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मुंबई में सिनेमा घरों में फिल्म से पहले राष्ट्रगान बजाना अनिवार्य है. कई साल पहले मुंबई के सिनेमा थियेटर फिल्म के खत्म होने के बाद राष्ट्रगान चलाते थे मगर लोग देश भक्ति की भावना से गदगद होकर रुक कर खड़े होने की जगह थियेटर से बाहर जाने में ज्यादा दिलचस्पी लेते थे. ऐसे में राज्य सरकार को इस प्रथा को खत्म करना पड़ा. 2003 में नैशनल यूथ कॉंग्रेस ने मांग की थी कि सिनेमा थियेटरों में फिर से राष्ट्रगान चलाया जाये, कहना ये था कि अगर ज्यादा से ज्यादा लोग राष्ट्रगान सुनेंगे और एक साथ खड़े होकर देशभक्ति का सुबूत देंगे तो ये देश के लिए अच्छा होगा. इस बार लोगों को खड़े रखने का ये तरीका निकाला गया कि राष्ट्रगान को फिल्म के बाद चलाने की बजाय फिल्म से ठीक पहले चलाया जाए.
हो सकता है ‘मर्डर’, ‘जिस्म’, ‘हवस’, या फिर ‘बुड्ढा होगा तेरा बाप’, ‘मस्ती’ या ‘दबंग’ जैसी फिल्मों को देखने से पहले देशभक्ति का सुबूत देना ज़रूरी हो. ये भी हो सकता है कि मज़े से गप्पे मारते हुए लोगों का राष्ट्रगान शुरू होने पर मुह बिगाड़ कर खड़े हो जाना और खत्म होते ही फटाक से अपनी सीट पर फिर जम जाना देश के हित में हो. पर देशभक्ति का ये जज़्बा फ़िल्म देखने से पहले या बाद में ही दिखाना क्यूँ ज़रूरी है. क्या ऐसा ही कोई नियम लोक सभा या राज्य सभा के सत्रों के वक़्त नहीं होना चाहिए ताकि सफ़ेद कुर्तों में चमक रहे नेताओं को गाली गलोज करते वक़्त थोड़ी झिझक हो. या फिर राष्ट्र के हित वाले बिल रोकते हुए और अपने फायदे वाले बिल पास करते वक़्त शायद थोड़ी शर्म आए. इंटरटेनमेंट टैक्स भर कर फिल्म देखने जाने वाले लोगों का इस भावना को समझना ज्यादा ज़रूरी है या सरकारी गाड़ी में घूमने, सरकारी क्वाटरों में रहने, सरकारी संपत्ति को संभालने वालों को देश भक्ति की भावना को समझना ज्यादा ज़रूरी है.
राष्ट्रगान के इर्द गिर्द कई सवाल और बहस डोलते रहे हैं पर इन सवालों को समझते हुए भी भावना सही-गलत के ऊपर चढ़ ही जाती है. कई दफा बचपन की सीख को नकारने का जी चाहता है, कई दफा सोचा कि राष्ट्र गान के लिए खड़े होने से कौन सा फर्क आ जाएगा. ये दिखावा किस लिए और क्यूँ, क्या बस इसलिए कि प्रथा है. फिर बात ये आती है कि अगर प्रथा है तो प्रथाओं की कब सुनी है जो यहाँ ज़रूरी है. तो राष्ट्रगान सुन कर खड़े हो जाना ज़रूरी नहीं इसलिए हो क्यूंकि मन में सम्मान है बल्कि ये इसलिए भी हो सकता है कि आसपास खड़े लोग क्या कहेंगे. अजीब नज़रों से देखेंगे, धिक्कारेंगे कि तुम्हें अपने देश से प्यार नहीं. अगर कोई बुज़ुर्ग खड़े हों तो आपको भी खड़ा होना ही पड़ेगा वरना वो कहेंगे ज़रा भी शर्म नहीं है. 15 अगस्त पर झूमना हर जगह तिरंगे का फहराना जैसे एक दिन का जोश होता है वैसे ही राष्ट्रप्रेम और राष्ट्रसम्मान भी 52 सेकेंड का ही होता है. उसके बाद लोग चैन की सांस लेते हैं ठीक वैसे ही जैसे अज़ान खत्म होते ही इस्लामिक घरों में टीवी की आवाज़ फिर बढ़ा दी जाती है.
तो अगर हमें अपने देश से इतना ही प्यार है तो हम कैसे बसों की सीटें ब्लेड से मज़ाक मज़ाक में काटते चले जाते हैं. कैसे सड़क किनारे रखे गमलों को अपनी शानदार गाड़ी से ठोकर मार कर गिरा देते हैं, कैसे बेशर्मी से बैग से निकाल कर बिस्किट और चिप्स के पाकेट बीच सड़क पर फ़ेंक देते हैं. इसके बावजूद देश भक्ति का सुबूत देते हुए सीना चौड़ा करके राष्ट्र गान तेज़ तेज़ गाते हैं. ये कुछ कुछ वैसा ही है जैसे कोई पति अकेले में तो अपनी पत्नी को रोज़ पीटता हो पर चार लोगों के सामने उसी बेचारी से खुशमिजाजी से बातें करे.
अभी तक राष्ट्रगान की ये ‘देश भक्त ज़बरदस्ती’ सिर्फ मुंबई में है पर एनसीपी के नेताओं ने वक़्त वक़्त पर ये फैसला पूरे भारत पर लागू करने की बात कही है. हो सकता है ऐसा करना भाईचारे की भावना पैदा करता हो पर यही राष्ट्रगान समय-समय पर भाईचारे को बिगाड़ता भी दिखा है. 1985 में केरल में एक स्कूल ने अपने कुछ छात्रों को स्कूल से इसलिए निकाल दिया था क्यूंकि उन्होंने राष्ट्रगान गाने से मना कर दिया था, वो बच्चे ‘जहोवा विटनेसस’ थे जिन्हें धार्मिक रीति रिवाज के तहत किसी भी देश के राष्ट्रगान को गाने या झंडे को सलाम करने से मनाही है. उस वक़्त कई राजनीतिक पार्टियों ने इसे मुद्दा बना कर राजनीति की थी. बाद में सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुना कर उन बच्चों को वापस स्कूल में दाखिल करवा दिया था.
बेहतर हो अगर हम अपने बच्चों को राष्ट्रगान रटवाने या सिनेमा घरों में एकता बढ़ाने को मुद्दा बनाने की बजाय एड्स, टीबी, तम्बाकू. यौन शिक्षा, छुआछूत या ईव-टीजिंग जैसे मुद्दों को एहमियत दें.
सच तो ये है के हम अहसानफरामोश राष्ट्र की निकम्मी औलादे है ..जिनके लिए देशभक्ति का मतलब पन्दरह अगस्त ओर छब्बीस जनवरी को गाने गाकर या स्कूलों में झंडे फहराने तक है...ये एक नजरिया हो सकता है .पर मुझ जैसे लोगो को मुंबई में फिल्म देखने पर इस परम्परा को देख अच्छा लगता है ..कम से कम कुछ शोहदों की अंतरात्मा शायद हलकी सी जागे....या फर्स्ट क्लास में पढने वाला बच्चा इस जज्बे को याद रखे ...जहाँ तक दोहरे चरित्र की बात है ..तो वो भारतीयों के जींस में है.....
ReplyDeleteagar media hype n ho to itna bhi nahi dikhega.. kaahe ki deshbhakti..sab dikhawa hai..
ReplyDeleteबेहतर हो अगर हम अपने बच्चों को राष्ट्रगान रटवाने या सिनेमा घरों में एकता बढ़ाने को मुद्दा बनाने की बजाय एड्स, टीबी, तम्बाकू. यौन शिक्षा, छुआछूत या ईव-टीजिंग जैसे मुद्दों को एहमियत दें.
ReplyDeleteआपका आक्रोश और आपके सुझाव दोनों ही विचारणीय हैं.....दोनों ही राष्ट्रीय पर्व महज़ रस्म हो गए हैं. रस्म ....यानी नौटंकी .....कुछ निहायत बेशर्मों द्वारा खेली जा रही नौटंकी जिसे देख कर दर्द और सिर्फ दर्द की anubhooti ही होती है.
ReplyDeleteराष्ट्रगान के साथ सम्बन्ध भावनात्मक है।
ReplyDeleteकभी ख़ुशी कभी गम में एक द्रश्य में मैं अकेली खड़ी थी पूरे हाल में ... :-)
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