Saturday 19 February 2011

7 'भूल' माफ़ !!!

ज़रूर देखें, प्रियंका चोपड़ा, अनु कपूर और विवान शाह (नसरुद्दिन शाह के बेटे) के लिए. दर्द, तकलीफ़, ताकत, वहशत या हसरत. इन्सान के हर वक्त बदलते एहसासों को महसूस करने के लिए. विशाल भारद्वाज की फ़िल्मों को सराहने वाले ’सात खून माफ़’ ना देखें तो नाइंसाफ़ी होगी.

Strength– धुन और धार. संगीत किसी भी फ़िल्म का साथी होता है अगर अच्छा हो तो सफ़र को खुशनुमा बनाता है वरना अच्छे खासे रास्ते को भी झिलाऊ कर देता है. विशाल की पहचान फ़िल्म के हर गीत पर है यहां तक की रॉक गीत ’दिल-दिल है’ पर भी. विशाल संगीत से खेलना जानते हैं वो आपके जज़्बातों को ’डार्लिंग’ पर नचायेंगे और ’बेकरां’ पर रुमानियत से भर देंगे. कहानी चाहे बेहद सुलझी हुई हो या फिर घुमावदार, मायने रखता है उसका treatment. चौंकाने वाली शुरुआत के बाद अगर दर्शक अगले २० मिनट को माफ़ कर सकें तो ’सात खून माफ़’ धार पकड़ लेती है. जैसे-जैसे आगे बढ़ते हैं धार तेज़ होती रहती है. दर्शक अपने अंदाज़े लगाता रहेगा और कहानी कभी उसकी समझ के अनुसार और कभी समझ के विपरीत चलेगी. ’स्क्रीनप्ले’ अपनी नोक के साथ चुभन गहरी करता रहेगा.

Loopholes-

1. Expectations - बॉलीवुड में hype create की जाती है, फ़िल्मस्टार फ़िल्म का नाम दर्शक की ज़ुबान पर चढ़ाने के लिये कभी मॉल में लोगों के बाल काटते हैं तो कभी प्रेम की अफ़वाहें उड़ाते हैं. मगर ज़रूरी नहीं कि हर बार ये उत्तेजना फ़ायदेमंद ही साबित हो जैसा कि ’सात खून माफ़’ के साथ हुआ है. विशाल की पिछली फ़िल्में और उनसे जुड़ी कामयाबी ने ’सात खून माफ़’ को रिलीज़ से पहले ही उम्मीदों की नाव पर चढ़ा दिया. ऐसे में ज़रा भी कम-ज़्यादा हुआ नहीं कि ’बैलेंस’ बिगड़ा.

2. Women-oriented - जिसे भारतीय दर्शक पैसा खर्च कर के नहीं देखना चाहता

3. Pace – कहीं कहीं धीला पड़ता हुआ

4. World Cup – क्रिकेट वर्ल्ड कप शुरु होने को है और आप इस वक्त फ़िल्म रिलीज़ कर रहे हैं

5. Black humour – तथाकहित मल्टीप्लेक्स दर्शक भी मुश्किल से समझता है

6. Make-up – 20 साल की या 50 साल की प्रियंका में कोई खास फ़र्क नहीं. बस विग बदलने और make-up हटाने से काम नहीं चलता

7. Climax – इतने बवाल के बाद इतना फ़िल्मी, मज़ा नहीं आया

Hit Or Flop - अगर फ़िल्म के ’हिट’ होने का मतलब अपना पैसा recover करके थोड़ी बहुत कमाई करना होता है तो ’हां’ ये चलेगी. पर अगर ’हिट’ का मतलब distributers को मालामाल करना और बॉक्स-ऑफ़िस कलेक्शन में कोई रिकोर्ड बनाना होता है तो ’सात खून माफ़’ नहीं चलने वाली.

Story- बॉलीवुड में फ़िलहाल प्रियंका ही ऐसी अभिनेत्री हैं जिन्हें लीड में रख कर कहानी बुनी जा सकती है. कमाल की एक्टिंग, डायलॉग डिलीवरी और स्क्रीन प्रेज़ेन्स. विवान शाह का narration, उनकी आवाज़, उनका अभिनय नसीरुदीन शाह की विरासत को आगे बढा़ते हुए. एक लड़की जिसका नाम हैसुसेना एना-मैरी जोहेनस’, जितना लंबा नाम ज़िन्दगी जीने की उमंग उससे कहीं लंबी. अपने नौकरों के साथ रहती है बल्कि वही उसका परिवार भी हैं. वो बड़ा दिल रखती है, हिम्मत वाली है और प्यार में यकीन करती है. उसे प्यार में धोखा मिलता है, शक्की पति से वास्ता पड़ता है, बेरहम साथी के जड़े थप्प्ड़ चहरे पर निशान देते हैं पर वो हर बार उठती है और एक नये रिश्ते को मौका देती है. वो किसी अपराध-बोध में नहीं जीती बल्कि अपनी नाकामयाब शादियों और उनके परिणामों से मज़बूत होती जाती है. वो पागल नहीं है उसकी परेशानी ये है कि वो ज़ुल्म बर्दाश्त नहीं कर सकती. जो उसकी ज़िन्दगी को नर्क बनाने की ओर ले जायेगा वो उसे खत्म कर देगी. उसके एक नौकर के अनुसार ’मदाम रास्ता नहीं बदलतीं वो कुत्तों को मार देती हैं’. विशाल भारद्वाज की फ़िल्में आपके ज़हन को भारी कर देती हैं दिल में खलिश पैदा करती हैं, ’सात खून माफ़’ इस कसौटी पर तो पूरी उतरती है. एक और चीज़ जो विशाल के सिनेमा की पहचान है वो है ’नारीवाद’. यहां वो भी भरपूर है. छोटे से किरदार का भी कमाल का अभिनय हो या फिर मज़ेदार डीटेलिंग जैसे टीवी पर चलती खबर के तहत time-frame समझाना. विशाल भारद्वाज की ’सात खून माफ़’ भले ही ’मक्बूल’ या ’ओंकारा’ जैसी ना हों पर ये बेशक ’विशाल छाप’ है.

Thursday 17 February 2011

निर्वस्त्र होता न्याय

कहते हैं शरीर नश्वर है, इसे मिट जाना है. शरीर पर लगे घाव भर जाते हैं. वहीं आत्मा को पहुंची चोट के निशान हमेशा उभरे रहते हैं. सभी धार्मिक ग्रंथों का यही मानना है कि आत्मा को दूषित होने से बचाया जाये, किसी के शरीर पर चोट करने से ज़्यादा क्रूर है किसी की आत्मा पर वार करना. पर चूँकि समाज अपने अनुसार हर महान विचार के साथ फ़ेर बदल करता रहा है तो ये कोई अनोखी बात नहीं कि नि:वस्त्र हो विरोध प्रदर्शन करती औरत को मानसिक रूप से असंतुलित बताया जाये.

पिछ्ले दिनों एक पूर्व महिला रॉ अधिकारी ने अदालत में सुनवायी के वक्त अपने कपड़े उतारने शुरु कर दिये, ऐसा इसलिए हुआ क्युंकि वो बार-बार टल रही सुनवाई से तंग आ गयी थीं, इससे पहले भी इस महिला ने पी.एम हाउज़ के आगे खुदकुशी करने की कोशिश की थी. मगर उनके इस कदम को कोई खास तवज्जो नहीं मिली. इस महिला ने अदालत में ऐसा एक बार नहीं दो बार किया, पहली दफ़ा उनके विरोध में चिल्लाते हुए निर्वस्त्र होने को महिला पुलिस कॉनस्टेबलों द्वारा रोक दिया गया. मगर दूसरी बार ऐसा करने पर मानसिक जांच का आदेश दे दिया गया जिसके तहत उन्हें “इंस्टिट्यूट ऑफ ह्यूमन बिहेवियर एंड एलाइड साइंस (इहबास)” में भर्ती किया गया. इस पूर्व महिला रॉ अधिकारी ने अपने सीनियर पर यौन उत्पीड़न का आरोप लगाया था.

हम जिस संस्कृति में जी रहे हैं वहां बचपन से ही लड़की को उसके शरीर की एहमियत इस कदर समझाई जाती है कि खराब मानसिक हालात में भी कोई महिला यूं ही कपड़े नहीं उतारने लगती. यहां तक कि सड़क पर गर्मी या कमज़ोरी से बेहोश होती महिलाओं को भी गिरने से पहले अपना दुपट्टा ठीक करना याद रहता है. घरों में दादी-नानियां भी अपनी साड़ी के पल्लु को कलेजे से लगा कर रखती हैं. कुछ एक जगहें जैसे ’स्ट्रिप क्लब्स’ में जवान लड़कियों को शरीर से एक-एक कर कपड़े अलग करते देखा जा सकता है पर वो भी होशोहवास में जीवन व्यापन के लिये ऐसा करती हैं. वैसे भी हिंदुस्तान में ऐसे क्लब प्रचलन में नहीं हैं. यहां वेश्यावृत्ति भी रात के अंधेरे में, शरीफ़ों की गलियों से दूर गुमनाम कोनों में पलती है. शरीर की जितनी एहमियत इस समाज में है, शरीर का जितना प्रभाव इस समाज पर है उसके कारण आत्मा शरीर के भीतर अपनी पहचान और अपने ऊपर हुए ज़ुल्मों को लेकर रोती रहती है. इस बात से किसी को फ़र्क पड़ सकता है कि एक बीवी को उसका पति दिन-रात पीटे मगर इस तकलीफ़ पर कम ही भौंए उठेंगी कि वो हर वक्त पति की फ़टकार सुनती है.

पिछ्ले दिनों मनिपुर में असम राइफ़ल्स के जवानों द्वारा एक लड़की का बलात्कार और फिर उसे उग्रवादी बताकर हत्या कर देने का मामला सामने आया था. इस घटना पर कुछ युवतियों ने कपडे फेंक कर असम राइफ़ल कार्यालय के सामने प्रदर्शन किया था. गुस्से में नारे लगाती युवतियों को वहां से हटाने में सेना को बड़ी मशक्कत हुई थी. आप किसी को अकेले में निःवस्त्र कर उसका बलात्कार कर उसकी हत्या करते हैं तो ये अपने आप में पूरी नारी जाति को निर्वस्त्र कर उसकी हत्या करना होगा. एक इन्सान में एक दुनिया बसती है और एक इन्सान के साथ अन्याय पूरी इन्सानियत के साथ अन्याय है. जब मन को आघात लग ही गया जब ज़हनी तौर पर किसी को तोड़ ही दिया गया, जब आत्मा को बेपर्दा कर ही दिया गया तो ये कहां मायने रखता है कि शरीर पर पर्दा रहा कि नहीं. यौन उत्पीड़न की शिकार महिला अधिकारी, सुनवायी के दौरान कितनी बार नंगा करते सवालों से इज़्ज़त बचाने की कोशिश में लगी रही. उस पर उसकी इस लड़ाई में तमाम तरह की न्यायिक बाधांए उसके सब्र का इम्तिहान लेती रहीं. अब अगर वो रोज़ ब रोज़ जूझती, कपड़े नोंचते सवालों से तंग आ गयी तो गलती किसकी है. कौन सा आसमान टूट पड़ा जब उसने हिम्मत हारकर कपड़े फेंक दिये कि ये लो अब कुछ बचा ही नहीं तो छुपाऊं क्या.

क्या ये बहतर नहीं होता कि उसे मानसिक इलाज के लिये भेजने कि बजाय उसकी बात सुन ली जाती. समय भी कम लगता और वो खुद को ठगा हुआ भी ना महसूस करती. अदालत की अपनी मान-मर्यादा है, पर उसी मर्यादा को लाघंते हुए जब अदालत में बलात्कार या यौन उत्पीड़न जैसा मसलों पर पीड़ित के मान को तार-तार किया जाता है तो क्या उसकी ज़िम्मेदारी भी अदालत की नहीं बनती है. वैसे भी कहते हैं इज़्ज़त देने पर ही इज़्ज़त मिलती है.

द्रौपदी का अपमान ये नहीं था कि भरी सभा में उसका चीर-हरण हुआ. उसकी साड़ी का छोर तो वहीं से खिंचना शुरु हो गया था जब पांडवों ने द्रौपदी को वस्तु समझ दाव पर लगाया. जब सम्मान के टुकड़े हो ही गये तो स्तन को छुपाने का क्या महत्व है.

Monday 7 February 2011

ये जेसिका की दिल्ली है…लड़ना सीख


“ये दिल्ली है दिल्ली… लड़ना सीख” जेसिका अपनी बहन सबरीना को समझाती है और सबरीना माज़ी की इस सीख को याद करके एक बार फिर उठ खड़ी होती है. लड़ायी के दौरान वो वक्त ज़रूर आता है जब इंसान सोचता है ’बहुत हुआ, क्या मिलेगा लड़ कर जो गया वो लौट कर तो नहीं आने वाला.’ हालात इतने सख्त होते हैं कि हिम्मती शख्स भी टूट्ने लगता है. यही वो लम्हा होता है जब दूबारा खड़े होने की ताकत चहिये होती है. जेसिका केस की याद इसी हिम्मत को जगाती है. ’नो वन किल्लड जेसिका’ निर्देशक राजकुमार गुप्ता की दूसरी फ़िल्म है. इससे पहले ’आमिर’ में उन्होंने छोटे कलाकारों के साथ काम किया था तो ’नो वन किल्लड जेसिका’ सिर्फ़ विषय के स्तर पर नहीं स्टारकास्ट के मामले में भी उनके लिये बड़ी फ़िल्म थी. फ़िल्म की कहानी नयी या अनसुनी नहीं है, मीडिया का ’एक्टिविज़्म’, हाई प्रोफ़ाइल लोगों का दोगला रवैया, डर के साये में सच का कहीं पीछे छूट जाना, मौका परस्तों की झूठी कसमें, फ़िल्म में ऐसा कुछ भी नहीं है जो हमारे आस पास न घटता हो. ’नो वन किल्ल्ड जेसिका’ हर रोज़ जूझ रहे इन्सान, ’रंग दे बसंती’ देख कर जागरुक हुए, एसएमएस से इंसाफ़ की मांग करते युवाओं, बेहतर टीआरपी और बड़ी स्टोरी की तलाश वाले पत्रकारों को बखूबी पेश करती है. किसी ऐसी कहानी पर फ़िल्म बनाना जिसे लोग पहले से ही जानते हैं रिस्की होता है. या तो आप सन्जय लीला भंसाली हों जो देवदास को रंगों और बोलों से सजा कर पेश करें या फिर रामगोपाल वर्मा हों जो बदसूरत को इतना घिनोना दिखायें की कंपन हो जाये. बीच का रास्ता दर्शक को बेसुकून करता है. ’नो वन किल्लड जेसिका’ यही बेसुकूनी देती है.

दिल्ली पथरीली है, दिल के बगैर है अगर आप कमज़ोर हैं तो रोज़ ब रोज़ तमाचे जड़ने वाली है. इंडिया गेट वाली सड़क चौड़ी है साफ़ है तो मुनिरका की गलियां बदबुदार हैं. जी.के के पोश इलाके से कुछ ही कदम दूर है सावित्री नगर के उबड़-खाबड़ रास्ते, साकेत के गोल्फ़ क्लब से होज़ रानी गांव इतना दूर भी नहीं कि कभी गुज़रते वक्त नज़र ना पड़े, महरोली की फूल मंडी से सेन्ट्रल पार्क वकाई दूर है इन दूरियों को किलोमीटर में नहीं फ़ासलों में नापना बेहतर होगा. वैसे तो हर शहर दो कहानियां कहता है दो रूप रखता है पर दिल्ली का एक रूप दूसरे से इतना मुखतलिफ़ है कि शक होता है इस शहर को ’स्प्लिट पर्स्नेलिटी’ वाली बीमारी तो नहीं. ’नो वन किल्लिड जेसिका’ दिल्ली की इस बीमारी के साथ इन्साफ़ नहीं कर सकी है. कुछ जगहों पर फ़िल्म तीखी होती है पर ये कुछ एक सीनो तक ही सिमट कर रह जाता है. जैसे सब्रीना का गवाह नीना से मिलना, जहां नीना चोकलेट ट्रफ़ल खाते हुए जेसिका की मौत पर आंसू बहाती है या मनु के माता पिता जेसिका के घर शोक व्यक्त करने आते हैं. इसके अलावा कहानी फ़िल्मी ही लगती है.

जेसिका केस अपने आप में न्याय की जीत तो बेशक था मगर इस जीत को एक खास तबके से जोड़ कर ही देखा जा सकता है. मोबाइल फोन, ’एसएमएस’ और टेलीविज़न मिडिआ का शुरुआती दौर आकर्शक रहा, एक अपकमिंग मोडल की हाइप्रोफ़ाइल पार्टी में हत्या दर्दनाक ज़रूर थी मगर राजधानी से इतना समर्थन न तो कभी भोपाल गेस त्रास्दी के पीड़ितों को मिला और ना ही सेज़ के तहत बेघर हुए ग्राममिणों को. खैर, ’दर्शक की सहानुभूति जहां कामयाब बॉक्स-ऑफ़िस रिज़ल्ट्स वहां’ की तर्ज पर बनती फ़िल्में “नो वन किल्लिड जेसिका” की प्रेरक हो सकती हैं.

बॉलीवुड की व्यथा ये है कि यहां एक नायक और एक खलनायक होता है. तो रानी बनी फ़िल्म की नायक जर्नलिस्ट मीरा गेटी जो अकेले ही खलनायक को धूल चटाने के लिये काफ़ी है. वो अन्याय को बरदाश्त नहीं करती इसके लिये अपने बॉस से लड़ जाती है. वो गाली-गलोच करती, सिगरेट पर सिगरेट फूंकती हुई टीआरपी के लिये नहीं न्याय के लिये लड़ती है. वो सबरीना को हिम्मत बंधाती है और गुनाहगारों को बेनकाब करती है. फिर भी पूरी फ़िल्म की असल नायक है विद्दया बालन जो सबरीना की निराशा या किसी अपने के खोने की तकलीफ़ को बेहद खूबसूरती से निभाती है. रानी के फ़ेंस भले ही इतेफ़ाक ना रखें और साल के अंत में भले ही रानी को ढेरों अवार्ड मिलें मगर एक्टिंग के मामले में विद्दया उनसे कई कदम आगे रहीं. हालांकि निर्देशक राजकुमार गुप्ता ने छोटे छोटे किरदारों के लिये भी अच्छी प्रतिभाओं का इस्तेमाल किया है जैसे जेसिका केस को हेंडल करता पुलिस ऑफ़िसर या फिर मीरा गेटी का बॉस.

बॉलीवुड की एक और व्यथा संगीत. फ़िल्म में संगीत नहीं है यानी ये आर्ट फ़िल्म है, बोरिंग है इसे देखने दर्शक सिनेमा घरों तक नहीं आयेंगे. अब या तो ये हो सकता है हिमेश रेशमिया की फ़िल्मों की तरह हर जगह गाना ज़बर्दस्ती घुसा दिया जाये या फिर ये कहानी को आगे बढ़ाते हुए होना चाहिये. ’नो वन किल्लिड जेसिका’ दूसरी श्रेणी में आती है मगर संगीतकार अमित त्रिवेदी का संगीत वैसा हर्गिज़ नहीं जैसा देवडी में था, फ़िल्म का टाइटल ट्रेक भले ही अच्छा है मगर जैसे ’नयन तरसे’ या ’परदेसी’ ने फ़िल्म देवडी को और नोकिला बनाया था वैसा कुछ यहां नहीं हुआ है.

’नो वन किल्लिड जेसिका’ देखी जा सकती है मगर बगैर किसी बड़ी उम्मीद के. ’आमिर’ को किनारे रख कर, रानी की ब्लेक भूल कर और अमित त्रिवेदी के ’इमोशनल अत्याचार’ को गुनगुनाना बंद करके.