Monday 23 November 2015

समान नागरिक संहिता पर सकारात्मक बहस ज़रूरी


भारत में धर्म-निरपेक्षता का अर्थ ‘हर धर्म को साथ लेकर चलना’ है. धर्म का काम है, इन्सान को ज़िन्दगी जीने के कायदे-कानून बताना, जिन्हें आधार मानते हुए एक समाज गठित हो और कार्यशील बना रहे. भारत में मुख्य रूप से आठ से दस धार्मिक समाजों का अस्तित्व है जैसे, सनातन धर्म, इस्लाम, ईसाइयत, सिख-धर्म, पारसी, यहूदी-धर्म, जैन, यहोवा के साक्षी आदि. ज़ाहिर सी बात है, इन सभी धर्मों के अपने-अपने धार्मिक उसूल हैं जिन्हें उस खास धर्म के लोग ही मानते हैं. साथ ही इन सभी धर्मों में कई ऐसी कुरीतियां भी हैं जिनकी एक सभ्य समाज में जगह नहीं होनी चाहिए. बात वापस वहीं आ जाती है कि भारत में धर्म-निरपेक्षता का अर्थ क्या है? ‘हर धर्म को साथ लेकर चलना’.
सही मायनों में धर्म-निरपेक्षता का अर्थ है, धर्म को पूरी तरह संविधान और न्याय व्यवस्था से अलग रखना. देश में मौजूद विभिन्न समुदायों को अपने धार्मिक-ग्रंथों के अनुसार अलग कानून की इजाज़त धर्म-निरपेक्षता नहीं ‘धर्म-पक्षता’ है. वो भी तब, जब ये कानून सदियों पहले अस्तित्व में आए धार्मिक-ग्रंथों पर आधारित हों और इनका बहुत बड़ा हिस्सा स्त्री-विरोधी हो.
देश में इस वक़्त बीस से ज़्यादा पर्सनल लॉ मौजूद हैं जिनमें से कई 1947 से भी पहले के हैं. जबकि देश के संविधान में वक्त-वक्त पर ज़रूरी बदलाव किए जाते रहे हैं. इन बदलावों के तहत कई जड़ पड़ चुके कानूनों को हटाकर व्यवहारिक कानूनों को जगह मिलती है. साल 1950 से अबतक संविधान में करीब सौ संशोधन किए जा चुके हैं. लेकिन पर्सनल लॉ के मामले में सरकार या न्यायपालिका आम तौर पर हस्तक्षेप नहीं करती, जिसके चलते शाहबानो जैसी महिलाओं के साथ न्याय के नाम पर अन्याय होते रहे हैं.
बेशक भारतीय अदालतों ने कुछ स्वागत-योग्य फ़ैसले भी दिए हैं, जैसे हाल ही में सुप्रीम कोर्ट द्वारा हिंदू विधवाओं से जुड़े संपत्ति पर अधिकार को लेकर दिया गया एक अहम फैसला जिसमें कहा गया कि भले ही वसीयत के अनुसार विधवा को संपत्ति में सीमित अधिकार दिए गए हों, लेकिन अगर भरण-पोषण के लिए ज़रूरी हो, तो वह सीमित अधिकार पूर्ण अधिकार में बदल जाएगा. संपत्ति पर विधवाओं का सीमित हक बताने वाली ये याचिकाएं हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम 1956 की धारा 14 (1) के तहत दायर की गई थीं. लेकिन कई मामले तो अदालत की चौखट तक पहुंच ही नहीं पाते, ऐसे में निजी लॉ बोर्ड ही हावी रहते हैं और इंसाफ़ की गुंजाइश स्त्रियों के लिए ख़ास तौर पर न के बराबर होती है.
पिछले दिनों गुजरात हाई कोर्ट ने भी अपना एक फैसला सुनाते हुए देश में समान नागरिक संहिता की ज़रूरत पर ज़ोर दिया. मामला एक से अधिक शादियां करने का था, जिसमें पत्नी ने अपने पति पर बिना उसकी इजाज़त के दूसरी शादी करने का आरोप लगाया था.
देश में एक से अधिक शादियां करना गैर-कानूनी है पर मुस्लिम पर्सनल लॉ के तहत कुछ लोग आज भी ऐसा करते हैं. यहां तक कि गैर-मुस्लिम भी मुस्लिम पर्सनल लॉ की आड़ लेकर सिर्फ़ एक से ज़्यादा शादियां रचाने के मकसद से धर्म परिवर्तन करते हैं. इस तरह के लूपहोल कानूनी व्यवस्था पर तमाचा हैं.  
समान नागरिक संहिता को लेकर देश के अल्पसंख्यकों के मन में कई शंकाएं हैं. अफ़सोस की बात है कि आज़ादी के बाद से अबतक किसी भी सरकार ने इन शंकाओं को दूर करने की कोशिश नहीं की. 2014 लोकसभा चुनाव में बीजेपी का घोषणा-पत्र समान नागरिक संहिता लाने की बात तो करता है, पर साथ-साथ राम-मंदिर निर्माण और जम्मू-कश्मीर की विशेष हैसियत से संबंधित संविधान के अनुच्छेद 370 को निरस्त करने की बात भी कहता है. समान नागरिक संहिता की मांग लंबे समय से हिंदुत्व के सबसे बड़े झंडाबरदार राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ की भी रही है.
एक तरफ़ लंबे समय तक शासन में रही कांग्रेस का इस मुद्दे को कभी वाजिब भाव न देना, और दूसरी तरफ़ आरएसएस द्वारा इसकी मांग करना और संघ-समर्थित बीजेपी द्वारा इसे अपने घोषणा-पत्र में रखना, देश के अल्पसंख्यकों के मन में एक ग़लत धारणा पैदा करता है कि समान नागरिक संहिता का अर्थ हिन्दू संहिता है, जो पूरी तरह गलत है.
समान नागरिक संहिता लागू होने का अर्थ सिर्फ़ इतना है कि धर्म के नाम पर सदियों पहले बनाए गए कानून का पालन होना बन्द हो. बीते सितंबर ही गुजरात हाई कोर्ट ने एक नाबालिग बच्ची के निकाह को खारिज करते हुए कहा था कि इस मामले में मुस्लिम पर्सनल लॉ की जगह चाइल्ड मैरेज अधिनियम लागू होगा. बीस से ज़्यादा निजी कानूनों की मौजूदगी न्याय व्यवस्था पर अतिरिक्त भार डालती है. हिन्दू माइनॉरिटी एंड गार्जियनशिप अधिनियम तलाक के मामले में सीधे रूप से बच्चों के संरक्षण का अधिकार सीधा पिता को देता है. जबकि मुस्लिम कानून मां के बच्चों पर हक को खारिज नहीं करता. इन विभिन्न निजी कानूनों में कहीं कुछ अच्छा तो कहीं कुछ बुरा है. हिन्दू पर्सनल कानून में उत्तराधिकार, बच्चों के संरक्षण और विधवाओं के अधिकार जैसे कुछ मुद्दे स्त्री-विरोधी हैं. भारतीय ईसाई विवाह अधिनियम 1872 और भारतीय तलाक अधिनियम 1969 में पिछले कुछ साल में कई संशोधन किए गए हैं, जिसके चलते बाकी निजी कानूनों के मुकाबले उनमें भेदभाव कम है. हालांकि, आपसी सहमति से तलाक के मसले पर एक ईसाई जोड़े को तलाक के लिए दो साल इंतज़ार करना पड़ता है जबकि दूसरे धर्मों के निजी कानूनों में ये अवधि सिर्फ़ एक साल है.   

मतलब साफ़ है देश को आधुनिक, निष्पक्ष और मज़बूत समान नागरिक संहिता की बहुत ज़रूरत है. सरकार की ज़िम्मेदारी है कि वो लोगों को इस बारे में जागरूक करे और उनकी शंकाओं को दूर करे. समान नागरिक संहिता आने से महिलाओं का भला होगा. परंपराओं को कानून में ढालने से किसी भी देश या समुदाय का नुकसान ही हो सकता है, क्युंकि परंपराएं मिटने के डर से बदलती नहीं और समाज अगर बदलता नहीं तो मिट जाता है.



        

Thursday 12 November 2015

भाजपा आलोचकों के अंदेशे सही साबित हो रहे हैं

बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह का बिहार में दिया गया बयान “अगर बीजेपी हारी तो पाकिस्तान में पटाखे फूटेंगे” सुनकर स्कूल के वो दिन याद आए जब क्लास में पाकिस्तान का ज़िक्र होते ही दूसरे बच्चे मेरी तरफ़ देखने लग जाते थे. उस वक्त समझ नहीं आता था कि ऐसा क्यूं होता है. मेरे बच्चे दिमाग को इतना ही लगता कि मैं मुस्लमान हूं इसीलिए ऐसा होता है. जैसे-जैसे लोगों की नज़रों और बातों के पीछे छुपे मतलब समझ आने लगे मैं अपने अस्तित्व और पहचान को लेकर मुखर होती गई. 
वो किस्सा जब सात-आठ साल की उम्र में मोहल्ले की एक दूसरी लड़की ने कहा था “मम्मी ने तुम्हारे साथ खेलने से मना किया है, बिकॉज़ यू आर मॉम्ड्न” ज़हन में धुंधला पड़ चुका था. बचपन की वो बातें कभी भी मन में कड़वाहट नहीं भर पाई थीं क्युंकि उन बातों को टीचर्स, टीवी, फ़िल्मों, मेरे खुद के मां-बाप या बाकि दोस्तों से शह मिली ही नहीं. और फिर देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बने.
आज देश के जो बच्चे कल के लिए तैयार हो रहे हैं, क्या वो बिना किसी कड़वाहट के बड़े हो रहे हैं? क्या उन्हें वैसा माहौल मिल पा रहा है कि वो अपने से अलग धर्म, जाति या समुदाय के बच्चों के साथ निश्छल भाव से घुल-मिल सकें? इन सवालों का जवाब क्या है वो खुद बीजेपी नेता पिछले डेढ़ साल में अपने बयानों और करतूतों से दे चुके हैं.   
देश की सत्तारूढ़ पार्टी के अध्यक्ष अमित शाह ने कथित रूप से पिछले दिनों गोमांस के मुद्दे पर विवादित बयान देने वाले बीजेपी नेताओं को तलब किया था. माना जा रहा था कि नफ़रत फैलाने वाले इन बयानों को गंभीरता से लिया जा रहा है. प्रधानमंत्री की छवि का ध्यान रखते हुए ऐसे बयान देने वाले नेताओं की नकेल खींची जा रही है. कोई भी क़दम सार्थक तब होता है जब उसके पीछे की नियत साफ़ हो. वरना विवादित बयानों के महारथियों को तलब करने की पोल अमित शाह के एक बयान से ही खुल जाती है. 
अमित शाह का मानना है, अगर बिहार के वोटर्स बीजेपी को वोट नहीं देते तो वो देशभक्त नहीं हैं. अगर बीजेपी हारती है तो देश के सबसे बड़े दुश्मन देश पाकिस्तान (अरुणाचल में पैर पसारता चीन नहीं, भारत के हितों को किनारे रख दबंगई के साथ ब्रह्मपुत्र नदी पर सबसे बड़ी पनबिजली परियोजना शुरू कर चुका चीन भी नहीं) में पटाखे फोड़े जाएंगे. इस देश में बाइक, गाड़ी या पान-मसाले देश-भक्ति में लपेट कर तो बहुत वक्त से बेचे जा रहे हैं. देश-भक्त होने का पर्यायवाची पाकिस्तान से नफ़रत करना भी फ़िल्म ग़दर का गढ़ा हुआ नहीं है. वहीं ’पाकिस्तान का मतलब मुसलमान’ की समझ भी अमित शाह की उपज नहीं है. 
इतिहास का कम या गलत ज्ञान और उसी ज्ञान को बच्चों पर थोपना और सहिष्णुता के नाम पर त्योहारों पर आपस में मिठाई बांट कर खुद अपनी ही पीठ ठोंक लेना बरसों से होता आ रहा है. आज और तब में फ़र्क बस इतना है कि दबे, अधपके घृणा के बीजों को खाद नहीं मिलती थी. आज खुले रूप से स्कूलों के सिलेबस बदले जा रहे हैं. पिछले दिनों ही राजस्थान सरकार ने सरकारी स्कूलों के पुराने सिलेबस की किताबें नीलाम करने का फ़ैसला किया. 50 करोड़ की लागत वाली किताबें रद्दी के भाव नीलाम होंगी. सिलेबस को आखिरी बार 2010 में रिवाइज किया गया था, समझने की बात है कि सरकार को किताबें बदलने की इतनी हड़बड़ी क्यों है? ऐसे ही कदम बीजेपी शासित बाक़ि राज्य भी अपना रहे हैं. गुजरात में उन किताबों को राज्य के सभी प्राइमरी और हाई स्कूलों में पढ़ाया जा रहा है जो पिछले दो दशकों से संघ की शाखाओं में बाँटी जा रही थीं. छ्त्तीसगढ़ के कुछ स्कूलों में आसाराम की किताब दिव्य प्रेरणा प्रकाश बांटे जाने की घटना छुपी नहीं है. सिर्फ महासमुंद जिले में ही ऐसी 5 हजार किताबें बांटी गई थीं.
नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने और बीजेपी के पूर्ण बहुमत के साथ सरकार बनाने से पहले एक बहुत बड़े तबके के मन में कई तरह के अंदेशे थे, जैसे दक्षिणपंथ को हवा मिलने से देश में सांप्रदायिक ताकतें बढ़ेंगी, डर और नफ़रत का माहौल बनेगा जिससे देश की प्रगति और विदेश में भारत की छवि पर धब्बा लगेगा. अफ़सोस की बात है कि ये सारे अंदेशे सच साबित होते जा रहे हैं. पिछले डेढ़ साल में राजनीतिक गुंड़ा-गर्दी ज़ोर-शोर से बढ़ी है.
दादरी हिंसा हो या देश के प्रमुख शिक्षण संस्थानों में सरकार के हस्तक्षेप का विरोध, इन मुद्दों पर कोई सुनवाई नहीं हो रही. छात्रों, साहित्यकारों, फ़िल्मकारों, इतिहासकारों यहां तक कि वैज्ञानिकों के अपना विरोध जताने पर सरकार उसी घमंडी ‘मोड’ में नज़र आ रही है जिस ‘मोड और मूड’ में UPA-2 दिखती थी.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के हाव-भाव और भाषा से लगता है कि उन्हें शासन करने से ज़्यादा चुनाव लड़ने में दिलचस्पी है. पहले दिल्ली और अब बिहार विधानसभा चुनाव में उनका रूप बेहद आक्रामक रहा है. मई 2014 से अबतक प्रधानमंत्री के पास अपने आलोचकों का मुंह बंद करने के कई मौके थे लेकिन इसके लिए उन्हें अपने नेताओं का मुंह बंद करना पड़ता जो नहीं हुआ.
प्रधानमंत्री का शिक्षक-दिवस के मौके पर देशभर के स्कूलों में अपना भाषण सुनाना अनिवार्य करना, हर हफ़्ते रेडियो के ज़रिए ’मन की बात’ करना इतना तो साफ़ करता है कि वो आने वाली पीढ़ी को जीतना चाहते हैं. मगर सिर्फ़ विदेश में बोलना, चुनावी रैलियों में बोलना या विशेष कार्यक्रमों में बोलना काफ़ी नहीं है. संवेदनशील और ज़रूरी मुद्दों पर बोलने से बचना लंबी दौड़ में प्रधानमंत्री के लिए हानिकारक साबित हो सकता है.

Tuesday 19 May 2015

मैरिटल रेप - दूसरी कहानी


बहुत चाव से प्यार किया था. उतने ही चाव से खुद पिता से शादी की बात भी की थी. वो आज के ज़माने की लड़की थी. दुनिया की रफ़्तार के साथ क़दम मिलाना, अच्छे से अच्छे कपड़े पहनना, खुद पैसे कमाने का जोश होना, पार्टी की जान होना, इन सभी और इनके जैसी और भी कई बातों और आदतों से मिलकर बनी थी दिशा. ‘थीइसलिए क्युंकि धीरे-धीरे उसकी शख़्सियत के ये रंग धुंधलाने लगे हैं.

दिशा अब पूरी तरह से पहले जैसी नहीं है. क़रीब तीन साल पहले उसने अपनी पसंद से शादी की. बस तबसे ही उसकी रूह ने छिलना शुरू कर दिया. रोज़--रोज़ छिलने से शख्सियत महीन हो रही है, जैसे कभी भी किसी बेहद पुराने सूती के दुपट्टे की तरह चर्र से फट जाएगी.    

सौरभ से वो किसी ऑफ़िस पार्टी में टकराई थी. दो-तीन महीने साथ घूमने फिरने के बाद ही दोनों ने अपने-अपने घर पर शादी की बात की और धूमधाम के साथ अपनी प्रेम-कहानी को अंजाम दिया. प्रेम-कहानी का अंजाम वाक़ई शादी होता है, शादी के बाद चीज़ें बदल जाती हैं, प्रेमी पति बन जाता है जैसी बातों पर उसने कभी तवज्जो नहीं दी क्युंकि उसके आसपास हुए सारे प्रेम-विवाह इन बातों को मिथक बना रहे थे. वो खुद भी कुछ हफ़्ते खुश थी. सौरभ उसका बहुत ख्याल ना भी रखता हो पर जानबूझ कर परेशानियां खड़ी नहीं करता था.

अब जब वो शुरू के उन खुशहाल दिनों के बारे में सोचती है तो पाती है, सौरभ बस तब तक ही सभ्य था जब तक वो दोनों सौरभ के मां-बाप के साथ एक ही घर में रह रहे थे. शादी के दो हफ़्ते बाद जब दोनों अलग घर में शिफ़्ट हुए तब जैसे अचानक ही दिशा ने अपने पति का अलग रूप देखा. वो दोनों हनीमून पर कहीं घूमने नहीं जा गए थे. ये पहली बार था जब दिशा अकेले घर में सौरभ के साथ थी. नए घर में उनका पहला दिन था. शिफ़्टिंग के बाद थक कर वो बिस्तर पर नींद से ढेर हो गई थी. शायद आधा-एक घंटा बीता होगा जब उसने अपने पैरों में दर्द महसूस किया. वो इतनी ज़्यादा थकी हुई थी कि दर्द के बाद भी सोती रही. कुछ ही मिनट बाद वही दर्द कलाईंयों में भी होने लगा. मंद-मंद दर्द से तड़पते हुए दिशा ने आंख खोली तो उसके होश उड़ गए. वो बिना कपड़ों के अपने पलंग से बंधी हुई थी. सामने सौरभ वीडियो कैमरा लेकर खड़ा था. दिशा को याद है वो बहुत बुरी तरह से चीखी थी. उस वक्त सौरभ ने हंसते हुए कैमरा बंद कर दिया था, उसके हाथ-पैर खोल दिए थे.

कुछ दिनों बाद सौरभ ने फिर से सोई हुई दिशा के साथ वैसा ही किया, बस इस बार बात और आगे बढ़ी थी. इस बार उसे इतनी आसानी से खोला नहीं गया था. दिशा के लगातार चीखने-चिल्लाने के बावजूद सौरभ ने खुद को उसपर थोप दिया था. आज जब इस बारे में सोचती है तो लगता है उस दिन उसे वो घर और सौरभ दोनों को छोड़ देना चाहिए था. तब दिशा ने सौरभ से बातचीत बंद की थी, अलग कमरे में सोने लगी, इससे ज़्यादा कुछ नहीं.

चुप रहकर, सहकर, ये सोच कर कि सामने वाला बदल जाएगा, उसे अपनी गलती का एहसास होगा मानकर हम अपना कितना बड़ा नुकसान करते हैं ये वक्त बता ही देता है. गलत को गलत कहकर फ़ौरन कोई ठोस कदम उठाना कितना अहम है, ये हमें अपनी बच्चियों को सिखाना बहुत ज़रूरी है.
दिशा ने सोचा आखिर सौरभ उससे प्यार करता है, अगर वो उसे समझाने की कोशिश करे, थोड़ा नाराज़ होकर, थोड़ा प्यार दिखा कर तो वो संभल जाएगा. ऐसा होना था ही नहीं, सो हुआ भी नहीं. बस सब ठीक करने के इस खेल में हर दफ़ा दिशा का आत्म-सम्मान और आत्म-विश्वास दो फ़िट और गड्ढे में गिरा. वो सौरभ को बदल तो नहीं पाई, हां खुद काफ़ी बदल गई.

दिशा ने देखा कि जितना ज़्यादा वो सौरभ के रंग में रंगती गई उतना ज़्यादा सौरभ ने उसे पैर की नोक पर रखना शुरू कर दिया. वो नौकरी करती थी और घर का भी सारा काम उस पर गिरा था, बेशक साफ़-सफ़ाई के लिए काम वाली आती थी पर एक घर को रहने लायक बनाने के लिए उससे ज़्यादा देना पड़ता है. क़रीब एक साल तक दिशा ने खुद से लड़ते हुए सौरभ को मौक़े पर मौक़े दिए. पानी की एक भरी बाल्टी तक उठाने में वो उसकी मदद नहीं करता था, जैसे फ़र्क ही ना पड़ता हो. भरा हुआ सिलेंडर वो खुद ही ढकेलते हुए किचन तक पहुंचाती थी. कभी सौरभ को कह दो तो सीधा जवाबतुम सेल्फ़-डिपेंडंट नौकरी पेशा औरत हो, जब खुद इतना भी नहीं कर सकती तो ऑफ़िस में कैसे काम करती हो”.

आखिरकार जब थक-हारकर लगभग डेढ़ साल बाद वो वापस अपने मां-बाप के पास लौटी तो जिस्म पर चोट के निशान तो थे नहीं जो दिखाती. बस बंद कमरे में मां से लिपट कर रोई और दबे-छुपे लफ़्ज़ों में हालात बताए. मां को जितना समझ आया उतना उन्होंने डैडी को बता दिया, शायद उतना काफ़ी था अब दो साल से तलाक़ को लेकर मसला अटका हुआ है. सौरभ तलाक़ को राज़ी है पर दिशा के पिता उसे सबक सिखाना चाहते हैं. वक़ील कहता है तुम्हारे हस्बेंड को घरेलू हिंसा के तहत लपेटना पड़ेगा. पर घरेलू हिंसा के जो पैमाने हैं उसपर तो दिशा का केस टिकता ही नहीं.


प्यार, शादी, रिश्ते, इंसानियत ने दिशा को पहले ही इतना तोड़ दिया है कि क़ानूनी लड़ाई की ना हिम्मत बची है ना चाहत. वो अब बस तलाक़ चाहती है, सौरभ को उसके कि की सज़ा मिले या ना मिले अब उसके लिए मायने नहीं रखता.