंत्र रचना इतना मुश्किल भी नहीं. जुलाई 2012 में कर्नाटक के एक न्यूज़ चैनल में काम करने वाले नवीन अपने कैमरामैन के साथ एक घटनास्थ्ल पर पहुंचे. ये एक ‘होम स्टे’ था जहां हो रही बर्थडे पार्टी में एक उपद्रवी हिंदू संगठन ने घुसकर लड़के-लड़कियों को पीटा. नवीन ने इसका वीडियो बनाया और रिपोर्टिंग की. इस खबर का टाइटल था ‘तालिबनाइज़ेशन ऑफ़ मेंगलोर’, इसी ख़बर के आधार पर दोषियों की शिनाख़्त की गई. तीन महीने बाद यानि नवंबर 2012 में पुलिस ने इसी मामले में नवीन को गिरफ़्तार किया, पुलिस ने उनपर और गुंडागर्दी मचाने वाले संगठन के कार्यकर्ताओं पर एक जैसे मामले तय किए थे जिसके चलते नवीन को साढ़े चार महीने जेल में रहना पड़ा. अभी कुछ महीने पहले ही हरयाणा में ख़ुद को संत कहने वाले रामपाल के आश्रम में जिस तरह पुलिस ने पत्रकारों पर लाठियां चलाईं, वो अधिकारियों के बीच प्रेस के प्रति पनपती नफ़रत साफ़ दिखाता है. जब आपराधिक या कट्टरपंथी गिरोह किसी पत्रकार पर हमला करते हैं, किसी मीडिया हाउस को निशाना बनाते हैं तो दुनियाभर को इन संगठनों के भीतर छुपा फ़्री प्रेस का डर दिखता है. सभी देश मिलकर इन हमलों की आलोचना करते हैं मगर सच का ऐसा ही डर अलग-अलग देशों में ऊंचे पदों पर बैठे अधिकारियों से लेकर पुलिस और राजनितिक पार्टियों में भी नज़र आता है. पुलिस जब पत्रकारों को पीटे, कैमरा तोड़े तो इतना तो समझ आता ही है कि सिस्टम में कहीं कुछ बहुत बड़ी गड़बड़ है. शायद यही वजह है कि पत्रकारों की हत्याओं का सच कम ही सामने आता है.

अल्बेयर कामो ने कहा था “एक स्वतंत्र प्रेस अच्छा और बुरा दोनों हो सकता है लेकिन बिना स्वतंत्रता के प्रेस केवल बुरा ही होगा”. पैलिस्टिनीअन सेंटर फ़ॉर डेवलपमेंट एंड मीडिया फ़्रीडम (2014) के सर्वे ने पाया कि ग़ाज़ा में रहने वाले 80 प्रतिशत पत्रकारों ने ख़ुद पर ख़ुद ही सेंसरशिप लगाई हुई है. यानि लिखने वाले ये लोग अब ऐसा कुछ नहीं लिखते जिससे उनकी जान पर ख़तरा हो. वो सच देखते हैं पर सच लिखते नहीं हैं. भारत में अभी ऐसा वक़्त नहीं आया है लेकिन जिस तरह पत्रकारों पर होने वाले हमलों और हत्याओं के मुक़दमे बेनतीजा साबित होते हैं, ये विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र के लिए ख़तरा तो है ही.

Tuesday, 17 February 2015

गांधी, ओबामा और मर्टिन लूथर


समाज में धर्म की सत्ता और अहमियत को झुठलाया नहीं जा सकता. किसी भी देश में फ़ैसले बहुमत के हाथों ही होते हैं. नास्तिकता बढ़ी है पर उतनी ही तेज़ी से उपजी है सांप्रदायिकता. समझने वाली बात ये है कि इन दोनों के बीच अगर कुछ घुटा है तो वो है सेक्युलरिज़्म यानि धर्म-निरपेक्षता. किसी भी लोकतांत्रिक समाज या देश के लिए धर्म-निरपेक्षता खाद का काम करती है. पिछले दिनों अमरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा ने सभ्य अतिथियों की तरह भारत से लौटकर अपने मन की बात कही, “पिछले कुछ सालों में कई मौकों पर दूसरे धर्म के अन्य लोगों ने सभी धर्मों के लोगों को निशाना बनाया है, ऐसा सिर्फ अपनी विरासत और आस्था के कारण हुआ है। इस असहिष्णु व्यवहार ने भारत को उदार बनाने में मदद करने वाले गांधीजी को स्तब्ध कर दिया होता”. बीजेपी विरोधी तबकों ने ओबामा के बयान को प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी की खिंचाई के लिए इस्तेमाल किया. गणतंत्र दिवस के मौक़े पर आए ओबामा के वापस अमरिका लौटते ही आए इस बयान को मोदी की पीठ में छूरे के तरह भी देखा जा रहा है. खिंचाई, चुनाव और राजनितिक माहौल में कहीं एक ज़रूरी बात की महत्ता तो कम नहीं हो रही?

पिछले दिनों दिल्ली के वसंत कुंज इलाक़े में एक चर्च पर हमला हुआ, हमले का विरोध करने के लिए कुछ लोगों ने नई दिल्ली में प्रदर्शन किया. ये प्रदर्शन अपने-आप में अहम था क्युंकि पिछले दो महीने में दिल्ली में घटने वाली ये पांचवी घटना थी. दिलशाद गार्डन, जसोला, रोहिनी और विकासपुरी के चर्च इससे पहले तोड़फोड़ और हमले झेल चुके हैं. लगातार हमलों के बाद भी अब तक प्रधानमंत्री की तरफ़ से कोई आश्वासन नहीं आया है, ऐसे में ज़ाहिरी तौर पर इसाई समुदाय असुक्षित महसूस कर रहा है. पिछले आठ महीनों में देश भर में बीजेपी नेताओं के भड़काऊ भाषण आम हो गए हैं. एक तरफ़ ‘एआईबी टीम’ के एक वीडियो पर अश्लीलता का तमगा लगाकर उसे यू ट्यूब से हटाने पर मजबूर किया जाता है. दूसरी तरफ़ लोकसभा में बैठे सांसदों की अश्लील भाषा पर कोई सुध ही नहीं लेता. चुप्पी अक्सर हामी का काम करती है. सरकार को तय करना है उसकी नज़र में समाज में शांति बनाए रखने की ज़िम्मेदारी किसकी है? इंटरनेट पर मौजूद किसी वीडियो की या जनता का प्रतिनिधि करने वाले नेताओं की.

सबको याद होगा कैसे एक महीने पहले शार्ली हेब्डो हमले का समर्थन करते हुए बीएसपी नेता हाजी याक़ूब क़ुरेशी ने हमलावरों को 51 करोड़ की ईनामी राशि देने का प्रस्ताव रखा था. ये भी योगी आदित्यनाथ और साक्षी महाराज की तरह ही सांसद हैं. जब आप हिंसा की किसी एक घटना को सही ठहराते हैं तो ना चाहते हुए भी आप दुनिया के हर कोने में होने वाली हिंसा का समर्थन करते हैं. महात्मा गांधी का कहना था “मैं हिंसा का विरोध करता हूं क्युंकि अस्थाई रूप में इसके परिणाम अच्छे लग सकते हैं, पर इससे होने वाली हानि स्थाई होती है”. आज अगर महात्मा गांधी होते तो उन्हें वाक़ई सांप्रदायिकता में रंगता भारत कभी नहीं जंचता. ओबामा ने भारत सरकार की सही नब्ज़ पकड़ी है. वैसे उन्होंने गांधी की आत्मा के साथ-साथ मार्टिन लूथर किंग की आत्मा के बारे में थोड़ा सोचा होता तो पिछले दस साल में दुनिया की सूरत भी अलग होती. “एक जगह हो रहा अन्याय, हर जगह के न्याय पर ख़तरा है” ये मार्टिन लूथर किंग जूनियर का मानना था. ओबामा अपने राज में कुछ भी करें इससे उनकी भारत पर की गई टिप्पणी झूठ साबित नहीं होती, हां बात हल्की ज़रूर हो जाती है.

भारत की नींव धर्म-निरपेक्षता पर खड़ी है. बीजेपी सरकार भले ही सरकारी विज्ञापनों से समाजवादी और धर्म-निरपेक्ष शब्द हटा ले, महाराष्ट्र में बीजेपी को समर्थन दे रही शिव सेना भले ही समाजवादी और धर्म-निरपेक्ष शब्द को संविधान से ही हटाने की मांग करे, चाहे ये कितना भी घिसा-पिटा फ़ॉर्मुला हो पर भारत की मिट्टी में सहिष्णुता और संवेदनशीलता मिली हुई है. यहां गुटों में बंटे, समूहों में खड़े लोग सिर्फ़ लड़ते नहीं है ये वक़्त पड़ने पर एक-दूसरे का साथ भी देते हैं, ये खिलखिलाकर साथ में हंसते भी हैं. समाजवाद में विकास का मतलब पुल बना देना, सड़कों को चमका देना नहीं होता. समाजवाद के कई पहलुओं में एक है साथ चलना, बिना धार्मिक, जातीय, आर्थिक या लैंगिक भेदभाव के सभी को बराबर अवसर प्रदान करना. उसी तरह धर्म-निरपेक्षता का मतलब धर्म के विषय पर लोगों के मुंह पर ताला लगा देना नहीं होता. धर्म-निरपेक्षता का मतलब सभी विश्वासों और मान्यताओं के लिए बराबर सम्मान तो है ही, साथ ही ये धर्म या मान्यताओं पर शंका करने वालों को भी समेटता है. धर्म-निरपेक्षता वाक़ई निरपेक्षभाव से आस्तिकों और नास्तिकों को साथ में फलने-फूलने का मौक़ा देता है. कट्टरता की गोलियों पर सांस लेने वाली पार्टियां कभी भी समाजवाद और धर्म-निरपेक्षता को स्वीकार नहीं कर सकतीं क्युंकि समाजवाद और धर्म-निरपेक्षता का मूल-भाव “जियो और जीने दो” है.