भारत में धर्म-निरपेक्षता का अर्थ ‘हर धर्म को साथ लेकर चलना’ है. धर्म का काम है, इन्सान को ज़िन्दगी जीने के कायदे-कानून बताना, जिन्हें आधार मानते हुए एक समाज गठित हो और कार्यशील बना रहे. भारत में मुख्य रूप से आठ से दस धार्मिक समाजों का अस्तित्व है जैसे, सनातन धर्म, इस्लाम, ईसाइयत, सिख-धर्म, पारसी, यहूदी-धर्म, जैन, यहोवा के साक्षी आदि. ज़ाहिर सी बात है, इन सभी धर्मों के अपने-अपने धार्मिक उसूल हैं जिन्हें उस खास धर्म के लोग ही मानते हैं. साथ ही इन सभी धर्मों में कई ऐसी कुरीतियां भी हैं जिनकी एक सभ्य समाज में जगह नहीं होनी चाहिए. बात वापस वहीं आ जाती है कि भारत में धर्म-निरपेक्षता का अर्थ क्या है? ‘हर धर्म को साथ लेकर चलना’.
सही मायनों में धर्म-निरपेक्षता का अर्थ है, धर्म को पूरी तरह संविधान और न्याय व्यवस्था से अलग रखना. देश में मौजूद विभिन्न समुदायों को अपने धार्मिक-ग्रंथों के अनुसार अलग कानून की इजाज़त धर्म-निरपेक्षता नहीं ‘धर्म-पक्षता’ है. वो भी तब, जब ये कानून सदियों पहले अस्तित्व में आए धार्मिक-ग्रंथों पर आधारित हों और इनका बहुत बड़ा हिस्सा स्त्री-विरोधी हो.
देश में इस वक़्त बीस से ज़्यादा पर्सनल लॉ मौजूद हैं जिनमें से कई 1947 से भी पहले के हैं. जबकि देश के संविधान में वक्त-वक्त पर ज़रूरी बदलाव किए जाते रहे हैं. इन बदलावों के तहत कई जड़ पड़ चुके कानूनों को हटाकर व्यवहारिक कानूनों को जगह मिलती है. साल 1950 से अबतक संविधान में करीब सौ संशोधन किए जा चुके हैं. लेकिन पर्सनल लॉ के मामले में सरकार या न्यायपालिका आम तौर पर हस्तक्षेप नहीं करती, जिसके चलते शाहबानो जैसी महिलाओं के साथ न्याय के नाम पर अन्याय होते रहे हैं.
बेशक भारतीय अदालतों ने कुछ स्वागत-योग्य फ़ैसले भी दिए हैं, जैसे हाल ही में सुप्रीम कोर्ट द्वारा हिंदू विधवाओं से जुड़े संपत्ति पर अधिकार को लेकर दिया गया एक अहम फैसला जिसमें कहा गया कि भले ही वसीयत के अनुसार विधवा को संपत्ति में सीमित अधिकार दिए गए हों, लेकिन अगर भरण-पोषण के लिए ज़रूरी हो, तो वह सीमित अधिकार पूर्ण अधिकार में बदल जाएगा. संपत्ति पर विधवाओं का सीमित हक बताने वाली ये याचिकाएं हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम 1956 की धारा 14 (1) के तहत दायर की गई थीं. लेकिन कई मामले तो अदालत की चौखट तक पहुंच ही नहीं पाते, ऐसे में निजी लॉ बोर्ड ही हावी रहते हैं और इंसाफ़ की गुंजाइश स्त्रियों के लिए ख़ास तौर पर न के बराबर होती है.
पिछले दिनों गुजरात हाई कोर्ट ने भी अपना एक फैसला सुनाते हुए देश में समान नागरिक संहिता की ज़रूरत पर ज़ोर दिया. मामला एक से अधिक शादियां करने का था, जिसमें पत्नी ने अपने पति पर बिना उसकी इजाज़त के दूसरी शादी करने का आरोप लगाया था.
देश में एक से अधिक शादियां करना गैर-कानूनी है पर मुस्लिम पर्सनल लॉ के तहत कुछ लोग आज भी ऐसा करते हैं. यहां तक कि गैर-मुस्लिम भी मुस्लिम पर्सनल लॉ की आड़ लेकर सिर्फ़ एक से ज़्यादा शादियां रचाने के मकसद से धर्म परिवर्तन करते हैं. इस तरह के लूपहोल कानूनी व्यवस्था पर तमाचा हैं.
समान नागरिक संहिता को लेकर देश के अल्पसंख्यकों के मन में कई शंकाएं हैं. अफ़सोस की बात है कि आज़ादी के बाद से अबतक किसी भी सरकार ने इन शंकाओं को दूर करने की कोशिश नहीं की. 2014 लोकसभा चुनाव में बीजेपी का घोषणा-पत्र समान नागरिक संहिता लाने की बात तो करता है, पर साथ-साथ राम-मंदिर निर्माण और जम्मू-कश्मीर की विशेष हैसियत से संबंधित संविधान के अनुच्छेद 370 को निरस्त करने की बात भी कहता है. समान नागरिक संहिता की मांग लंबे समय से हिंदुत्व के सबसे बड़े झंडाबरदार राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ की भी रही है.
एक तरफ़ लंबे समय तक शासन में रही कांग्रेस का इस मुद्दे को कभी वाजिब भाव न देना, और दूसरी तरफ़ आरएसएस द्वारा इसकी मांग करना और संघ-समर्थित बीजेपी द्वारा इसे अपने घोषणा-पत्र में रखना, देश के अल्पसंख्यकों के मन में एक ग़लत धारणा पैदा करता है कि समान नागरिक संहिता का अर्थ हिन्दू संहिता है, जो पूरी तरह गलत है.
समान नागरिक संहिता लागू होने का अर्थ सिर्फ़ इतना है कि धर्म के नाम पर सदियों पहले बनाए गए कानून का पालन होना बन्द हो. बीते सितंबर ही गुजरात हाई कोर्ट ने एक नाबालिग बच्ची के निकाह को खारिज करते हुए कहा था कि इस मामले में मुस्लिम पर्सनल लॉ की जगह चाइल्ड मैरेज अधिनियम लागू होगा. बीस से ज़्यादा निजी कानूनों की मौजूदगी न्याय व्यवस्था पर अतिरिक्त भार डालती है. हिन्दू माइनॉरिटी एंड गार्जियनशिप अधिनियम तलाक के मामले में सीधे रूप से बच्चों के संरक्षण का अधिकार सीधा पिता को देता है. जबकि मुस्लिम कानून मां के बच्चों पर हक को खारिज नहीं करता. इन विभिन्न निजी कानूनों में कहीं कुछ अच्छा तो कहीं कुछ बुरा है. हिन्दू पर्सनल कानून में उत्तराधिकार, बच्चों के संरक्षण और विधवाओं के अधिकार जैसे कुछ मुद्दे स्त्री-विरोधी हैं. भारतीय ईसाई विवाह अधिनियम 1872 और भारतीय तलाक अधिनियम 1969 में पिछले कुछ साल में कई संशोधन किए गए हैं, जिसके चलते बाकी निजी कानूनों के मुकाबले उनमें भेदभाव कम है. हालांकि, आपसी सहमति से तलाक के मसले पर एक ईसाई जोड़े को तलाक के लिए दो साल इंतज़ार करना पड़ता है जबकि दूसरे धर्मों के निजी कानूनों में ये अवधि सिर्फ़ एक साल है.
मतलब साफ़ है देश को आधुनिक, निष्पक्ष और मज़बूत समान नागरिक संहिता की बहुत ज़रूरत है. सरकार की ज़िम्मेदारी है कि वो लोगों को इस बारे में जागरूक करे और उनकी शंकाओं को दूर करे. समान नागरिक संहिता आने से महिलाओं का भला होगा. परंपराओं को कानून में ढालने से किसी भी देश या समुदाय का नुकसान ही हो सकता है, क्युंकि परंपराएं मिटने के डर से बदलती नहीं और समाज अगर बदलता नहीं तो मिट जाता है.