Tuesday, 17 February 2015

गांधी, ओबामा और मर्टिन लूथर


समाज में धर्म की सत्ता और अहमियत को झुठलाया नहीं जा सकता. किसी भी देश में फ़ैसले बहुमत के हाथों ही होते हैं. नास्तिकता बढ़ी है पर उतनी ही तेज़ी से उपजी है सांप्रदायिकता. समझने वाली बात ये है कि इन दोनों के बीच अगर कुछ घुटा है तो वो है सेक्युलरिज़्म यानि धर्म-निरपेक्षता. किसी भी लोकतांत्रिक समाज या देश के लिए धर्म-निरपेक्षता खाद का काम करती है. पिछले दिनों अमरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा ने सभ्य अतिथियों की तरह भारत से लौटकर अपने मन की बात कही, “पिछले कुछ सालों में कई मौकों पर दूसरे धर्म के अन्य लोगों ने सभी धर्मों के लोगों को निशाना बनाया है, ऐसा सिर्फ अपनी विरासत और आस्था के कारण हुआ है। इस असहिष्णु व्यवहार ने भारत को उदार बनाने में मदद करने वाले गांधीजी को स्तब्ध कर दिया होता”. बीजेपी विरोधी तबकों ने ओबामा के बयान को प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी की खिंचाई के लिए इस्तेमाल किया. गणतंत्र दिवस के मौक़े पर आए ओबामा के वापस अमरिका लौटते ही आए इस बयान को मोदी की पीठ में छूरे के तरह भी देखा जा रहा है. खिंचाई, चुनाव और राजनितिक माहौल में कहीं एक ज़रूरी बात की महत्ता तो कम नहीं हो रही?

पिछले दिनों दिल्ली के वसंत कुंज इलाक़े में एक चर्च पर हमला हुआ, हमले का विरोध करने के लिए कुछ लोगों ने नई दिल्ली में प्रदर्शन किया. ये प्रदर्शन अपने-आप में अहम था क्युंकि पिछले दो महीने में दिल्ली में घटने वाली ये पांचवी घटना थी. दिलशाद गार्डन, जसोला, रोहिनी और विकासपुरी के चर्च इससे पहले तोड़फोड़ और हमले झेल चुके हैं. लगातार हमलों के बाद भी अब तक प्रधानमंत्री की तरफ़ से कोई आश्वासन नहीं आया है, ऐसे में ज़ाहिरी तौर पर इसाई समुदाय असुक्षित महसूस कर रहा है. पिछले आठ महीनों में देश भर में बीजेपी नेताओं के भड़काऊ भाषण आम हो गए हैं. एक तरफ़ ‘एआईबी टीम’ के एक वीडियो पर अश्लीलता का तमगा लगाकर उसे यू ट्यूब से हटाने पर मजबूर किया जाता है. दूसरी तरफ़ लोकसभा में बैठे सांसदों की अश्लील भाषा पर कोई सुध ही नहीं लेता. चुप्पी अक्सर हामी का काम करती है. सरकार को तय करना है उसकी नज़र में समाज में शांति बनाए रखने की ज़िम्मेदारी किसकी है? इंटरनेट पर मौजूद किसी वीडियो की या जनता का प्रतिनिधि करने वाले नेताओं की.

सबको याद होगा कैसे एक महीने पहले शार्ली हेब्डो हमले का समर्थन करते हुए बीएसपी नेता हाजी याक़ूब क़ुरेशी ने हमलावरों को 51 करोड़ की ईनामी राशि देने का प्रस्ताव रखा था. ये भी योगी आदित्यनाथ और साक्षी महाराज की तरह ही सांसद हैं. जब आप हिंसा की किसी एक घटना को सही ठहराते हैं तो ना चाहते हुए भी आप दुनिया के हर कोने में होने वाली हिंसा का समर्थन करते हैं. महात्मा गांधी का कहना था “मैं हिंसा का विरोध करता हूं क्युंकि अस्थाई रूप में इसके परिणाम अच्छे लग सकते हैं, पर इससे होने वाली हानि स्थाई होती है”. आज अगर महात्मा गांधी होते तो उन्हें वाक़ई सांप्रदायिकता में रंगता भारत कभी नहीं जंचता. ओबामा ने भारत सरकार की सही नब्ज़ पकड़ी है. वैसे उन्होंने गांधी की आत्मा के साथ-साथ मार्टिन लूथर किंग की आत्मा के बारे में थोड़ा सोचा होता तो पिछले दस साल में दुनिया की सूरत भी अलग होती. “एक जगह हो रहा अन्याय, हर जगह के न्याय पर ख़तरा है” ये मार्टिन लूथर किंग जूनियर का मानना था. ओबामा अपने राज में कुछ भी करें इससे उनकी भारत पर की गई टिप्पणी झूठ साबित नहीं होती, हां बात हल्की ज़रूर हो जाती है.

भारत की नींव धर्म-निरपेक्षता पर खड़ी है. बीजेपी सरकार भले ही सरकारी विज्ञापनों से समाजवादी और धर्म-निरपेक्ष शब्द हटा ले, महाराष्ट्र में बीजेपी को समर्थन दे रही शिव सेना भले ही समाजवादी और धर्म-निरपेक्ष शब्द को संविधान से ही हटाने की मांग करे, चाहे ये कितना भी घिसा-पिटा फ़ॉर्मुला हो पर भारत की मिट्टी में सहिष्णुता और संवेदनशीलता मिली हुई है. यहां गुटों में बंटे, समूहों में खड़े लोग सिर्फ़ लड़ते नहीं है ये वक़्त पड़ने पर एक-दूसरे का साथ भी देते हैं, ये खिलखिलाकर साथ में हंसते भी हैं. समाजवाद में विकास का मतलब पुल बना देना, सड़कों को चमका देना नहीं होता. समाजवाद के कई पहलुओं में एक है साथ चलना, बिना धार्मिक, जातीय, आर्थिक या लैंगिक भेदभाव के सभी को बराबर अवसर प्रदान करना. उसी तरह धर्म-निरपेक्षता का मतलब धर्म के विषय पर लोगों के मुंह पर ताला लगा देना नहीं होता. धर्म-निरपेक्षता का मतलब सभी विश्वासों और मान्यताओं के लिए बराबर सम्मान तो है ही, साथ ही ये धर्म या मान्यताओं पर शंका करने वालों को भी समेटता है. धर्म-निरपेक्षता वाक़ई निरपेक्षभाव से आस्तिकों और नास्तिकों को साथ में फलने-फूलने का मौक़ा देता है. कट्टरता की गोलियों पर सांस लेने वाली पार्टियां कभी भी समाजवाद और धर्म-निरपेक्षता को स्वीकार नहीं कर सकतीं क्युंकि समाजवाद और धर्म-निरपेक्षता का मूल-भाव “जियो और जीने दो” है.

4 comments:

  1. भारतीय राजनीति ने जाति और धर्म को कभी अपना हथियार तो कभी अपनी ढाल बनाकर स्तेमाल किया है । हमारे देश में यह एक अलोकतांत्रिक कार्य होता आ रहा है जिसे समाप्त करने के लिये आज तक किसी भी राजनैतिक दल ने गम्भीरता से विचार नहीं किया है ...वे कर भी नहीं सकते ...क्योंकि वे संत नहीं हुक्मरान हैं ...वे देश और जनता के लिये राजनीति नहीं करते .....देश और जनता के नाम पर की जाने वाली राजनीति वस्तुतः प्रायः स्वयं नेताओं और उनके परिवार को केन्द्रित कर की जाती रही है । कोई मुझे निराशावादी समझ सकता है किंतु आज़ादी के बाद से अभी तक का जो परिदृश्य उभरकर सामने आया है उसे नकारना सत्य को झुठलाना होगा । कभी-कभी लगता है कि भारत में सभी धार्मिक संस्थाओं के बाह्य स्वरूप और सामूहिक क्रियाकलापों पर प्रतिबन्ध लगाये जाने की आवश्यकता है ...कम से कम 50 साल के लिये ।

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  3. अच्छा लिखा हैं अपने...
    भारतीय समाज में पर धर्म निर्पेछता की जड़े बहुत गहरी हैं.
    Which has proved itself in time and again.

    "हम लाये हैं तूफान से कश्ती निकाल के"

    स्वागत हैं_http://themissedbeat.blogspot.in/?m=0

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  4. बात तो सही है कि अधिकांश भारत धर्म निरपेक्ष है. लेकिन मुश्किल यह है कि इस्लाम खुद सर्वसमावेशी धर्म नहीं है. कट्टरता के खिलाफ इस्लाम के भीतर भी अलख लगनी चाहिए. अपने ही लोगों के जरिए. क्योंकि जो हिन्दू कट्टरता की राजनीति कर रहे हैं इस्लामिक कट्टरता उनके लिए बहुत बड़ा हथियार है. दोनों तरफ कट्टरता के खिलाफ आवाज बुलंद होनी चाहिए. बाहर से नहीं बल्कि भीतर से.

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