Monday 27 December 2010

माया जादू

बेलगाम ख्वाहिशें दर्द के ऐसे रास्ते पर ले जाती है जहाँ से लौटना नामुमकिन होता है. ख्वाब, मोहब्बत, वासना, एक ही माला के मोती हैं.जब तक माला गुंथी हुई है खूबसूरत है पर जैसे ही एक मोती भी गिरा, धीरे-धीरे सारे मोती बिखर जायेंगे. जो मोती साथ में सलीके से बंधे चमकते हैं वो ज़मीन पर बिखर कर पांव में चुभेंगे. केतन मेहता की माया मेमसाब 90 के दशक की सबसे बोल्ड फिल्मों में से एक है. दीपा साही यानी माया खुद से कहती है "आगे मत बढ़ो वरना जल जाओगी, पर रुक गयी तो क्या बचोगी" सपनो के राजकुमार का इंतज़ार करने वाली, रूमानी किस्सों में डूबी रहने वाली , गीत गुनगुनाने वाली माया जब फारुख शेख यानी डॉ. चारू दास से मिलती है तो उसे नज़र आता है वो लम्हा जब दोनों एक दूसरे से बातों बातों में खेलते हैं. लफ़्ज़ों की जादूगरी माया को उस डॉक्टर की तरफ आकर्षित करती है. बड़े से महल में अपने बूढ़े पिता के साथ अकेले रहने वाली माया को फारूख में अपनी रूमानी कहानियों के सच होने का रास्ता दिखने लगता है. फारुख शादीशुदा है पर माया का जादू उन पर चढ़ जाता है. चारू ने अपनी बीवी को कुछ कुछ वैसा ही धोका दिया जैसा आगे चल कर माया चारू को देती है चूँकि माया बेलगाम है उसकी बेवफाई का स्तर इतना ऊँचा हो जाता है की खुद माया का दम घुटने लगता है.


चारू की पत्नी के मरने बाद माया उसकी ग्रहस्ती में आती है. जो माया अपनी पुरानी हवेली में घूमती-नाचती फिरती थी बंद कमरे के मकान में बस जाती है. अब तक सब ठीक था पर परेशानी तब खड़ी हुई जब शादी के बाद भी माया अपने "आईडिया ऑफ़ रोमांस" से बाहर नहीं आई. उसने डायरी पर ख्वाबों का महल बनाना नहीं छोड़ा उसने प्रेमी के साथ भाग चलने के ख्वाब देखने नहीं छोड़े, उसकी रोमांस की चाहत शादी पर खत्म नहीं हुई वो प्रेमी द्वारा सबसे ज्यादा चाहे जाने, बाहों के घेरे में दिन भर बैठे रहने और आँखों की तारीफ़ में कसीदे पढवाने को अब भी बेचैन थी. यही थी माया की भूल. कवितायेँ पत्नी के लिए नहीं प्रेमिका के लिए लिखी जाती हैं ये माया की समझ नहीं आया. अपनी ज़िन्दगी में वो अब भी तलाशती रही वो राजकुमार जो उसे निहारे, उसके लिए बेचैन रहे, आहें भरे. माया को ये मिला जतिन (शारुख खान) में, फिर रूद्र (राज बब्बर) में और फिर जतिन में, प्लेटोनिक फिर जिस्मानी और फिर ओबसेशन. भावनाएं कितनी तेज़ी से तीव्र होती हैं इसकी गति का पता नहीं चलता. मालूम होता है तब जब आप रुकना चाहते हुए भी रुक ना सको. फिर चाहे जितनी भी चैन खींचो ट्रेन रूकती नहीं. माया जानती है "शुरुआत का कोई अंत नहीं"

लेकिन माया का अंत उसके ख्वाबों ने नहीं बल्कि हकीक़त ने किया. अपनी खाली ज़िन्दगी को कभी प्रेम संबंधों से तो कभी महंगे फर्नीचर से भरते हुए माया को अंदाजा नहीं हुआ, ख्वाबों के पैसे नहीं लगते पर ख्वाबों को हकीक़त का रूप देने में खजाने कम पड़ जाते हैं. आँखों पर ख्वाहिशों की पट्टी बांधे वो अपने घर को आलिशान बनाने और अपनी ज़िन्दगी को परियों की कहानी सा बनाने में लगी रही. पर जब उधार हद से पार हुआ और रिश्ता ओबसेशन में तब्दील दोनों ने ही उसके मुह पर तमाचा जड़ा.

अपने घर को नीलामी से बचाने के लिए माया के सामने शारीरिक सम्बन्ध बनाने का प्रस्ताव रखा गया. माया अपने जिस्म को छुपाये अपने पुराने प्रेमी प्रूद्र के पास गयी लेकिन वहां भी माया के जिस्म की ही पूछ थी उसकी तकलीफों के लिए जगह नहीं थी. रूद्र को अब माया में कोई दिलचस्पी नहीं थी जो उसकी मदद करता. माया दूसरे प्रेमी जतिन की बाहों में जा समायी और सब कुछ बचाने की गुहार लगायी. पर जतिन माया के किसी और से हमबिस्तर होने की बात पर आग बबूला तो हो सकता था पर उसे बेघर होते देखते हुए बेहिस था. मदद के दरवाज़े वहां भी बंद थे.

अपनी परियों की कहानी का ये अंजाम माया के बर्दाशत से बाहर था पर माया खूबसूरत इत्तेफाकों में यकीन करती थी तभी उसने एक बाबा का दिया "जिंदा तिलिस्मात" पी लिया. वो घोल ज़हर था या जादुई पानी माया नहीं जानती थी. माया जीते जी ख्वाबों के सच होने की कोशिश करती रही और मरते वक़्त भी किसी अलिफ़ लैला की कहानी के सच होने का इंतज़ार करती रही. ना उसके साथ सच ही रहा ना किस्सा ही. ज़िन्दगी कहाँ खत्म होती है और मौत कहाँ से शुरू होती है ये रास्ता दुनिया के किसी भी नक़्शे पर नहीं है, शायद माया को उस रास्ते पर चलते हुए ख्वाबों की पगडण्डी मिल गयी हो.वो दुनिया की तरह मौत को भी धोका देती हुई उसी पगडण्डी पर आगे चली जा रही हो.

3 comments:

  1. sundar likha hai. is lekh ke maadhyam se maine film dekh lee aisaa lag raha hai.

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  2. excellent observation & marvelous presentation!! Great work!!

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  3. ”कविताएं पत्नी के लिए नहीं, प्रेमिका के लिए लिखी जाती हैं”

    ”फिर चाहे जितने भी चैन खींचो ट्रेन, रुकती नहीं”

    ”ख्वाबों के पैसे नहीं लगते पर ख्वाबों को हकीकत का रूप देने में खजाने कम पड़ जाते हैं”

    मन को छू गयीं ये पंक्तियाँ ! अल्फाज़ और उनकी तरतीब भी! बढ़िया लगी आपकी ये समीक्षा

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