Friday 25 May 2012

गली-गली चोर है



मेरी मां की एक सहेली है. किसी भी मध्यवर्गीय हिन्दुस्तानी औरत की तरह मेरी मां की उस सहेली को भी धार्मिक कर्मकांड बहुत सुहाते हैं. उनकी बैचैन ज़िन्दगी बच्चों के दिन-रात परेशान करने, एक-एक पैसे का हिसाब रखने और पति के हर वक्त के गुस्से के बीच गुज़र रही है. ऐसे में उनके पास शांति के दो ही रास्ते हैं. एक तो औरत को साज़िशों का पिटारा बताने वाले टीवी सीरियल या फिर पूजा-पाठ को सुख का रास्ता बताने वाले मौलाना. अपने पति के दिमाग को ठंडा रखने और अपने बच्चों के परीक्षाओं में अच्छे नम्बर लाने की उम्मीद में वो मौलानाओं को झाड़-फूंक के लिए पैसे देती रहती हैं. अक्सर ही उन्हें अपने बेटे के गले में कोई नया ताबीज़ पहनाते हुए या चादर के नीचे मौलाना की दी हुई चीनी बिछाते हुए देखा जा सकता है. पिछले दिनों कुछ ऐसा हुआ कि उनके धार्मिक विश्वास को बहुत बड़ा झटका लगा.

तकरीबन पंद्रह दिन पहले की बात है, उनके पति ने घर पर एक मौलाना को बुलाया. शाहीन बाग़ (दिल्ली) में रहने वाले ये मौलाना इनके घर अक्सर आते रहते थे. उस दिन घर पर सिर्फ़ पति-पत्नी थे. दोपहर का वक्त था और बच्चे कहीं बाहर गए हुए थे. मौलाना ने घर में घुसते ही ऊंची आवाज़ में कहा “तुम्हारी पत्नी के ऊपर बुरा साया है, इसके अन्दर गंदगी घुस गई है जिसे बाहर निकालना होगा.” पत्नी घबरा गई और पति की तरफ़ देखने लगी. ऐसे में उस मौलाना ने पति की तरफ़ इशारा करके कहा कि तुम किचन में जाओ और थोड़ा सा आटा गूंध कर लाओ. मैं तुम्हारी पत्नी को ठीक करूंगा. उसके बाद उस मौलाना ने पत्नी को सामने एक कुर्सी पर बिठा लिया और उसके चहरे, गले और फिर सीने पर हाथ चलाने लगा. पत्नी अपने ऊपर बुरे साए की बात सुन कर पहले ही घबराई हुई थी और फिर मौलाना के इस तरह की हरकत से बिल्कुल रुंहासी हो गई. मौलाना की हिम्मत खुल गई और वो कुछ और करने के लिए आगे बढ़ने लगा, ऐसे में वो झट से खड़ी हुईं और उसे पीछे हटने के लिए कहा. तब तक उनके पति कमरे में आ चुके थे और हालात कुछ-कुछ समझ गये थे. मौलाना के जाने के बाद पति ने पत्नी से सवाल-जवाब शुरु किए जैसे उसके तुम्हारे साथ क्या किया, कहां-कहां छुआ और ये कि अगर उसने तुम्हें सीने पर हाथ लगाया है तो मैं तुम्हें तलाक़ दे दूंगा. पत्नी ने डर से अपने पति को एक लफ़्ज़ भी नहीं कहा और इतनी बड़ी बात चुपचाप सह गई. मेरी मां को ये सब बताते हुए वो बुरी तरह रो रही थीं और कह रही थीं कि मैं अब नरक में जाउंगी, मैं अपवित्र हो गई हूं.

मां को अपनी सहेली के आंसुओं में लाचारी दिखी, लेकिन मुझे उन आसुंओ में दो सवाल चमकते नज़र आए. ये कैसी व्यवस्था है जो पीड़ित को दोषी बना देती है. हमारा समाज बलात्कार या यौन उत्पीड़न के मामलों से इस तरह पेश आता है जिसमें अपराधी गर्व का पात्र बनता है. एक आदमी को ये गर्व से कहते सुना जा सकता है कि मैंने तो अपनी जवानी के दिनों में बहुत सी लड़कियां छेड़ीं. आज होने वाले हर अपराध को यह कह कर पल्ला झाड़ा जा सकता है कि कलयुग में पाप का वास रहेगा. लेकिन ये कोई आज की कहानी नहीं है. हमारे पुराणों में अहल्या बस्ती है. जिसके शरीर को इन्द्र ने छल से हासिल किया. इन्द्र को स्वर्ग का देवता माना जाता है, अगर स्वर्ग का शासक ऐसा है तो बेशक स्वर्ग किसी स्त्री के लिए सुरक्षित नहीं होगा. खैर, उस समय गौतम महर्षि ने अहल्या को शाप देकर पत्थर का बना दिया था. अर्थात उन्होंने अहल्या को त्याग दिया था. सतयुग और कलयुग में फ़र्क कहां है. आज भी जिस्म पर बात आए तो औरत की गलती मान कर उसे तलाक दे दिया जाता है और उस समय भी औरत को इन्सान नहीं खाने की चीज़ समझा जाता था जिसे अगर जूठा कर दिया जाए तो खा नहीं सकते.

इस घटना ने एक और सवाल उठाया है और वो ये है कि हम टीवी पर आने वाले निर्मल बाबा पर शोर मचाते हैं लेकिन गली-गली में बैठे ऐसे हज़ारों ठगों को नज़र अन्दाज़ क्यूं कर देते हैं. हमारे विवेक पर मिट्टी डालने का काम कोई एक खास बहरूपिया नहीं कर रहा बल्कि छोटे-बड़े स्तर पर आज हर मौहल्ले में ऐसे ढोंगियों ने लूट मचाई हुई है. अगर आज शाहीन बाग़ के उस मौलाना के खिलाफ़ कोई आवाज़ उठाए तो धर्म पर हमले का हावाला देकर, कई गुट खतरनाक हालात पैदा कर सकते हैं. किसी भी अच्छे या बुरे काम की शुरुआत एक छोटे क़दम से ही होती है. अगर हम एक अच्छे काम को उसके शुरुआती दौर में ना सराहें तो मुमकिन है कि वो जल्दी सांस तोड़ दे. उसी तरह अगर हम गलत क़दमों को शुरु में ही ना रोकें तो वो बढ़ते चले जाएंगे, हम पर चढ़ते चले जाएंगे. सौ-दो सौ रुपए लेकर घर में सुख-शांति का दावा करने वाले और सौ- दो सौ करोड़ का चैनल चलाने वाले, ’ऑनलाइन’ पैसा मंगाने वाले बाबाओं में ज़्यादा फ़र्क नहीं है. बस इतना कि एक गली में गुंडा-गर्दी करने वाला मवाली है और एक ए.सी में बैठकर ड्र्ग डीलींग करता डॉन.

सबसे बड़ी व्यथा ये है कि औरत कमज़ोर है इसलिए किसी गैर के छूने से तलाक़ के लायक हो जाती है. लेकिन ऐसे कपटी बाबाओं और मौलानाओं के पीछे खड़ी भीड़ के डर से हम उनपर उंगली उठाने से भी डरते हैं.

Thursday 24 May 2012

मॉर्डन भारत का पिछड़ापन




भारतीय समाज में बलात्कार या शारिरिक उत्पीड़न के मामलों में औरत को दोषी करार देने का रवैया बहुत पुराना है. ये वही देश है जहां अहल्या को इन्द्र की वासना के कारण पत्थर बनने का शाप दिया गया. इसी समाज में बलात्कार पीड़ित फांसी की रस्सी गले में डाल कर, बेगुनाह होते हुए भी गुनहगार बन जाता है. यही वो मुल्क है जहां नाबालिग बच्ची का शोषण होने की खबर आने पर उसकी पढ़ाई-लिखाई बंद करवा दी जाती है. इसी महान देश के भरे बाज़ारों में शरीफ़ मर्द एक औरत को वैश्या कह उसके कपड़े नोचते हैं. और इसी मुल्क में माल्या परिवार के होनहार, पढ़े-लिखे, ऊंचे तबके वाले सिद्धार्थ अपनी आईपीएल टीम के एक खिलाड़ी का पक्ष लेते हुए एक स्त्री को ‘कैरक्टर सर्टीफिकेट’ देते हुए फ़ेल करते हैं.

ऑस्ट्रेलियाई खिलाड़ी ‘ल्यूक पॉमर्शबैक’ आईपीएल में रॉयल चैलेंजर्स बैंगलोर के लिए खेलते हैं, पिछले दिनों एक अमरीकी महिला ने उनके खिलाफ़ पुलिस में शारीरिक उत्पीड़न का मामला दर्ज करवाया. उस महिला के अनुसार ल्यूक पॉमर्शबैक मैच के बाद होटल के उनके कमरे तक आए जहां उन्होंने छेड़छाड़ की और साथ ही कमरे में मौजूद उनके मंगेतर के साथ मारपीट भी की. वैसे तो सही-गलत का फ़ैसला कानून करेगा लेकिन जैसा कि हमारे समाज में होता आया है, किसी भी बलात्कार या यौन उत्पीड़न के मामले में कानूनी लड़ाई से पहले ही स्त्री को दोषी करार दे दिया जाता है. सिद्धार्थ माल्या की पढ़ाई भले ही विदेशी हो, उनकी भाषा भले ही विलायती हो मगर उनके भीतर एक हिन्दुस्तानी मर्द बैठा है. उनके पिता के दुनियाभर में खरीदे हुए बहुत से बंगले ज़रूर हैं लेकिन उनके अन्दर सिर्फ़ एक ही समाज है, ये समाज वही है जो स्त्री को ‘अच्छी पत्नी’ बनने की सलाह देता है.

सिद्धार्थ माल्या ने इस घटना के बाद एक ट्वीट किया था जिसके तहत वो अमरीकी महिला अपने मंगेतर के साथ होते हुए भी उनपर डोरे डाल रही थी, उस महिला ने सिद्धार्थ से उनका ‘ब्लैकबेरी मैसेंजर पिन’ मांगा था और उसका बर्ताव एक होने वाली पत्नी जैसा नहीं था. हमारे समाज में ये माप-दंड तय हैं कि एक पत्नी का बर्ताव कैसा होना चाहिए, उसे कितने कदम चलना चाहिये, किसी पराए मर्द से कितनी बात करनी चाहिए या कितना और कैसे हंसना चाहिये. तथाकथित मॉडर्न हिंदुस्तानी समाज में ऐसी सोच का पनपना दिखाता है कि ऑक्सफ़ॉर्ड, हॉवर्ड या फिर डॉलर में पैसे लेने वाली फ़र्ज़ी विदेशी यूनिवर्सिटियों से डिग्री ले लेने से किसी की ज़हनियत नहीं खुल जाती. ना ही ‘अरमानी’ और ‘वरसाचे’ के कपड़े पहनने से कोई अपना मूल स्वभाव छुपा सकता है. स्त्री का संघर्ष अभी चल रहा है, हर तबका अपने तरीके से उसे टांग पकड़ कर नीचे खींचेगा. ये मान लेना भूल होगी कि अमीर और तथाकथित ’एलीट’ समाज में स्त्री का कोई अस्तित्व है. अगर आपके पड़ोस वाले घर की लड़की बालकनी में ज़्यादा वक्त बिताती है तो वो मौहल्ले की ‘रंभा’ बन जाती है, वहीं अगर कोई रईस तबके की लड़की अपने मंगेतर के साथ होते हुए भी किसी ‘पराए’ मर्द से ‘ब्लैकबैरी मैसेंजर पिन’ मांगती है तो वो ’वाइफ़ मटीरिअल’ नहीं कहलाती. ये दोनों ही मामले अलग-अलग समाज के ज़रूर हैं पर इनके पीछे आधार एक ही है. स्त्री का एक लगा-बंधा, पुरुषों द्वारा तय किया कैरक्टर होता है. बीवी हो तो शर्मीली हो, बहन हो तो कहना सुनती हो, मां हो तो त्याग की देवी हो. प्रेमिका अपनी है तो बाइक पर चढ़ना, पार्क में बैठना सही, दोस्त की है तो चालू कहलाएगी. अगर मान लिया जाए कि वो अमरीकी लड़की सिद्धार्थ के साथ ’फ़्लर्ट’ कर रही थी तो क्या इसका ये मतलब हुआ कि वो एक अच्छी बीवी बनने लायक नहीं है. लेकिन सिद्धार्थ जिस विदेशी माहौल में पले-बढ़े हैं वहां तो ‘फ़्लर्ट’ करने, ‘ब्लाइंड डेट’ पर जाने या फिर किसी लड़की के आगे बढ़ कर फोन नंबर मांगने तक को बुरा नहीं समझा जाता. तो क्या इसका मतलब ये हुआ कि ये उदारवादी सोच खोखली है. सिद्धार्थ के इस बयान के हिसाब से तो हर साल ‘किंगफ़िशर कैलेंडर’ में छपने वाली कोई भी लड़की शादी के लायक नहीं है.

आधुनिकता का लिहाफ़ ओढ़ने वाले एलीट समाज के भीतर छुपी दकियानूस बू वक्त-वक्त पर पिछड़े समाज तक पहुंचती रहती है. ऐसे में पिछड़ेपन के समर्थक सीना चौड़ा कर के यही कहते हैं “ऐश्वर्या राय हॉलीवुड चली गयी, फिर भी मंगलिक थी तो पेड़ के फेरे लिए ना, कुछ भी कर लो रहोगी तो लड़की ही.”  असल में हम एक बेहद ‘कनफ़्यूज़ड’ दौर से गुज़र रहे हैं, औरत की आज़ादी का राग अलापते हुए उसे लोहे की ज़ंजीरों से निकाल कर, चांदी की हथकड़ियां पहना रहे हैं. जहां अब तक संघर्ष परदे और घूंघट से था, वहीं अब मिनी स्कर्ट और बिकीनी से भी निपटना है. कमर चौबिस इन्च से ज़्यादा नहीं, गले पर ‘कॉलर बोन’ और चार इन्च की पेंसिल हील की ज़बर्दस्ती ने इसी आधुनिक समाज की स्त्री को कई लाइलाज जोड़ों की बीमारी और पीठ दर्द सौंपा है. स्त्री-विमर्श का ढोल पीटने वालों को अब सिर्फ़ चारदिवारी पर सवाल नहीं उठाने बल्कि ‘स्लट वॉक’ का समर्थन करने वालों से भी पूछना है कि क्या हंसी-ठहाके लगाते हुए टोरॉंटो की नकल कर लेना काफ़ी है. क्या कैनेडा की स्त्री की आज़ादी की लड़ाई और एक भारतीय स्त्री के स्वावलंबी होने के संघर्ष का रास्ता एक ही होगा.

हम दोहरी मार झेल रहे हैं. हमें एक सड़े-गले समाज में रहते हुए खुली हवा में सांस लेने का नाटक करना है. इन हालात में खुद को आज़ाद ख्याल साबित करने के लिए छोटे कपड़े पहनने की मजबूरी वैसी ही है, जैसे पवित्रता साबित करने के लिए साड़ी पहनना. ऐसे आधुनिक समाज से स्त्री का कोई भला नहीं होने वाला जहां शॉर्ट-टॉप तो पहना जा सकता है लेकिन लॉंग मगंलसूत्र के साथ.