Saturday 4 December 2010

फतवों का फंदा

फतवों को आमतौर पर आदेश के रूप में माना जाता है, गैर मुस्लिम समुदायों में बल्कि खुद मुस्लिम समाज में फतवों को लेकर अनगिनत ग़लतफ़हमियाँ हैं. असल में, मुफ्ती साहब से कोई भी मुस्लमान इस्लाम से जुडी उलझनों के बारे में सवाल कर सकता है. और इसी के जवाब में फतवा दिया जाता है. ये फतवा उस पूछे गए सवाल का जवाब होता है. तो फतवा अपने आप में एक राय है ना की आदेश. ये राय उसी एक ख़ास व्यक्ति को दी जाती है जिसने वो सवाल पूछा हो. उस राय पर अमल करना या ना करना उस इंसान की अपनी मर्ज़ी होती है. फतवों का आना कोई नई बात नहीं है चूँकि ये फतवे धार्मिक उलेमाओं और मुफ्तियों द्वारा दिए जाते हैं तो इन फतवों में किसी आधुनिक राय की उम्मीद करना बेवकूफी होगी. मसला ये है की किसी भी फतवे के आने पर टेलीविजन शोज़ में जिस तरह की बेहस देखी जाती है लगता है मानो ओसामा ने कोई टेप जारी कर दी हो. जिस दकियानूसी राय को समाज में रत्ती भर भी महत्व नहीं मिलना चाहिए उसे जम कर पब्लिसिटी मिलती है. हमारे यहाँ औरत के लिबास और उसकी शख्सियत से जुडी बातों को जितने मजेदार तरीके से परोसा जाता है उतना ही चटखारे लेकर स्वीकार भी किया जाता है.

एक औरत किस मज़हब को अपनाती है, किस तरह के कपडे पहनती है, ऑफिस में किससे बात करती है किसे नज़रंदाज़ करती है. ये किसी भी औरत का बुनियादी हक है उतना ही जितना किसी मर्द को ये हक है कि वो कैसे जिए. किसी भी मुल्क के संविधान के पन्नो पर नज़र दौडाएं तो वहां देशवासियों के हक और जिम्मेदारियों की फेहरिस्त मौजूद है. पर सामाजिक ताने बाने के कारण ज़मीन पर आते आते ये फ़र्ज़ और जिम्मेदारियां यानी राइट्स और ड्यूटीस अपनी शक्ल जेंडर देख कर बदल जाती हैं. एक पंडित अगर भगवा कपडे पहनता है या फिर अघोरी लंगोट धारण करता है तो कोई एतराज़ नहीं जताता पर किसी महिला के ‘ओशो संस्थान’ से जुड़ने पर लोगों की नज़रें टेढ़ी हो जाती हैं. फेशन की दुनिया में रेम्प वॉक अकेले फिमेल मॉडल्स नहीं करती, स्विमिंग कोसट्युम्स सिर्फ लड़कियों के दुबले शरीर पर नहीं सजते बल्कि पुरुष मॉडल्स भी बड़े एतमाद से स्टेज पर उतरते हैं मगर संस्कृति के नाम नारेबाजी बस औरत के कपड़ों पर ही की जाती है. कभी कोई प्रदर्शन ‘मिस्टर इंडिया’ कांटेस्ट के खिलाफ नहीं हुआ.


आज दुनिया दो गुटों में बंट गयी है. पहली वो जो काफी हद तक तालिबानी व्यवस्था की समर्थक है, मज़े की बात तो ये है इन्हें खुद ही नहीं मालूम कि ये कितनी दोहरी शख्सियत रखते हैं. ये इस्लामिक फतवों के विरोधी हैं पर टीवी सीरियलों में हर वक़्त साड़ी में लिपटी, पल्लू सर पर ओढ़े, रोती सिसकती नायिका को आदर्श गृहणी मानते हैं. चार लोगों के बीच बुरखे को औरत की आज़ादी का दुश्मन मानने वाले खुद अपनी बहुओं को घूँघट में ढांक कर रखते हैं. बेटी के कॉलेज से दस मिनट लेट घर आने पर सवालों की झड़ी लगा देने वाले भी नकाब को औरत पर ज़ुल्म मानते हैं. दूसरी तरफ वो लोग हैं जिन्हें महिला सशक्तिकरण सिर्फ ‘मिनी स्कर्ट’ में नज़र आता है. इन्हें लगता है छोटे कपडे और प्री-मेरिटल सेक्स को सपोर्ट करना ही प्रगतिशील विचारधारा है. अपने करियर को महत्त्व देने वाली महिलाओं को 'करियर बिच' पुकारने वाले समाज में अगर कोई लड़की 18 साल की उम्र में पढाई छोड़, शादी करके माँ बन जाती है तो उसे 'डेडिकेटेड वाइफ' कहा जाता है. नकाब ओढ़ कर कांफेरेंस रूम में मीटिंग करती हुई औरत को ये बेकवर्ड मानते हैं. फ्रांस और तुर्की में बुरखे पर प्रतिबन्ध लगाते वक़्त उन औरतों की आज़ादी को कोई महत्त्व नहीं दिया जाता जो अपनी मर्ज़ी से हिजाब लेती हैं. ये कुछ कुछ वैसा ही है जैसे कट्टर इस्लामिक देशो में बुरखे के बिना घर के बाहर निकलने पर पाबंदी है. यहाँ औरत की अपनी मर्ज़ी कोई एहमियत नहीं रखती.

कोई आदमी क्या पहनना चाहता है क्या नहीं ये उसकी खुद की पसंद नापसंद पर निर्भर करता है. आदमी मन मुताबिक जींस भी पहनते हैं, कुरता पजामा भी पहन सकते हैं. चाहें तो शोर्ट्स में भी गली के चक्कर लगा लेते हैं. लेकिन जब बात लड़कियों की आती है मामला थोड़ा सा उलझ जाता है. वो साड़ी पहने तो बहनजी कहलाती है, बुरखा ओढ़े तो पुरातनपंथी कही जाती है और अगर ‘शोर्ट स्कर्ट’ पहने तो आवारा का खिताब पाती है. मुख्तलिफ मुल्कों में मुख्तलिफ तरीकों से औरत के लिए ‘ड्रेस कोड’ बनाने की कोशिश की जाती रही है. जहाँ भी औरत की बात आती है वहां मज़हब कट्टर हो जाते हैं जैसे मुस्लिम कामकाजी महिलाएं मर्दों से बात ना करें, मुस्लिम महिलाएं परदे में रहे, मुस्लिम महिलाएं मोडलिंग ना करें. इस तरह का कोई भी फतवा मर्दों के लिए जारी नहीं होता, इसकी वजह ये है कि कोई मुफ्ती साहब से मर्दों से जुडी सही गलत बातों के बारे में सवाल ही नहीं करता.

इस बात पर गौर करना ज़रूरी होगा कि कुछ महीने पहले एक फतवे में कहा गया था की मुस्लमान कामकाजी महिलाएं अपने पुरुष सहकर्मियों से बात चीत ना करें. इस्लाम के आखिरी पैगम्बर की बीवी 'खदीजा' खुद एक कामकाजी महिला थीं. हदीस के हिसाब से 'खदीजा' अपने वक़्त कि बेहद रईस औरतों में से थीं. ज़ाहिर सी बात है अगर वो ‘बिजनस वूमेन’ थीं तो उनके सहकर्मी मर्द रहे भी होंगे और उनसे ज़रूरी या गेंर ज़रूरी बातचीत भी होती होगी. अपने मौलानाओं की कोई भी बात आँख बंद कर मान लेने वालों को थोड़ा अपना दिमाग भी इस्तेमाल करना चाहिए.

9 comments:

  1. behad vicharottejak lekh!
    sach me sach likha hai.

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  2. सबसे पहले तो अच्छे लेखन के लिये मेरी बधाई। लेकिन यार औरतों को वस्तु से इंसान बनने में अभी बहुत समय लगेगा । ढेर सारे मुकाम और परीक्षा से गुजरना पडेगा। दिक्कत यह है की औरत भी मर्द के विचार को हीं पैमाना मानती है। पहले अपनी नजर में आज़ादी हासिल करें । मर्द तो खुद ब खुद किनारा कर लेंगें। रह गई धर्म की बात , तो मुझे लगता है धर्म ने तोडने के सिवाय कुछ नही किया है । मैं किसी धर्म विशेष की बात नही करता बल्कि सभी एक जैसे हैं। लेकिन रास्ता आप महिलाओं को हीं ढुढना है। और बदलाव आ भी रहा है। जहां तक टी वी चैनलों की बात है तो सब जानते हैं टी वी वाले वही परोसते हैं जो बिकता है। वैसे मैं तो टी वी देख नही पाता । सब तो बिके हुये है कौन सा देखें । इससे अच्छा है न हीं देखें।

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  3. फ़ौज़िया जी,
    दरअसल अभी भी समाज यह उम्मीद कर रहा है कि स्त्रियों को जहां होना चाहिए वहां पहुंचाने में मर्दों को एक अहम भूमिका निभानी होगी जबकि यह महज एक भुलावा होगा. मुट्ठी भर लोग हैं जो स्त्री-विमर्श में हिस्सा लेते हैं. उनमें से भी आधे सोचते तो जरूर हैं इस दिशा में लेकिन उन दिक्कतों, परेशानियों, दुखों और तकलीफ़ों को उतने बेहतर तरीके से समझ ही नहीं पाते जितना वे झेलती हैं. इसके कई उदाहरण हैं जिनमें से एक शायद मैं भी हूं. ये फतवे, धार्मिक सरहदें, शोषण और दुनिया भर के ऊलजुलूल नियमों की जो गठरी औरतों के मत्थे डाल दी जाती हैं, उसमें यह उम्मीद न की जाए कि समाज का एक बुद्धिजीवी वर्ग आकर उसे उतारेगा या उतारने में मदद करेगा. मुझे लगता है कि उन्हें हर स्तर पर बगावत करनी चाहिए बिना सोचे कि परिणाम क्या होगा.

    खैर उम्दा लेख के लिए बधाई

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  4. Must say you have a brilliant knack of writing...way to go Fuaziya....i really like this article!!!

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  5. fauziya....
    behtareen likhe ho....ek bat batao kaheen tum ugr nareewad kee taraph to nahee ja rahee ho....-:)

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  6. आपकी बातें वादों विद्ववताओं के बोंझ से मुक्‍त एक आम हिंदुस्‍तानी लडकी की समस्‍याओं से पैदा हुई समझ है शायद इसे हर औरत महसूस करती होगी चाहे कह पाए या नहीं

    ऐसा सहज लेखन प्रभावित करता है।
    धन्‍यवाद ।

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  7. ... saarthak lekhan ... bhaavpoorn abhivyakti !!!

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  8. विचार काफी संतुलित हैं | एक ओर आपने दकियानूसी विचारों पर चोट की है तो दूसरी स्वयं को आधुनिक कहने वाले तथाकथित महिलासशाक्तिकरण वालो का भी अंधसमर्थन नहीं किया है |

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