बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह का बिहार में दिया गया बयान “अगर बीजेपी हारी तो पाकिस्तान में पटाखे फूटेंगे” सुनकर स्कूल के वो दिन याद आए जब क्लास में पाकिस्तान का ज़िक्र होते ही दूसरे बच्चे मेरी तरफ़ देखने लग जाते थे. उस वक्त समझ नहीं आता था कि ऐसा क्यूं होता है. मेरे बच्चे दिमाग को इतना ही लगता कि मैं मुस्लमान हूं इसीलिए ऐसा होता है. जैसे-जैसे लोगों की नज़रों और बातों के पीछे छुपे मतलब समझ आने लगे मैं अपने अस्तित्व और पहचान को लेकर मुखर होती गई.
वो किस्सा जब सात-आठ साल की उम्र में मोहल्ले की एक दूसरी लड़की ने कहा था “मम्मी ने तुम्हारे साथ खेलने से मना किया है, बिकॉज़ यू आर मॉम्ड्न” ज़हन में धुंधला पड़ चुका था. बचपन की वो बातें कभी भी मन में कड़वाहट नहीं भर पाई थीं क्युंकि उन बातों को टीचर्स, टीवी, फ़िल्मों, मेरे खुद के मां-बाप या बाकि दोस्तों से शह मिली ही नहीं. और फिर देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बने.
आज देश के जो बच्चे कल के लिए तैयार हो रहे हैं, क्या वो बिना किसी कड़वाहट के बड़े हो रहे हैं? क्या उन्हें वैसा माहौल मिल पा रहा है कि वो अपने से अलग धर्म, जाति या समुदाय के बच्चों के साथ निश्छल भाव से घुल-मिल सकें? इन सवालों का जवाब क्या है वो खुद बीजेपी नेता पिछले डेढ़ साल में अपने बयानों और करतूतों से दे चुके हैं.
देश की सत्तारूढ़ पार्टी के अध्यक्ष अमित शाह ने कथित रूप से पिछले दिनों गोमांस के मुद्दे पर विवादित बयान देने वाले बीजेपी नेताओं को तलब किया था. माना जा रहा था कि नफ़रत फैलाने वाले इन बयानों को गंभीरता से लिया जा रहा है. प्रधानमंत्री की छवि का ध्यान रखते हुए ऐसे बयान देने वाले नेताओं की नकेल खींची जा रही है. कोई भी क़दम सार्थक तब होता है जब उसके पीछे की नियत साफ़ हो. वरना विवादित बयानों के महारथियों को तलब करने की पोल अमित शाह के एक बयान से ही खुल जाती है.
अमित शाह का मानना है, अगर बिहार के वोटर्स बीजेपी को वोट नहीं देते तो वो देशभक्त नहीं हैं. अगर बीजेपी हारती है तो देश के सबसे बड़े दुश्मन देश पाकिस्तान (अरुणाचल में पैर पसारता चीन नहीं, भारत के हितों को किनारे रख दबंगई के साथ ब्रह्मपुत्र नदी पर सबसे बड़ी पनबिजली परियोजना शुरू कर चुका चीन भी नहीं) में पटाखे फोड़े जाएंगे. इस देश में बाइक, गाड़ी या पान-मसाले देश-भक्ति में लपेट कर तो बहुत वक्त से बेचे जा रहे हैं. देश-भक्त होने का पर्यायवाची पाकिस्तान से नफ़रत करना भी फ़िल्म ग़दर का गढ़ा हुआ नहीं है. वहीं ’पाकिस्तान का मतलब मुसलमान’ की समझ भी अमित शाह की उपज नहीं है.
इतिहास का कम या गलत ज्ञान और उसी ज्ञान को बच्चों पर थोपना और सहिष्णुता के नाम पर त्योहारों पर आपस में मिठाई बांट कर खुद अपनी ही पीठ ठोंक लेना बरसों से होता आ रहा है. आज और तब में फ़र्क बस इतना है कि दबे, अधपके घृणा के बीजों को खाद नहीं मिलती थी. आज खुले रूप से स्कूलों के सिलेबस बदले जा रहे हैं. पिछले दिनों ही राजस्थान सरकार ने सरकारी स्कूलों के पुराने सिलेबस की किताबें नीलाम करने का फ़ैसला किया. 50 करोड़ की लागत वाली किताबें रद्दी के भाव नीलाम होंगी. सिलेबस को आखिरी बार 2010 में रिवाइज किया गया था, समझने की बात है कि सरकार को किताबें बदलने की इतनी हड़बड़ी क्यों है? ऐसे ही कदम बीजेपी शासित बाक़ि राज्य भी अपना रहे हैं. गुजरात में उन किताबों को राज्य के सभी प्राइमरी और हाई स्कूलों में पढ़ाया जा रहा है जो पिछले दो दशकों से संघ की शाखाओं में बाँटी जा रही थीं. छ्त्तीसगढ़ के कुछ स्कूलों में आसाराम की किताब दिव्य प्रेरणा प्रकाश बांटे जाने की घटना छुपी नहीं है. सिर्फ महासमुंद जिले में ही ऐसी 5 हजार किताबें बांटी गई थीं.
नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने और बीजेपी के पूर्ण बहुमत के साथ सरकार बनाने से पहले एक बहुत बड़े तबके के मन में कई तरह के अंदेशे थे, जैसे दक्षिणपंथ को हवा मिलने से देश में सांप्रदायिक ताकतें बढ़ेंगी, डर और नफ़रत का माहौल बनेगा जिससे देश की प्रगति और विदेश में भारत की छवि पर धब्बा लगेगा. अफ़सोस की बात है कि ये सारे अंदेशे सच साबित होते जा रहे हैं. पिछले डेढ़ साल में राजनीतिक गुंड़ा-गर्दी ज़ोर-शोर से बढ़ी है.
दादरी हिंसा हो या देश के प्रमुख शिक्षण संस्थानों में सरकार के हस्तक्षेप का विरोध, इन मुद्दों पर कोई सुनवाई नहीं हो रही. छात्रों, साहित्यकारों, फ़िल्मकारों, इतिहासकारों यहां तक कि वैज्ञानिकों के अपना विरोध जताने पर सरकार उसी घमंडी ‘मोड’ में नज़र आ रही है जिस ‘मोड और मूड’ में UPA-2 दिखती थी.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के हाव-भाव और भाषा से लगता है कि उन्हें शासन करने से ज़्यादा चुनाव लड़ने में दिलचस्पी है. पहले दिल्ली और अब बिहार विधानसभा चुनाव में उनका रूप बेहद आक्रामक रहा है. मई 2014 से अबतक प्रधानमंत्री के पास अपने आलोचकों का मुंह बंद करने के कई मौके थे लेकिन इसके लिए उन्हें अपने नेताओं का मुंह बंद करना पड़ता जो नहीं हुआ.
प्रधानमंत्री का शिक्षक-दिवस के मौके पर देशभर के स्कूलों में अपना भाषण सुनाना अनिवार्य करना, हर हफ़्ते रेडियो के ज़रिए ’मन की बात’ करना इतना तो साफ़ करता है कि वो आने वाली पीढ़ी को जीतना चाहते हैं. मगर सिर्फ़ विदेश में बोलना, चुनावी रैलियों में बोलना या विशेष कार्यक्रमों में बोलना काफ़ी नहीं है. संवेदनशील और ज़रूरी मुद्दों पर बोलने से बचना लंबी दौड़ में प्रधानमंत्री के लिए हानिकारक साबित हो सकता है.
अच्छा लिखा गया है। बस फौज़िया स्टाईल में थोड़ी कंजूसी दिखी है।
ReplyDeleteअच्छा लिखा गया है। बस फौज़िया स्टाईल में थोड़ी कंजूसी दिखी है।
ReplyDeleteप्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के हाव-भाव और भाषा से लगता है कि उन्हें शासन करने से ज़्यादा चुनाव लड़ने में दिलचस्पी है.
ReplyDeleteयह बात पूरे देश ने नोटिस की है । राजनीतिज्ञों के गिरते स्तर से हमारे पास एकमात्र बचा विकल्प भी मर गया । हमें ऐसा लग रहा है कि हम पूरी तरह अनाथ हो गये हैं । हर किसी को अपनी रक्षा अब ख़ुद करनी है ... पहले भी करते थे, लेकिन तब उम्मीद थी कि शायद पवित्र लोग कुछ अच्छा करेंगे । लेकिन पवित्र लोगों ने तो और भी निराश किया है । देश विकल्पहीम स्थिति में पहुँच गया । छोटे डाकू और बड़े डाकू में से अदल-बदल कर चुनते रहने को विकल्प नहीं कहते ।
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ReplyDeleteAise Desh ka kuch nahi ho sakta Jahan educated or samajhdaar log bhi facts, development or logic ko ek taraf rakh k Namo Namo karte hue Modi Ko Vote daalte hue aa rahe ho.
ReplyDeleteek dhram akbar ne bhi bnaya tha, desh ko tarki ki or lejane k liye, chlo ab ham bhi hindustan ke 130 cro hindwasi bne
ReplyDeleteModi is dabangggg. Modi is great pm of my India
ReplyDeleteBaki hindu Muslim ki baat rahi to musalman har jagah galat Kam karta hai kitna bhi samjhao usko Ulta hi samjh me ata hai abhi modi ji or Amit ji bilkul sahi kaam kar rahe hai hinduo ki jaga rahe hai isme musalmano ki or Congress ki jal rahi ho to ye bahut khushi ki baat hai JAI HIND JAI BHARAT JAI MODI.
I love my India n I hate suar.
ReplyDeleteNice blog thanks for pposting
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