Monday 29 August 2011
एक अनशन राजू का ...
फ़िल्म गाइड इन सभी स्टीरिओ टाइप किस्सों और हिस्सों से परे है. यहां वहीदा अपने पति को छोड़ती है, पैरों में घूंघर बांधती है पर किसी मजबूरी के तहत नहीं बल्कि अपने शौक और अपनी कला के लिए. अपने प्रेमी यानि राजू की मदद और प्रोत्साहन से खूब पैसा कमाने के बाद भी वो उसके चरणों की दासी नहीं बनती. बल्कि उलटा वो उससे ऊबने लगती है. राजू को शराब से झूलता और जूए में झूमता देख वो उसे लौटा लाने की कोशिशें नहीं करती. गाइड का राजू शरत चन्द्र का देवदास नहीं है वो अपनी अकड़ का गुलाम नहीं है ना ही उसे इस बात पर गुरूर है कि वो कभी झुकता नहीं. उसकी कमज़ोरियां उस पर हावी नहीं है. वो बहुत ही आम सा शख़्स है अपनी ज़िन्दगी में मौजूद औरत के लिए धोखाधड़ी कर सकता है,अपने यहां काम करने वाले लोगों पर गुस्से में चिल्ला सकता है यहां तक की मुसीबत में डर कर भाग सकता है. राजू की कमज़ोरियां उतनी ही आम या खास हैं जितनी किसी भी ऐसे मध्यवर्गी आदमी की होंगी जिसके पास अचानक से खूब सारा पैसा आ जाए. तो ऐसा क्या है जो देवसाहब की गाइड हिन्दी सिनेमा की क्लासिक है.
जेल, प्रेम, दुनिया और फिर स्वामी. फ़िल्म ’गाइड’ का राजू अहसासों से होता हुआ, पैसे में तैरता हुआ, ताश के पत्तों में भटकता हुआ, प्रेम की डोर को कभी थामता हुआ कभी काटता हुआ इन्सान के अनगिनत रूपों का मेल है बल्कि इन्सान के अन्दर छुपे कई इन्सानों को समेटता हुआ वो सबके जैसा होते हुए भी सबसे अलग है. रोज़ी उर्फ़ नलिनी शादी के बंधन को तोड़ते हुए, खुद की ज़िन्दगी और इच्छाओं के लिए खड़े होते हुए फिर प्रेम में गिरफ़्त होकर कमज़ोर होने वाली मगर प्रेम पर आंखें बंद कर विश्वास ना करने वाली, प्रेमी के शराब और जूए में डूबने से रोने नहीं झल्लाने वाली आम होते हुए भी बेहद खास औरत है.
सच और झूठ से चरित्र का निर्माण नहीं होता, चरित्र का निर्माण इन्सान के उठाए कदमों से होता है. इस एक बात से ही राजू किताबी और फ़िल्मी पुरुष से ऊपर उठ जाता है. वो एक शादीशुदा औरत से प्रेम करता है, उसके सो चुके ख़्वाबों को जगाता है. उससे दूर हो जाने के डर से धोखाधड़ी करता है. पकड़ा जाता है जेल पहुंचता है फिर लौट कर नहीं आता, चला जाता है एक ऐसी दुनिया में जहां लोग उसे महात्मा मानते हैं.वहां राजू मन्दिर में रहता है, गांव की तरक्क़ी के लिए काम करता है तो भोलेभाले लोग गांव में स्कूल और अस्पताल खुलने को चमत्कार समझ बैठते हैं. सूखा पड़ने पर जब मौत गांव पर अपने पंख फ़ैला देती है तो गांव वालों का अपने महात्मा पर किया अटूट विश्वास हिम्मत बंधाने लगता है. उम्मीद जब विश्वास से जुड़ती है तब आखों के सामने का सच बेमायने हो जाता है, आखें वही देखती हैं जिसकी परछाई ज़हन में तैर रही होती है. कई दफ़ा खुद का सच दूसरे के यकीन के आगे दम तोड़ देता है राजू भी अपने सच को किनारे रख चल पड़ता है उम्मीद और विश्वास के उस रास्ते पर जहां से गुज़रना उसे ढोंगी भी बना सकता था. बिलखती गिड़गिड़ाती आस्था के आगे राजू झुकता है और उस आस्था को ओढ़ बारिश के लिये उपवास रखता है.
सही-गलत, सच-झूठ, विश्वास-अंधविश्वास इन्सान के अन्दर होने वाले लड़ाईयों से शुरू होकर दुनिया में जंग का रूप लेता है. अगर मन में सवाल ही ना रहें तो जवाब के लिए ना भटकना होगा ना तड़पना होगा. हम क्यूं हैं, ज़िन्दगी का मतलब क्या है, सैंकड़ों लोगों में हमारे दर्द कितनी एहमियत रखते हैं, क्यूं दिन रात महनत करके कमाना है, क्यूं फिर उस कमाई को खुद पर ही उड़ाना है. ज़िन्दगी माना क़ीमती है पर जीना है क्या ? क्या यूंही पैदा होने, पढ़ने-लिखने, नौकरी की तलाश करने, टीवी देखने, खरीदारी करने, खूब घी-तेल खाने, जिम में जाकर वज़न घटाने, मीठे के लिए बेसब्र होने और फिर डायबटीज़ से जूझने...दिली ख्वाहिशों के पीछे भागते हुए एक दिन दिल के दौरे से ख़त्म हो जाने के लिये। ये चक्कर पूरी दुनिया को हर सांस को, हर आत्मा को दबोचे हुए है।
इसी चक्कर से मुक्त होते हुए राजू की आवाज़ बहुत तेज़ गूंजती है पर उसका शरीर इतना विशाल हो जाता है कि वो गूंज उसके अंदर ही ऊंची, धीमी,बेहद धीमी और फिर विलीन हो जाती है. राजू को मरने से पहले एक साफ़ रास्ता दिख जाता है जहां वो गर्म ठंडक और सर्द गर्मी महसूस करता हुआ. बारिश ले आता है, ज़मीन उसे समा लेती है जैसे बारिश की बूंदों को सोख लेती है.
Monday 22 August 2011
’बेइमानी के खिलाफ़ खड़े नहीं हो सकते तो ईमानदार नहीं हैं’
आज कई लोग जन लोकपाल बिल के साथ खड़े नहीं हैं उनका मानना है कि किसी एक कानून से बदलाव नहीं लाया जा सकता या फिर देश में पहले ही भ्रष्टाचार से लड़ने के लिये कई कानून हैं ज़रूरत है उनको मज़बूत बनाने की. अन्ना को नौटंकी बताने वाले अलग अलग तबकों से हैं जैसे ओबामा के भारत आने पर सड़कों पर उतरने वाले लोग, नक्सल कार्यवाई के विरोध में ग्रहमंत्री को काले झंडे दिखाने वाले लोग, इंडिया के क्रिकेट मैच हार जाने पर भिन्नाने वाले लोग. कई लोगों का ये भी मानना है कि अन्ना के पीछे विदेशी ताकतें हैं वर्ना कोई समाजिक कार्यकर्ता इतना समर्थन कैसे जुटा सकता है. कई ये भी कहते हैं कि ये आंदोलन ब्राहमणवादी है इसमे दलितों और अल्पसंख्यकों की जगह नहीं है. यहां तक कि ससंद पर भरोसा करने की हिदायत भी दी जा रही है.
पहली बात, किसी भी बड़े बदलाव की शुरूआत एक छोटे से कदम से ही होती है, ऐसा नहीं है कि एक कानून बना, कुछ कागज़ात साइन हुए और समाज बदल जाएगा, देश में हर कोई स्वस्थ और सुखी हो जाएगा. सवाल है पहला कदम बढ़ाने की. राइट टू इन्फ़ॉरमेशन या इलेक्शन कमिशन का अपने पैरों पर खड़ा होना इस बात का सुबूत है. संविधान में बेशक ऐसे कानून हैं जो भ्रष्टाचार की नकेल खींच सकते हैं पर एक छोटा सा छेद भी नाव को डुबाने के लिए काफ़ी होता है. उस छेद को ’लूप होल’ कहते हैं.
दूसरी बात, अमरीका हमारा दुश्मन है या चीन हम पर भारी हो रहा है मानने वाला तबका ये क्यूं भूल जाता है कि घर का भेदी लंका ढाए. जब तक हम खुद अपने बीच से अपनी ही जड़ें खोखली करने वालों को ढूंढ-ढूंढ कर नहीं निकाल लेते तब तक किसी भी दुश्मन से लड़ने में हम नाकाम ही होंगे. हर शख़्स यही मानता है कि भ्रष्टाचार एक दीमक है पर इसके लिए हमें आपसी मतभेद को किनारे रखना होगा, दो अलग अलग सोच रखने वाले भाई अगर अपनी मां को मौत की कगार पर देखें तो पहला हाथ उसे अस्पताल ले जाने के लिए बढ़ना चाहिए नाकि ये तय करने के लिए कि पड़ोसी हमारे आंगन में पैर पसार रहा है.
तीसरी बात, लोगों के बीच जोश भरना सबसे आसान काम भी है और सबसे मुश्किल भी. नौकरी पेशा लोग जब अपने ऑफ़िस के बाद कंधे पर बैग लटकाए केंडलमार्च करते हैं, घर में बैठ कर टीवी पर सास-बहू सीरियल देखने वाली औरतें या फिर छात्र-छात्राएं कॉलेज कैंपस की जगह तिहाड़ जेल के सामने रात बिताते हैं तो इतना तो तय हो जाता है कि ये लड़ाई सबकी है. शहर के आस-पास बसे गांव से लोग जब खुद चल कर अन्ना को देखने आते हैं. बूढ़ी औरतें, मां-बाप अपने बच्चों को साथ लिए जब एक इन्सान में उम्मीद की किरन देखते हैं तो ये भी साफ़ होता है कि भ्रष्टाचार वाकई आम इंसान को चोट देता है. ये बिल्कुल ज़रूरी नहीं कि जन लोकपाल के लिए हो रहे आंदोलन में शामिल सभी लोग इसकी पेचीदगियों को समझें, इनकी सीधी समझ तो इतना ही बताती है कि जब मैं किसी सरकारी दफ़्तर में जाऊं तो सौ रुपय चपरासी को और हज़ार रुपय अफ़सर को ना देने पड़ें. राजनितिक पार्टियां अगर ’राजनैतिक’ पार्टियां होतीं तो वो ज़रूर समझतीं कि भाषण सुनने के लिए लोगों को पैसा देकर बुलाना ज़रूरी नहीं होता.
चौथी बात, जैसे हर मुसलमान उग्रवादी नहीं होता वैसे ही हर ब्राहमण गोल पेट वाला खाऊ इन्सान नहीं होता. जब हम स्त्रियों, मुसलमानों या दलितों के लिए किसी भी तरह के पुर्वाग्रहों का विरोध करते हैं तो उच्चजाति के लिए दीवार क्यूं नहीं तोड़ सकते. कुर्सी पर बैठने वाला किसी क्षेत्र और जाति का नहीं होता, वो बस अपनी जेबें भरना जानता है यही उसका मज़हब है.
पांचवी बात, किसी भी बड़े आंदोलन में एक नेता ज़रूर होता है. जिसे देख कर आम जन समूह आगे बढ़ सके. अन्ना और उनके सहयोगी इस बात को बखूबी जानते हैं. लोगों के बीच कोई भी फ़ैसला अन्ना के नाम से ही जाना चाहिए वो इस बात की बारीकी को समझते हैं, यहां ’पहले मैं’ की होड़ नहीं है. इतिहास के पन्नों पर नज़र दौड़ाएं तो पता चलेगा कि हर बड़े आन्दोलन के पीछे एक आवाज़ होती है जो उसे दिशा देती है. बिना आवाज़ के समूह का मतलब ही नहीं रह जाता.
ये बात भी सही है कि भ्रष्टाचार को खुद से मिटाने की ज़रूरत है तभी समाज से इसका खात्मा हो सकेगा लेकिन हम ये क्यूं भूल जाते हैं कि यहां आरटीआई के लिए काम करने वालों को गोली मारी जाती है, यहां अपनी ज़मीन के लिए लड़ने वाले किसानों की दिन-दहाड़े पिटाई होती है, यहां मंत्रियों की बड़ी-बड़ी मूर्तियां बनती हैं और आम इन्सान को सरकारी अस्पताल में इलाज के लिए रिश्वत देनी पड़ती है, पढ़ाई के लिए लोन मांगने पर बैंक मैनेजर को घूस खिलानी पड़ती है, यहां मिड-डे मील अफ़सर खा जाते हैं और सारी इमानदारी सड़कों के गढ्ढों में लुड़क जाती है. ऐसे में आप अकेले इमानदारी की मशाल कब तक जलाए रख सकते हैं. ज़रूरत है एक-जुट होने की नाकि एक दूसरे पर टूटने की.
किसी इन्सान की अच्छाई या बुरायी को कैसे आंका जाता है? उसके काम से, उसके पिछले कर्मों से या उसके सामाजिक जीवन की उप्लब्धियों से. रालेगांव सिद्धि की कामयाबी में अन्ना की लगन को लोग याद नहीं करना चाहते ना करें, 1990 में पद्मश्री और 1992 में पद्मभूषण पाने में भी गड़बड़ी देखते हैं तो भी ठीक है, उनके अनशनों के सबब आज तक 4 से 5 मंत्रियों को मंत्रीपद से हटाया जा चुका है वो भी लोग चाहें तो नकार सकते हैं. सूचना के अधिकार कानून में भी उनके योगदान को भुलाना चाहते हैं तो भुला दें. पर क्या मेग्सेसे पुरुस्कार पाने वाले, आरटीआई के मूवमेंट में अहम भूमिका निभाने वाले और टाटा स्टील में अपनी नौकरी छोड़ कर समाज के लिए काम करने वाले अरविन्द केजरीवाल को भी शक की नज़र से ही देखेंगे. या दिल्ली पुलिस में जान फूंकने वाली, सैंकड़ों पुरस्कार पाने वाली और हमेशा सही और सटीक बात कहने-करने वाली किरन बेदी को भी अगर शक्की निगाहों से देखेंगे तो बस एक ही बात कही जा सकती है. मेरी मां हमेशा कहती है ’जिसका खुद का इमान कमज़ोर होता है वो हर किसी पर शक करता है’.
Friday 19 August 2011
निम्नवर्गीय लाश की कीमत
तो आखिर लाश की क्या कीमत होती है. जब सांसें चली जाएँ तो शरीर की क्या एहमियत बचती है ? ख़ाक में मिल जाना या आग में जल जाना. लेकिन एक जिंदा शरीर, शोर मचाती साँसे किसी हादसे से लाश में बदल जाएँ तो उस लाश की कीमत तय की जा सकती है. दुनिया में कुछ भी हो सकता जो नियम ज़िन्दगी चलाने के लिए बने थे वो ज़िन्दगी के बाद भी इंसान को नहीं छोड़ते. जैसे ये एक नियम है कि इंसान के मरने के बाद उसे उसके धर्म अनुसार दफनाया या जलाया जाएगा. ये भी एक नियम है कि उसको श्रधांजलि दी जायेगी. ठीक वैसे ही ये भी एक नियम है कि अगर कोई इंसान किसी दुसरे की लापरवाही या गलती से परलोक सिधार जाये तो उसके घरवालों को मुआवजा दिया जाए. इसीलिए सरकार ट्रेन हो या प्लेन, मारे जाने वालों को मुआवजा देने का ऐलान करती है. लोअर कोर्ट, हाई कोर्ट या सुप्रीम कोर्ट आदेश देता है कि हंसती खिलखिलाती ज़िन्दगी से मौत के कुएं में जाने वालों के करीबियों को क्या कीमत दी जाए. पिछले दिनों छपरा-मथुरा एक्सप्रेस हादसे में तकरीबन 50 लोग मारे गए और मारे जाने वालों के रिश्तेदारों को 2 लाख रूपए मुआवजा दिए जाने का ऐलान किया गया. इसके अलावा हालही में हुए मुंबई सीरियल ब्लास्ट में मारे गए 20 लोगों की मौत की कीमत पांच लाख लगी.
ट्रेन हादसे में मारे जाने वाले माध्यम वर्गीय होते हैं, स्लीपर क्लास में सोये लोगों की जेबें भी अक्सर सोती ही रहती हैं. वहीँ जनरल डिब्बे में एक टांग पर खड़े रहने वाले अपनी ज़िन्दगी में इतने धक्के और लातें खा चुके होते हैं कि डिब्बे की बदबू और गन्दगी उनके लिए कोई मायने ही नहीं रखती. वहीँ प्लेन में सफ़र करने वाले एक ख़ास तबके के लोग होते हैं. ये या तो रईस हैं या फिर कम से कम अमीरी की तरफ कदम बढाते उच्च माध्यम वर्गीय हैं. जान की कीमत उनके सफ़र करने के माध्यम पर निर्भर है. अगर किसी की जान इसलिए जाती है क्यूंकि रेल पटरी उखड़ी हुई थी या सरकारी यंत्रों में अचानक गड़बड़ी हो गयी या फिर मानवीय भूल की वजह से हुई. तो सरकार ज़िम्मेदारी लेते हुए मुआवज़े की रकम घोषित करती है. ठीक वैसे ही ख़राब सड़कों या ड्राइवर की गलती की वजह से जान जाए तब भी मौत के मुंह में पैसे भरे जाते हैं. बाज़ारों में होने वाले ब्लास्ट में जब कोई औरत साड़ी खरीदते हुए, कोई आदमी चाट-पकोड़ी खाते हुए, कोई बच्चा बर्फ का गोला खाने की चाह रखते हुए चार टुकड़ों में बिखर जाता है तब सरकार 2 या 5 लाख के मुआवज़े से अपनी ज़िम्मेदारी पूरी करती है. वहीँ जब उच्च वर्गीय हिन्दुस्तानी प्लेन से सफ़र करते हुए मरते हैं तो मुआवज़ा उनका ‘लाइफ स्टेंडर्ड’ तय करता है.
असल में किसी को कितना मुआवज़ा मिलेगा इसके लिए एक फॉर्मेट तय होता है जैसे मरने वाले की कितनी तनख्वाह थी, कैसा बिज़नस था. मरने वाले की आय या हैसियत के हिसाब से ही उसके परिवार वालों को देने वाली राशि तय की जाती है. लेकिन अगर किसी माँ का हर महीने 5 हज़ार कमाने वाला बेटा मारा गया तो क्या गेरेंटी है कि वो ज़िन्दगी भर 5 हज़ार ही कमाता. या अगर किसी औरत का पति मजदूर है और वो 2 हज़ार महीना ही कमाता था तो ये बात कैसे मान ली जाए कि वो ज़िन्दगी भर मजदूरी ही करता. क्या पता वो एक दिन अपना काम शुरू करता, तरक्की पाता और एक बड़ा नाम बन जाता. ज़िन्दगी उम्मीदों और संभावनाओं से भरी होती है, यहाँ तो कभी भी कोई भी आसमान छू सकता है. पर कई बार सुरक्षा एजेंसियों के सोने की वजह से तो कभी सरकार के अंगड़ाइयां लेने की वजह से ना जाने कितनी ही संभावनाएं भस्म हो जाती हैं. तो क्या उन मौकों की कोई कीमत नहीं जो शायद उस मजदूर को 2 दिन बाद ही मिल सकता था या उस बेटे की संभावनाओं की कोई अहमियत नहीं जो एक हफ्ते बाद ही प्रमोशन पाने वाला था. मरने वाले छात्र के अगले महीने होने वाली आईएएस परीक्षाओं में टॉप करने की संभावना की भी कोई जगह नहीं.
इस देश में क्रिकेट विश्वकप जीत कर लाने पर खिलाड़ियों के ऊपर पैसों और तोहफों की बारिश होने लगती है. कोई राज्य सरकार 50 लाख देती है तो कोई 1 करोड़. किसी को शानदार गाडी भेंट की जाती है तो किसी को महंगा फ्लेट. केंद्र सरकार, राज्य सरकार, नेशनल पार्टियां हों या राज्य पार्टियाँ सभी के बीच जैसे बड़ी से बड़ी रकम इनाम में देने की होड़ लग जाती है. ऐसी कोई भी जल्दबाज़ी या जज़्बा कभी किसी दुर्घटना के बाद मरने वालों के परिवारों या घायलों के प्रति नहीं दिखाया जाता. जब एक पहले से ही बेहद अमीर खिलाड़ी को 1 करोड़ का इनाम देकर हौसला अफजाई की जा सकती है तो एक गरीब आदमी की मौत पर उसके परिवार का भविष्य सुधारने के लिए कोई सरकार आगे क्यूँ नहीं बढ़ती. वैसे ही रेल मंत्रालय किसी बॉक्सर, तीरंदाज़ के सिल्वर या गोल्ड मेडल जीतने पर, या क्रिकेटर के मन ऑफ़ द मैच जीतने पर उसे ज़िन्दगी भर के मुफ्त रेल पास भेंट करता है. जबकि जो लोग वाकई इसे इस्तमाल कर सकते हैं उन्हें सहानुभूती के तौर पर ऐसा कुछ भी उपलब्ध नहीं करवाया जाता.
मुंबई में पोश इलाकों से गुजरने वाली लोकल ट्रेन साफ़ सुथरी और आकर्षक होती हैं वहीँ गरीबों की बस्तियों या माध्यम वर्गियों के हिस्से आती है बदबू करतो मैली कुचैली लोकल ट्रेन. असल में गरीबों के हक को मार के अमीरों के शौक पूरे किये जाते हैं. बिलकुल सच है ‘वो क़त्ल भी करते हैं तो चर्चा नहीं होता'.Tuesday 16 August 2011
राष्ट्रप्रेम या ‘राज’ प्रेम
मुंबई में सिनेमा घरों में फिल्म से पहले राष्ट्रगान बजाना अनिवार्य है. कई साल पहले मुंबई के सिनेमा थियेटर फिल्म के खत्म होने के बाद राष्ट्रगान चलाते थे मगर लोग देश भक्ति की भावना से गदगद होकर रुक कर खड़े होने की जगह थियेटर से बाहर जाने में ज्यादा दिलचस्पी लेते थे. ऐसे में राज्य सरकार को इस प्रथा को खत्म करना पड़ा. 2003 में नैशनल यूथ कॉंग्रेस ने मांग की थी कि सिनेमा थियेटरों में फिर से राष्ट्रगान चलाया जाये, कहना ये था कि अगर ज्यादा से ज्यादा लोग राष्ट्रगान सुनेंगे और एक साथ खड़े होकर देशभक्ति का सुबूत देंगे तो ये देश के लिए अच्छा होगा. इस बार लोगों को खड़े रखने का ये तरीका निकाला गया कि राष्ट्रगान को फिल्म के बाद चलाने की बजाय फिल्म से ठीक पहले चलाया जाए.
हो सकता है ‘मर्डर’, ‘जिस्म’, ‘हवस’, या फिर ‘बुड्ढा होगा तेरा बाप’, ‘मस्ती’ या ‘दबंग’ जैसी फिल्मों को देखने से पहले देशभक्ति का सुबूत देना ज़रूरी हो. ये भी हो सकता है कि मज़े से गप्पे मारते हुए लोगों का राष्ट्रगान शुरू होने पर मुह बिगाड़ कर खड़े हो जाना और खत्म होते ही फटाक से अपनी सीट पर फिर जम जाना देश के हित में हो. पर देशभक्ति का ये जज़्बा फ़िल्म देखने से पहले या बाद में ही दिखाना क्यूँ ज़रूरी है. क्या ऐसा ही कोई नियम लोक सभा या राज्य सभा के सत्रों के वक़्त नहीं होना चाहिए ताकि सफ़ेद कुर्तों में चमक रहे नेताओं को गाली गलोज करते वक़्त थोड़ी झिझक हो. या फिर राष्ट्र के हित वाले बिल रोकते हुए और अपने फायदे वाले बिल पास करते वक़्त शायद थोड़ी शर्म आए. इंटरटेनमेंट टैक्स भर कर फिल्म देखने जाने वाले लोगों का इस भावना को समझना ज्यादा ज़रूरी है या सरकारी गाड़ी में घूमने, सरकारी क्वाटरों में रहने, सरकारी संपत्ति को संभालने वालों को देश भक्ति की भावना को समझना ज्यादा ज़रूरी है.
राष्ट्रगान के इर्द गिर्द कई सवाल और बहस डोलते रहे हैं पर इन सवालों को समझते हुए भी भावना सही-गलत के ऊपर चढ़ ही जाती है. कई दफा बचपन की सीख को नकारने का जी चाहता है, कई दफा सोचा कि राष्ट्र गान के लिए खड़े होने से कौन सा फर्क आ जाएगा. ये दिखावा किस लिए और क्यूँ, क्या बस इसलिए कि प्रथा है. फिर बात ये आती है कि अगर प्रथा है तो प्रथाओं की कब सुनी है जो यहाँ ज़रूरी है. तो राष्ट्रगान सुन कर खड़े हो जाना ज़रूरी नहीं इसलिए हो क्यूंकि मन में सम्मान है बल्कि ये इसलिए भी हो सकता है कि आसपास खड़े लोग क्या कहेंगे. अजीब नज़रों से देखेंगे, धिक्कारेंगे कि तुम्हें अपने देश से प्यार नहीं. अगर कोई बुज़ुर्ग खड़े हों तो आपको भी खड़ा होना ही पड़ेगा वरना वो कहेंगे ज़रा भी शर्म नहीं है. 15 अगस्त पर झूमना हर जगह तिरंगे का फहराना जैसे एक दिन का जोश होता है वैसे ही राष्ट्रप्रेम और राष्ट्रसम्मान भी 52 सेकेंड का ही होता है. उसके बाद लोग चैन की सांस लेते हैं ठीक वैसे ही जैसे अज़ान खत्म होते ही इस्लामिक घरों में टीवी की आवाज़ फिर बढ़ा दी जाती है.
तो अगर हमें अपने देश से इतना ही प्यार है तो हम कैसे बसों की सीटें ब्लेड से मज़ाक मज़ाक में काटते चले जाते हैं. कैसे सड़क किनारे रखे गमलों को अपनी शानदार गाड़ी से ठोकर मार कर गिरा देते हैं, कैसे बेशर्मी से बैग से निकाल कर बिस्किट और चिप्स के पाकेट बीच सड़क पर फ़ेंक देते हैं. इसके बावजूद देश भक्ति का सुबूत देते हुए सीना चौड़ा करके राष्ट्र गान तेज़ तेज़ गाते हैं. ये कुछ कुछ वैसा ही है जैसे कोई पति अकेले में तो अपनी पत्नी को रोज़ पीटता हो पर चार लोगों के सामने उसी बेचारी से खुशमिजाजी से बातें करे.
अभी तक राष्ट्रगान की ये ‘देश भक्त ज़बरदस्ती’ सिर्फ मुंबई में है पर एनसीपी के नेताओं ने वक़्त वक़्त पर ये फैसला पूरे भारत पर लागू करने की बात कही है. हो सकता है ऐसा करना भाईचारे की भावना पैदा करता हो पर यही राष्ट्रगान समय-समय पर भाईचारे को बिगाड़ता भी दिखा है. 1985 में केरल में एक स्कूल ने अपने कुछ छात्रों को स्कूल से इसलिए निकाल दिया था क्यूंकि उन्होंने राष्ट्रगान गाने से मना कर दिया था, वो बच्चे ‘जहोवा विटनेसस’ थे जिन्हें धार्मिक रीति रिवाज के तहत किसी भी देश के राष्ट्रगान को गाने या झंडे को सलाम करने से मनाही है. उस वक़्त कई राजनीतिक पार्टियों ने इसे मुद्दा बना कर राजनीति की थी. बाद में सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुना कर उन बच्चों को वापस स्कूल में दाखिल करवा दिया था.
बेहतर हो अगर हम अपने बच्चों को राष्ट्रगान रटवाने या सिनेमा घरों में एकता बढ़ाने को मुद्दा बनाने की बजाय एड्स, टीबी, तम्बाकू. यौन शिक्षा, छुआछूत या ईव-टीजिंग जैसे मुद्दों को एहमियत दें.
Friday 29 July 2011
इफ़ आई वर अ बॉय / अगर मैं लड़का होती
ये लफ़्ज़ किसी स्त्रीविमर्श वाली किताब के नहीं हैं. ना ही ये किसी ऐसी लेखिका के हैं जिन पर कुछ विवादस्पद लिख कर ज़बर्दस्ती लाइमलाइट में आने के आरोप लगते हों. ये लफ़्ज़ एक गीत के हैं, और कोई हिन्दी गाना नहीं बल्कि मशहूर पॉप गायिका ’बियॉन्से’ के एल्बम का गीत ’इफ़ आई वर अ बॉय’. मतलब ये कि खूब तरक़्की करते मुल्क, खुद को प्रगतिवादी मानते, स्त्री को समान अधिकार और आज़ादी देने की बात करने वाले मुल्कों में कोई गायिका ये गाती है “अगर मैं लड़का होती तो ज़िन्दगी अपने हिसाब से जीती”. स्त्री की आज़ादी को मॉड्र्न कपड़ों से जोड़ने वालों के लिये ये गीत एक सवाल है. ये सवाल कोई नया नहीं वही घिसा-पिटा पुराना सवाल है, आज़ादी असल में क्या है? जो कोई खुद तय करके मेरे हाथ में थमा दे कि लो तुम पढ़ो, लिखो, घूमो, अपनी मर्ज़ी के अनुसार कपड़े पहनो पर हां रात 10 बजे तक घर आ जाना. या फिर ये कि जाओ मैंने तुम्हें आज़ादी दी अपने अनुसार जीने की लेकिन मेरे अलावा किसी और के साथ तुम डांस नहीं करोगी. बात घुमा-फिरा कर वही है, मेरे लिये कोई कुछ तय ही क्युं करेगा ? क्या मैं बालिग नहीं, क्या मैं ज़िन्दगी में गलतियां करके खुद कुछ सीखने का हक नहीं रखती ? क्या ये ज़रूरी है कि मैं किसी से अपने अधिकार मांगती चलूं ? क्या मैं खुद अपने अधिकार अपने पास नहीं रख सकती ?
असल में औरत की आज़ादी मर्द की ग़ुलाम होती है, औरत की आज़ादी की किस्में, सतहें और शर्तें कोई तय करता है. आस-पास मौजूद बेहद प्रगतिशील जोड़ों पर अगर नज़र डालें तो दिखेगा किसकी परत कहां तक है. कोई अपनी मर्ज़ी के मुताबिक़ कपड़े पहन सकती है मगर ससुराल वालों के आगे उसे साड़ी ही पहननी है, तर्क ये कि “मुझे तो कोई परेशानी नहीं पर मेरे माता-पिता को अच्छा नहीं लगेगा कि उनकी बहु वेस्टर्न कपड़े पहने” जॉब करती महिला के पति का घर के कामकाज में हाथ ना बंटाना तो नॉर्मल है. इसके अलावा प्रेम-विवाह (जो अपने आप में प्रगतिवादी होने चाहिये) वहां भी दोयम दर्जे की आज़ादी का कॉन्सेप्ट दिखता है. शादी इन्टर कास्ट हो तो लड़की अपने जीने के तौर तरीके बदले और अगर ये इन्टर रिलिजन शादी है तब तो अपना धर्म, अपना नाम, अपने खान-पान के तरीक़ों को भी बदलना पड़ेगा. जिस नाम को पुकार पुकार कर प्रेम किया उसे एक झटके में बदल डाला जाता है. पहचान ही बदल दी और खुद को आधुनिक प्रेमी कहते हैं. ये सब कुछ बेशक किसी लड़के को नहीं करना पड़ता. कहते हैं प्रेम में खुद को मिटाना पड़ता है, अब ये बात अपनी शख्सियत को मिटा कर प्रेमी की ज़िन्दगी में पांव रखने वाली लड़की से ज़्यादा कौन समझेगा.
खैर, बियॉन्से के इस गीत में कुछ पंक्तियां और जोड़ी जा सकती हैं. अगर मैं लड़का होती तो अपने नाम को शान से सारी ज़िन्दगी अपनी साथ रखती, मुझे किसी रिश्ते को बनाने के लिये पुराने रिश्तों से मुहं ना मोड़ना पड़ता. मेरी तरक़्की को लोग तिरछी निगाहों से ना देखते, मेरी वाह-वाही पर कोई तन्ज़ ना मारता, तोहमत ना लगाता. मैं बारिश में बीच सड़क पर जी भर के भीग सकती, कोई घूर-घूर कर देखता नहीं. अगर मैं लड़का होती तो बेशक गर्मी के मौसम में भी दुपट्टा ना ओढ़े रहती. मौसम के अनुसार छोटे-बड़े कपड़े पहनती. अगर मैं लड़का होती तो शादी के लिये मेरा गोरा रंग होना ज़रूरी ना होता. मैं फ़ेशन करती तो नकचढ़ी और फ़ेशन ना करती तो ’बहनजी’ ना कहलाई जाती.
कुछ ऐसे सवाल भी खड़े होते हैं जिनके पूछने पर लड़कियों को ये सुनना पड़ता है ’अपनी हद में रहो’ या फिर ’हे भगवान, तू फिर शुरु हो गयी’. ये सवाल कुछ यूं हैं, मैं क्यूं अपनी आज़ादी बार-बार किसी और से मांगने जाती हूं. क्यूं सिर्फ़ सज-संवर कर खुद को गहने से लाद कर ही संतुष्ट हो जाती हूं. क्यूं नहीं मुझ में आग जलती क्यूं नहीं मैं घर के सारे परदे जला डालती. एशियाई देश हों, अरब मुल्क या फिर वेस्टर्न कन्ट्रीज़ मेरे अस्तित्व को लेकर हर जगह क्यूं मुझे झगड़ना ही पड़ता है, रिश्तों से निकलना ही पड़ता है. और क्यूं आदमी के लिये मेरी मोहब्बत आज़ादी की आबो-हवा में पहुंचते ही खांसना शुरु कर देती है.
ज़ाहिर सी बात है अगर वो लड़का होतीं तो ना तो ऐसे सवाल करतीं और ना ही गुनगुनाती ‘इफ़ आई वर अ बॉय’.
Sunday 17 July 2011
तवायफ़ की इज़्ज़त
खैर, फ़रहा खान बॉलीवुड की गिनीचुनी महिला निर्देशकों में से एक हैं. उनकी बनायी फ़िल्में हिस्सों में मज़ेदार होती हैं, यानी कोई सीन बेतरह लोट-पोट कर देगा तो कोई खुद के बाल नोचने पर मजबूर करेगा. यही फ़रहा खान एक बार एक अवार्ड फ़ंकशन में फ़िल्ममेकर आशुतोश गोवारेकर से इसलिये भिड़ गयी थीं क्युंकि उन्होंने फ़रहा को स्टेज पर सबके सामने ’शट-अप’ कह दिया था. खुद के लिये ’शट-अप’ लफ़्ज़ इस्तेमाल किये जाने पर बेज़्ज़ती महसूस करने वाली निर्देशक तवायफ़ के अस्तित्व को हंसी में उड़ाती हैं. ज़ाहिर सी बात है वो ठहरीं इज़्ज़तदार औरत जो तीन बच्चों की मां है, साथ ही अपने काम में इतनी माहिर कि 'शीला की जवानी' आइटम नंबर को रिलीज़ से पहले ही हिट करवा दें. तवायफ़ का क्या है वो तो छोटी-छोटी जालियों से झांकने वाली औरत है, जिसका कोई पति नहीं, जिसके बच्चे पढ़ लिख नहीं पाते और जो ख़्वाबों को बिना ’बीप’ वाली गाली लम्बी सी देती है. वो गहरे रंग के चमकीले कपड़े तो पहनती है पर उसके पास रंगबिरंगी उमंगे नहीं होतीं. एक बात फिर भी कॉमन है, उसके पेशे में भी दूसरों के कपड़े उतारे जाते हैं फ़र्क इतना है निर्देशक ये ७०एमएम की स्क्रीन पर करते हैं और तवायफ़ बन्द कमरे में. फ़िल्म के किसी सीन को जब अश्लील बताया जाता है तो इज़्ज़तदार फ़िल्ममेकर उसे ’एस्थेटिक’ कहते हैं. इज़्ज़तदार अभिनेत्री की ’न्युड’ फोटो इज़्ज़तदार मेगज़ीन के पहले पन्ने पर छप कर सेल्स बढ़ाती है. इस तसवीर को इज़्ज़तदार फोटोअग्राफ़र ’आर्ट’ कहता है. सेक्स को जीवन का हिस्सा बताने वाले, 'आर्गुमेन्टेटिव कामासूत्र' किताब को हाथ में थामे लोग तवायफ़ लफ़्ज़ पर तंज़िया मुसकान बिखेरते हैं. तथाकथित प्रगतिवादी मानते हैं कि सेक्स के बिना समाज नहीं है लेकिन सेक्स-वर्कर समाज का हिस्सा नहीं है.
हां तो अक्षय कुमार जिस इज़्ज़त को लुटने से बचाने को बेकार बताते हैं उसका वाकई कोई भरोसा नहीं. ये कभी भी कहीं भी जा सकती है, कुछ की गाली-गलोज से चली जाती है. कुछ की थप्प्ड़ पड़ने से चली जाती है, बहुतों की शादी टूटने से चली जाती है. बच्चों के परीक्षा में फ़ेल होने से माता-पिता की इज़्ज़त चली जाती है तो माता-पिता के अनपढ़ होने से बच्चों की दोस्तों में चली जाती है. बेटी के घर से भागने पर भी इज़्ज़त जाती है और दहेज ना मिलने पर खुद बेटी की ससुराल में चली जाती है. दोस्त को जन्मदिन पर महंगा तोहफ़ा ना दे पाने के कारण अकसर ही जाती है. यहां तक की पड़ोसी अगर अपने यहां हो रही दावत में ना बुलायें तो भी ये इज़्ज़त बेज़्ज़ती में बदल जाती है. आम तौर पर इज़्ज़त जाती है या बेज़्ज़ती होती है पर इज़्ज़त लुटती तभी है जब किसी का ’रेप’ हो जाये. वैसे ’रेप’ का मतलब होता है किसी के साथ ज़ोर ज़बरदस्ती कर शारीरिक सम्बंध बनाना. ’तीस मार खां’ के निर्माताओं को तवायफ़ की इज़्ज़त बचाना इसलिये बेकार लगता है क्युंकि वो सेक्स के लिये पैसे चार्ज करती है. वो अनछुई नहीं है साथ ही उसका कोई पति भी नहीं है. तो तवायफ़ का ’रेप’ तो हो सकता है पर उसकी इज़्ज़्त नहीं लुट सकती.
कुछ दिन पहले मैत्री पुष्प का एक उपन्यास पढ़ा ’गुनाह-बेगुनाह’ जिसमें एक वैश्या पुलिस थाने में रिमांड के दौरान बताती है कि वो जब १३ साल की थी तो अपने माता-पिता के साथ रहती थी. एक दिन उसकी मां ने उसे अपने पास बुला कर समझाया “बेटी अब तू बड़ी हो गयी है सो घर से बाहर निकलना, लड़कों के साथ खेल-कूद बंद कर. कहीं कोई ऊंच-नीच हो गयी तो तेरे पिता कहीं मुहं दिखाने लायक नहीं रहेंगे, उनकी इज़्ज़त लुट जायेगी.” कुछ रोज़ बाद जब वो घर में अकेली थी तो खुद उसके पिता ने उसका बलात्कार किया. जब उसने अपनी मां को बताया तो घर पर खूब बवाल हुआ. आखिरकार मां उसके पास आयी और बोली “बेटी ये बात किसी को नहीं बताना वरना तेरे पिता कहीं मुहं दिखाने लायक नहीं रहेंगे, उनकी इज़्ज़त चली जायेगी’. शायद इज़्ज़त चली जाने और इज़्ज़त लुट जाने में यही फ़र्क होता है.
Wednesday 6 July 2011
चाहती हूं सीधी होना
Monday 2 May 2011
मौत के बाद...
क्या फर्क पड़ा,
इमारतें गिराईं, बुनियादें हिलाईं
दूध-बारूद घोल बच्चों
को पिलाईं...
तुम्हारी शुरुआत ने हमें देखो कहाँ पहुँचाया,
तुम बैठे थे
आलिशान महल में,
हमें नसीब नहीं होती
नए शहर में नयी पनाहगाह..
तो अब जब मिल गया है तुम्हें
परमानेंट ठिकाना,
तो एक विडिओ टेप ज़रूए भिजवाना...
कहाँ गए तुम, कहाँ जा पाए
अपने जिहाद से क्या
जन्नत पा पाए,
खबर देना हमें कि
ऊपर बारूद है क्या,
गर नहीं तो दोज़ख में
तेज़ाब है क्या...
जन्नत पहुंचे
तो बताना हूरे असल में कैसी हैं,
क्या अलिफ़ लैला जैसी
अरबी पौशाक पहनती हैं या
लंबा सा नकाब ओढ़ती हैं...
जिस शरबत का कुरान में जिक्र है
बताना क्या वो शराब है...
बता सको तो ये भी बताना
कि हिटलर का दरवाज़ा कौन सा है,
क्या महात्मा को वहां भी लाठी की जगह
हूरें नसीब हैं,
कहना ये भी कि सद्दाम सुन्नियों की जन्नत में गया
या वहां शियाओं का राज है...
बुद्ध भगवान् हैं या आम इंसान है इसकी खबर देना
ओशो और साईं क्या पडोसी है ...
सबकी खबर लेना...
क्यूंकि
कैसे जीए कैसे मरे
क्या फर्क पड़ा
ज़िन्दगी को पकड़ने की
कोशिश करते हुए,
तुम भी गए तड़पते हुए
जैसे सभी गए मौत से लड़ते हुए...
Saturday 23 April 2011
धूप सहती छांव
शादी की अगली सुबह
लोगों की नज़रों से
कैसे शर्माई थी तू,
मां मैंने कभी जाना नहीं
मुझे गर्भ में
पा कर क्या घबरायी थी तू,
मैंने कभी समझा नहीं
पिता ने जब गुस्से में
तुझ पर हाथ उठाया
तो कैसे थराई थी तू...
मां मैंने कभी तेरा हाथ
थाम कर सवाल ना किया,
क्या पिता से पहले भी
तुझे किसी ने छुआ...
मां मेरे लिये तू जब भी
कुछ खरीद लाती है तेरी आखें
रौशन होती हैं,
पर क्यूं खुद के लिये तुझ में
सारा जोश है धुआं…
मां तू हौसले से क्यूं नहीं भरती,
कभी बस खुद के लिये
कोई राह क्यूं नहीं चुनती...
मां मैं तेरी छांव में थी
पर दूर रही,
तेरी बेटी तो बनी
पर सहेली ना हुई …
Saturday 19 February 2011
7 'भूल' माफ़ !!!
Strength– धुन और धार. संगीत किसी भी फ़िल्म का साथी होता है अगर अच्छा हो तो सफ़र को खुशनुमा बनाता है वरना अच्छे खासे रास्ते को भी झिलाऊ कर देता है. विशाल की पहचान फ़िल्म के हर गीत पर है यहां तक की रॉक गीत ’दिल-दिल है’ पर भी. विशाल संगीत से खेलना जानते हैं वो आपके जज़्बातों को ’डार्लिंग’ पर नचायेंगे और ’बेकरां’ पर रुमानियत से भर देंगे. कहानी चाहे बेहद सुलझी हुई हो या फिर घुमावदार, मायने रखता है उसका treatment. चौंकाने वाली शुरुआत के बाद अगर दर्शक अगले २० मिनट को माफ़ कर सकें तो ’सात खून माफ़’ धार पकड़ लेती है. जैसे-जैसे आगे बढ़ते हैं धार तेज़ होती रहती है. दर्शक अपने अंदाज़े लगाता रहेगा और कहानी कभी उसकी समझ के अनुसार और कभी समझ के विपरीत चलेगी. ’स्क्रीनप्ले’ अपनी नोक के साथ चुभन गहरी करता रहेगा.
Loopholes-
1. Expectations - बॉलीवुड में hype create की जाती है, फ़िल्मस्टार फ़िल्म का नाम दर्शक की ज़ुबान पर चढ़ाने के लिये कभी मॉल में लोगों के बाल काटते हैं तो कभी प्रेम की अफ़वाहें उड़ाते हैं. मगर ज़रूरी नहीं कि हर बार ये उत्तेजना फ़ायदेमंद ही साबित हो जैसा कि ’सात खून माफ़’ के साथ हुआ है. विशाल की पिछली फ़िल्में और उनसे जुड़ी कामयाबी ने ’सात खून माफ़’ को रिलीज़ से पहले ही उम्मीदों की नाव पर चढ़ा दिया. ऐसे में ज़रा भी कम-ज़्यादा हुआ नहीं कि ’बैलेंस’ बिगड़ा.
2. Women-oriented - जिसे भारतीय दर्शक पैसा खर्च कर के नहीं देखना चाहता
3. Pace – कहीं कहीं धीला पड़ता हुआ
4. World Cup – क्रिकेट वर्ल्ड कप शुरु होने को है और आप इस वक्त फ़िल्म रिलीज़ कर रहे हैं
5. Black humour – तथाकहित मल्टीप्लेक्स दर्शक भी मुश्किल से समझता है
6. Make-up – 20 साल की या 50 साल की प्रियंका में कोई खास फ़र्क नहीं. बस विग बदलने और make-up हटाने से काम नहीं चलता
7. Climax – इतने बवाल के बाद इतना फ़िल्मी, मज़ा नहीं आया
Hit Or Flop - अगर फ़िल्म के ’हिट’ होने का मतलब अपना पैसा recover करके थोड़ी बहुत कमाई करना होता है तो ’हां’ ये चलेगी. पर अगर ’हिट’ का मतलब distributers को मालामाल करना और बॉक्स-ऑफ़िस कलेक्शन में कोई रिकोर्ड बनाना होता है तो ’सात खून माफ़’ नहीं चलने वाली.
Story- बॉलीवुड में फ़िलहाल प्रियंका ही ऐसी अभिनेत्री हैं जिन्हें लीड में रख कर कहानी बुनी जा सकती है. कमाल की एक्टिंग, डायलॉग डिलीवरी और स्क्रीन प्रेज़ेन्स. विवान शाह का narration, उनकी आवाज़, उनका अभिनय नसीरुदीन शाह की विरासत को आगे बढा़ते हुए. एक लड़की जिसका नाम है ’सुसेना एना-मैरी जोहेनस’, जितना लंबा नाम ज़िन्दगी जीने की उमंग उससे कहीं लंबी. अपने नौकरों के साथ रहती है बल्कि वही उसका परिवार भी हैं. वो बड़ा दिल रखती है, हिम्मत वाली है और प्यार में यकीन करती है. उसे प्यार में धोखा मिलता है, शक्की पति से वास्ता पड़ता है, बेरहम साथी के जड़े थप्प्ड़ चहरे पर निशान देते हैं पर वो हर बार उठती है और एक नये रिश्ते को मौका देती है. वो किसी अपराध-बोध में नहीं जीती बल्कि अपनी नाकामयाब शादियों और उनके परिणामों से मज़बूत होती जाती है. वो पागल नहीं है उसकी परेशानी ये है कि वो ज़ुल्म बर्दाश्त नहीं कर सकती. जो उसकी ज़िन्दगी को नर्क बनाने की ओर ले जायेगा वो उसे खत्म कर देगी. उसके एक नौकर के अनुसार ’मदाम रास्ता नहीं बदलतीं वो कुत्तों को मार देती हैं’. विशाल भारद्वाज की फ़िल्में आपके ज़हन को भारी कर देती हैं दिल में खलिश पैदा करती हैं, ’सात खून माफ़’ इस कसौटी पर तो पूरी उतरती है. एक और चीज़ जो विशाल के सिनेमा की पहचान है वो है ’नारीवाद’. यहां वो भी भरपूर है. छोटे से किरदार का भी कमाल का अभिनय हो या फिर मज़ेदार डीटेलिंग जैसे टीवी पर चलती खबर के तहत time-frame समझाना. विशाल भारद्वाज की ’सात खून माफ़’ भले ही ’मक्बूल’ या ’ओंकारा’ जैसी ना हों पर ये बेशक ’विशाल छाप’ है.