Monday, 7 February 2011

ये जेसिका की दिल्ली है…लड़ना सीख


“ये दिल्ली है दिल्ली… लड़ना सीख” जेसिका अपनी बहन सबरीना को समझाती है और सबरीना माज़ी की इस सीख को याद करके एक बार फिर उठ खड़ी होती है. लड़ायी के दौरान वो वक्त ज़रूर आता है जब इंसान सोचता है ’बहुत हुआ, क्या मिलेगा लड़ कर जो गया वो लौट कर तो नहीं आने वाला.’ हालात इतने सख्त होते हैं कि हिम्मती शख्स भी टूट्ने लगता है. यही वो लम्हा होता है जब दूबारा खड़े होने की ताकत चहिये होती है. जेसिका केस की याद इसी हिम्मत को जगाती है. ’नो वन किल्लड जेसिका’ निर्देशक राजकुमार गुप्ता की दूसरी फ़िल्म है. इससे पहले ’आमिर’ में उन्होंने छोटे कलाकारों के साथ काम किया था तो ’नो वन किल्लड जेसिका’ सिर्फ़ विषय के स्तर पर नहीं स्टारकास्ट के मामले में भी उनके लिये बड़ी फ़िल्म थी. फ़िल्म की कहानी नयी या अनसुनी नहीं है, मीडिया का ’एक्टिविज़्म’, हाई प्रोफ़ाइल लोगों का दोगला रवैया, डर के साये में सच का कहीं पीछे छूट जाना, मौका परस्तों की झूठी कसमें, फ़िल्म में ऐसा कुछ भी नहीं है जो हमारे आस पास न घटता हो. ’नो वन किल्ल्ड जेसिका’ हर रोज़ जूझ रहे इन्सान, ’रंग दे बसंती’ देख कर जागरुक हुए, एसएमएस से इंसाफ़ की मांग करते युवाओं, बेहतर टीआरपी और बड़ी स्टोरी की तलाश वाले पत्रकारों को बखूबी पेश करती है. किसी ऐसी कहानी पर फ़िल्म बनाना जिसे लोग पहले से ही जानते हैं रिस्की होता है. या तो आप सन्जय लीला भंसाली हों जो देवदास को रंगों और बोलों से सजा कर पेश करें या फिर रामगोपाल वर्मा हों जो बदसूरत को इतना घिनोना दिखायें की कंपन हो जाये. बीच का रास्ता दर्शक को बेसुकून करता है. ’नो वन किल्लड जेसिका’ यही बेसुकूनी देती है.

दिल्ली पथरीली है, दिल के बगैर है अगर आप कमज़ोर हैं तो रोज़ ब रोज़ तमाचे जड़ने वाली है. इंडिया गेट वाली सड़क चौड़ी है साफ़ है तो मुनिरका की गलियां बदबुदार हैं. जी.के के पोश इलाके से कुछ ही कदम दूर है सावित्री नगर के उबड़-खाबड़ रास्ते, साकेत के गोल्फ़ क्लब से होज़ रानी गांव इतना दूर भी नहीं कि कभी गुज़रते वक्त नज़र ना पड़े, महरोली की फूल मंडी से सेन्ट्रल पार्क वकाई दूर है इन दूरियों को किलोमीटर में नहीं फ़ासलों में नापना बेहतर होगा. वैसे तो हर शहर दो कहानियां कहता है दो रूप रखता है पर दिल्ली का एक रूप दूसरे से इतना मुखतलिफ़ है कि शक होता है इस शहर को ’स्प्लिट पर्स्नेलिटी’ वाली बीमारी तो नहीं. ’नो वन किल्लिड जेसिका’ दिल्ली की इस बीमारी के साथ इन्साफ़ नहीं कर सकी है. कुछ जगहों पर फ़िल्म तीखी होती है पर ये कुछ एक सीनो तक ही सिमट कर रह जाता है. जैसे सब्रीना का गवाह नीना से मिलना, जहां नीना चोकलेट ट्रफ़ल खाते हुए जेसिका की मौत पर आंसू बहाती है या मनु के माता पिता जेसिका के घर शोक व्यक्त करने आते हैं. इसके अलावा कहानी फ़िल्मी ही लगती है.

जेसिका केस अपने आप में न्याय की जीत तो बेशक था मगर इस जीत को एक खास तबके से जोड़ कर ही देखा जा सकता है. मोबाइल फोन, ’एसएमएस’ और टेलीविज़न मिडिआ का शुरुआती दौर आकर्शक रहा, एक अपकमिंग मोडल की हाइप्रोफ़ाइल पार्टी में हत्या दर्दनाक ज़रूर थी मगर राजधानी से इतना समर्थन न तो कभी भोपाल गेस त्रास्दी के पीड़ितों को मिला और ना ही सेज़ के तहत बेघर हुए ग्राममिणों को. खैर, ’दर्शक की सहानुभूति जहां कामयाब बॉक्स-ऑफ़िस रिज़ल्ट्स वहां’ की तर्ज पर बनती फ़िल्में “नो वन किल्लिड जेसिका” की प्रेरक हो सकती हैं.

बॉलीवुड की व्यथा ये है कि यहां एक नायक और एक खलनायक होता है. तो रानी बनी फ़िल्म की नायक जर्नलिस्ट मीरा गेटी जो अकेले ही खलनायक को धूल चटाने के लिये काफ़ी है. वो अन्याय को बरदाश्त नहीं करती इसके लिये अपने बॉस से लड़ जाती है. वो गाली-गलोच करती, सिगरेट पर सिगरेट फूंकती हुई टीआरपी के लिये नहीं न्याय के लिये लड़ती है. वो सबरीना को हिम्मत बंधाती है और गुनाहगारों को बेनकाब करती है. फिर भी पूरी फ़िल्म की असल नायक है विद्दया बालन जो सबरीना की निराशा या किसी अपने के खोने की तकलीफ़ को बेहद खूबसूरती से निभाती है. रानी के फ़ेंस भले ही इतेफ़ाक ना रखें और साल के अंत में भले ही रानी को ढेरों अवार्ड मिलें मगर एक्टिंग के मामले में विद्दया उनसे कई कदम आगे रहीं. हालांकि निर्देशक राजकुमार गुप्ता ने छोटे छोटे किरदारों के लिये भी अच्छी प्रतिभाओं का इस्तेमाल किया है जैसे जेसिका केस को हेंडल करता पुलिस ऑफ़िसर या फिर मीरा गेटी का बॉस.

बॉलीवुड की एक और व्यथा संगीत. फ़िल्म में संगीत नहीं है यानी ये आर्ट फ़िल्म है, बोरिंग है इसे देखने दर्शक सिनेमा घरों तक नहीं आयेंगे. अब या तो ये हो सकता है हिमेश रेशमिया की फ़िल्मों की तरह हर जगह गाना ज़बर्दस्ती घुसा दिया जाये या फिर ये कहानी को आगे बढ़ाते हुए होना चाहिये. ’नो वन किल्लिड जेसिका’ दूसरी श्रेणी में आती है मगर संगीतकार अमित त्रिवेदी का संगीत वैसा हर्गिज़ नहीं जैसा देवडी में था, फ़िल्म का टाइटल ट्रेक भले ही अच्छा है मगर जैसे ’नयन तरसे’ या ’परदेसी’ ने फ़िल्म देवडी को और नोकिला बनाया था वैसा कुछ यहां नहीं हुआ है.

’नो वन किल्लिड जेसिका’ देखी जा सकती है मगर बगैर किसी बड़ी उम्मीद के. ’आमिर’ को किनारे रख कर, रानी की ब्लेक भूल कर और अमित त्रिवेदी के ’इमोशनल अत्याचार’ को गुनगुनाना बंद करके.

10 comments:

  1. Nice post.
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  2. दिल्ली में दिल रहा ही कब था।

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  3. बेहतरीन!! वीर तुम बढ़े चलो!!

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  4. सुन्दर.....बहुत अच्छे.

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  5. अभी तक इस फिल्म को देखा नहीं था...किसी ने कहा अच्छी है, किसी को बिल्कुल पसंद नहीं आई....आपका रीव्यू पढ़कर एक बैलेंस्ड नज़रिया मिला, देखूँगी ज़रूर पर उम्मीदों को परे हटाकर...एक अच्छा व पक्षपातरहित रीव्यू...धन्यवाद...

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  6. सबसे बड़ी बात की रियल घटना को फिल्म बनाते वक़्त जो तेज़ी दी है वो काबिल ए तारीफ़ है.. वैसे भी भारत में वास्तविक घटनाओ पर फिल्म नहीं बनती है.. और जो बनती है वे भी स्तरीय नहीं होती.. जेसिका का हिट होना शायद इस तरह की फिल्मे और लाये.. दादा साहब फाल्के ने कहा था कि फिल्मो में से जब सामाजिक सोदेश्यता ख़त्म हो जायेगा तब वो महज तमाशा रह जाएगा.. शुक्र है राजकुमार गुप्ता जैसे लोग अभी मौजूद है.. जिनकी वजह से लोगो को ऐसे मुद्दे को देखने की नज़र मिली जिसके बारे में शायद वो जानते भी नहीं थे..

    अच्छा रिव्यू है फौजिया..

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  7. फौजिया जी, जीवन की तल्‍ख सच्‍चाईयों को आपने सलीके से पेश किया है। बधाई।

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    समाधि द्वारा सिद्ध ज्ञान।
    प्रकृति की सूक्ष्‍म हलचलों के विशेषज्ञ पशु-पक्षी।

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  8. बहुत सुंदर आपका स्वागत हे
    आपका शुक्रिया....

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  9. जीवन की सच्‍चाईयों को आपने सलीके से पेश किया है। बधाई।

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