तो आखिर लाश की क्या कीमत होती है. जब सांसें चली जाएँ तो शरीर की क्या एहमियत बचती है ? ख़ाक में मिल जाना या आग में जल जाना. लेकिन एक जिंदा शरीर, शोर मचाती साँसे किसी हादसे से लाश में बदल जाएँ तो उस लाश की कीमत तय की जा सकती है. दुनिया में कुछ भी हो सकता जो नियम ज़िन्दगी चलाने के लिए बने थे वो ज़िन्दगी के बाद भी इंसान को नहीं छोड़ते. जैसे ये एक नियम है कि इंसान के मरने के बाद उसे उसके धर्म अनुसार दफनाया या जलाया जाएगा. ये भी एक नियम है कि उसको श्रधांजलि दी जायेगी. ठीक वैसे ही ये भी एक नियम है कि अगर कोई इंसान किसी दुसरे की लापरवाही या गलती से परलोक सिधार जाये तो उसके घरवालों को मुआवजा दिया जाए. इसीलिए सरकार ट्रेन हो या प्लेन, मारे जाने वालों को मुआवजा देने का ऐलान करती है. लोअर कोर्ट, हाई कोर्ट या सुप्रीम कोर्ट आदेश देता है कि हंसती खिलखिलाती ज़िन्दगी से मौत के कुएं में जाने वालों के करीबियों को क्या कीमत दी जाए. पिछले दिनों छपरा-मथुरा एक्सप्रेस हादसे में तकरीबन 50 लोग मारे गए और मारे जाने वालों के रिश्तेदारों को 2 लाख रूपए मुआवजा दिए जाने का ऐलान किया गया. इसके अलावा हालही में हुए मुंबई सीरियल ब्लास्ट में मारे गए 20 लोगों की मौत की कीमत पांच लाख लगी.
ट्रेन हादसे में मारे जाने वाले माध्यम वर्गीय होते हैं, स्लीपर क्लास में सोये लोगों की जेबें भी अक्सर सोती ही रहती हैं. वहीँ जनरल डिब्बे में एक टांग पर खड़े रहने वाले अपनी ज़िन्दगी में इतने धक्के और लातें खा चुके होते हैं कि डिब्बे की बदबू और गन्दगी उनके लिए कोई मायने ही नहीं रखती. वहीँ प्लेन में सफ़र करने वाले एक ख़ास तबके के लोग होते हैं. ये या तो रईस हैं या फिर कम से कम अमीरी की तरफ कदम बढाते उच्च माध्यम वर्गीय हैं. जान की कीमत उनके सफ़र करने के माध्यम पर निर्भर है. अगर किसी की जान इसलिए जाती है क्यूंकि रेल पटरी उखड़ी हुई थी या सरकारी यंत्रों में अचानक गड़बड़ी हो गयी या फिर मानवीय भूल की वजह से हुई. तो सरकार ज़िम्मेदारी लेते हुए मुआवज़े की रकम घोषित करती है. ठीक वैसे ही ख़राब सड़कों या ड्राइवर की गलती की वजह से जान जाए तब भी मौत के मुंह में पैसे भरे जाते हैं. बाज़ारों में होने वाले ब्लास्ट में जब कोई औरत साड़ी खरीदते हुए, कोई आदमी चाट-पकोड़ी खाते हुए, कोई बच्चा बर्फ का गोला खाने की चाह रखते हुए चार टुकड़ों में बिखर जाता है तब सरकार 2 या 5 लाख के मुआवज़े से अपनी ज़िम्मेदारी पूरी करती है. वहीँ जब उच्च वर्गीय हिन्दुस्तानी प्लेन से सफ़र करते हुए मरते हैं तो मुआवज़ा उनका ‘लाइफ स्टेंडर्ड’ तय करता है.
असल में किसी को कितना मुआवज़ा मिलेगा इसके लिए एक फॉर्मेट तय होता है जैसे मरने वाले की कितनी तनख्वाह थी, कैसा बिज़नस था. मरने वाले की आय या हैसियत के हिसाब से ही उसके परिवार वालों को देने वाली राशि तय की जाती है. लेकिन अगर किसी माँ का हर महीने 5 हज़ार कमाने वाला बेटा मारा गया तो क्या गेरेंटी है कि वो ज़िन्दगी भर 5 हज़ार ही कमाता. या अगर किसी औरत का पति मजदूर है और वो 2 हज़ार महीना ही कमाता था तो ये बात कैसे मान ली जाए कि वो ज़िन्दगी भर मजदूरी ही करता. क्या पता वो एक दिन अपना काम शुरू करता, तरक्की पाता और एक बड़ा नाम बन जाता. ज़िन्दगी उम्मीदों और संभावनाओं से भरी होती है, यहाँ तो कभी भी कोई भी आसमान छू सकता है. पर कई बार सुरक्षा एजेंसियों के सोने की वजह से तो कभी सरकार के अंगड़ाइयां लेने की वजह से ना जाने कितनी ही संभावनाएं भस्म हो जाती हैं. तो क्या उन मौकों की कोई कीमत नहीं जो शायद उस मजदूर को 2 दिन बाद ही मिल सकता था या उस बेटे की संभावनाओं की कोई अहमियत नहीं जो एक हफ्ते बाद ही प्रमोशन पाने वाला था. मरने वाले छात्र के अगले महीने होने वाली आईएएस परीक्षाओं में टॉप करने की संभावना की भी कोई जगह नहीं.
इस देश में क्रिकेट विश्वकप जीत कर लाने पर खिलाड़ियों के ऊपर पैसों और तोहफों की बारिश होने लगती है. कोई राज्य सरकार 50 लाख देती है तो कोई 1 करोड़. किसी को शानदार गाडी भेंट की जाती है तो किसी को महंगा फ्लेट. केंद्र सरकार, राज्य सरकार, नेशनल पार्टियां हों या राज्य पार्टियाँ सभी के बीच जैसे बड़ी से बड़ी रकम इनाम में देने की होड़ लग जाती है. ऐसी कोई भी जल्दबाज़ी या जज़्बा कभी किसी दुर्घटना के बाद मरने वालों के परिवारों या घायलों के प्रति नहीं दिखाया जाता. जब एक पहले से ही बेहद अमीर खिलाड़ी को 1 करोड़ का इनाम देकर हौसला अफजाई की जा सकती है तो एक गरीब आदमी की मौत पर उसके परिवार का भविष्य सुधारने के लिए कोई सरकार आगे क्यूँ नहीं बढ़ती. वैसे ही रेल मंत्रालय किसी बॉक्सर, तीरंदाज़ के सिल्वर या गोल्ड मेडल जीतने पर, या क्रिकेटर के मन ऑफ़ द मैच जीतने पर उसे ज़िन्दगी भर के मुफ्त रेल पास भेंट करता है. जबकि जो लोग वाकई इसे इस्तमाल कर सकते हैं उन्हें सहानुभूती के तौर पर ऐसा कुछ भी उपलब्ध नहीं करवाया जाता.
मुंबई में पोश इलाकों से गुजरने वाली लोकल ट्रेन साफ़ सुथरी और आकर्षक होती हैं वहीँ गरीबों की बस्तियों या माध्यम वर्गियों के हिस्से आती है बदबू करतो मैली कुचैली लोकल ट्रेन. असल में गरीबों के हक को मार के अमीरों के शौक पूरे किये जाते हैं. बिलकुल सच है ‘वो क़त्ल भी करते हैं तो चर्चा नहीं होता'.
karara vyang....
ReplyDeleteसपाट अवलोकन, सन्नाट व्यंग।
ReplyDeleteन्याय की देवी के हाथ में तराजू के प्रतीक का सही विश्लेषण तो सरकार ने ही किया है ....सामाजिक और आर्थिक हैसियत के हिसाब से सब का अलग-अलग हिस्सा बनता है. कीमत लाश की नहीं उसकी हैसियत और सरकार की असफलता की लगाई जाती है....और जो लाश नहीं हैं उनके मुंह बंद कर दिए जाते हैं.
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