Thursday 17 February 2011

निर्वस्त्र होता न्याय

कहते हैं शरीर नश्वर है, इसे मिट जाना है. शरीर पर लगे घाव भर जाते हैं. वहीं आत्मा को पहुंची चोट के निशान हमेशा उभरे रहते हैं. सभी धार्मिक ग्रंथों का यही मानना है कि आत्मा को दूषित होने से बचाया जाये, किसी के शरीर पर चोट करने से ज़्यादा क्रूर है किसी की आत्मा पर वार करना. पर चूँकि समाज अपने अनुसार हर महान विचार के साथ फ़ेर बदल करता रहा है तो ये कोई अनोखी बात नहीं कि नि:वस्त्र हो विरोध प्रदर्शन करती औरत को मानसिक रूप से असंतुलित बताया जाये.

पिछ्ले दिनों एक पूर्व महिला रॉ अधिकारी ने अदालत में सुनवायी के वक्त अपने कपड़े उतारने शुरु कर दिये, ऐसा इसलिए हुआ क्युंकि वो बार-बार टल रही सुनवाई से तंग आ गयी थीं, इससे पहले भी इस महिला ने पी.एम हाउज़ के आगे खुदकुशी करने की कोशिश की थी. मगर उनके इस कदम को कोई खास तवज्जो नहीं मिली. इस महिला ने अदालत में ऐसा एक बार नहीं दो बार किया, पहली दफ़ा उनके विरोध में चिल्लाते हुए निर्वस्त्र होने को महिला पुलिस कॉनस्टेबलों द्वारा रोक दिया गया. मगर दूसरी बार ऐसा करने पर मानसिक जांच का आदेश दे दिया गया जिसके तहत उन्हें “इंस्टिट्यूट ऑफ ह्यूमन बिहेवियर एंड एलाइड साइंस (इहबास)” में भर्ती किया गया. इस पूर्व महिला रॉ अधिकारी ने अपने सीनियर पर यौन उत्पीड़न का आरोप लगाया था.

हम जिस संस्कृति में जी रहे हैं वहां बचपन से ही लड़की को उसके शरीर की एहमियत इस कदर समझाई जाती है कि खराब मानसिक हालात में भी कोई महिला यूं ही कपड़े नहीं उतारने लगती. यहां तक कि सड़क पर गर्मी या कमज़ोरी से बेहोश होती महिलाओं को भी गिरने से पहले अपना दुपट्टा ठीक करना याद रहता है. घरों में दादी-नानियां भी अपनी साड़ी के पल्लु को कलेजे से लगा कर रखती हैं. कुछ एक जगहें जैसे ’स्ट्रिप क्लब्स’ में जवान लड़कियों को शरीर से एक-एक कर कपड़े अलग करते देखा जा सकता है पर वो भी होशोहवास में जीवन व्यापन के लिये ऐसा करती हैं. वैसे भी हिंदुस्तान में ऐसे क्लब प्रचलन में नहीं हैं. यहां वेश्यावृत्ति भी रात के अंधेरे में, शरीफ़ों की गलियों से दूर गुमनाम कोनों में पलती है. शरीर की जितनी एहमियत इस समाज में है, शरीर का जितना प्रभाव इस समाज पर है उसके कारण आत्मा शरीर के भीतर अपनी पहचान और अपने ऊपर हुए ज़ुल्मों को लेकर रोती रहती है. इस बात से किसी को फ़र्क पड़ सकता है कि एक बीवी को उसका पति दिन-रात पीटे मगर इस तकलीफ़ पर कम ही भौंए उठेंगी कि वो हर वक्त पति की फ़टकार सुनती है.

पिछ्ले दिनों मनिपुर में असम राइफ़ल्स के जवानों द्वारा एक लड़की का बलात्कार और फिर उसे उग्रवादी बताकर हत्या कर देने का मामला सामने आया था. इस घटना पर कुछ युवतियों ने कपडे फेंक कर असम राइफ़ल कार्यालय के सामने प्रदर्शन किया था. गुस्से में नारे लगाती युवतियों को वहां से हटाने में सेना को बड़ी मशक्कत हुई थी. आप किसी को अकेले में निःवस्त्र कर उसका बलात्कार कर उसकी हत्या करते हैं तो ये अपने आप में पूरी नारी जाति को निर्वस्त्र कर उसकी हत्या करना होगा. एक इन्सान में एक दुनिया बसती है और एक इन्सान के साथ अन्याय पूरी इन्सानियत के साथ अन्याय है. जब मन को आघात लग ही गया जब ज़हनी तौर पर किसी को तोड़ ही दिया गया, जब आत्मा को बेपर्दा कर ही दिया गया तो ये कहां मायने रखता है कि शरीर पर पर्दा रहा कि नहीं. यौन उत्पीड़न की शिकार महिला अधिकारी, सुनवायी के दौरान कितनी बार नंगा करते सवालों से इज़्ज़त बचाने की कोशिश में लगी रही. उस पर उसकी इस लड़ाई में तमाम तरह की न्यायिक बाधांए उसके सब्र का इम्तिहान लेती रहीं. अब अगर वो रोज़ ब रोज़ जूझती, कपड़े नोंचते सवालों से तंग आ गयी तो गलती किसकी है. कौन सा आसमान टूट पड़ा जब उसने हिम्मत हारकर कपड़े फेंक दिये कि ये लो अब कुछ बचा ही नहीं तो छुपाऊं क्या.

क्या ये बहतर नहीं होता कि उसे मानसिक इलाज के लिये भेजने कि बजाय उसकी बात सुन ली जाती. समय भी कम लगता और वो खुद को ठगा हुआ भी ना महसूस करती. अदालत की अपनी मान-मर्यादा है, पर उसी मर्यादा को लाघंते हुए जब अदालत में बलात्कार या यौन उत्पीड़न जैसा मसलों पर पीड़ित के मान को तार-तार किया जाता है तो क्या उसकी ज़िम्मेदारी भी अदालत की नहीं बनती है. वैसे भी कहते हैं इज़्ज़त देने पर ही इज़्ज़त मिलती है.

द्रौपदी का अपमान ये नहीं था कि भरी सभा में उसका चीर-हरण हुआ. उसकी साड़ी का छोर तो वहीं से खिंचना शुरु हो गया था जब पांडवों ने द्रौपदी को वस्तु समझ दाव पर लगाया. जब सम्मान के टुकड़े हो ही गये तो स्तन को छुपाने का क्या महत्व है.

15 comments:

  1. द्रौपदी का अपमान ये नहीं था कि भरी सभा में उसका चीर-हरण हुआ. उसकी साड़ी का छोर तो वहीं से खिंचना शुरु हो गया था जब पांडवों ने द्रौपदी को वस्तु समझ दाव पर लगाया. जब सम्मान के टुकड़े हो ही गये तो स्तन को छुपाने का क्या महत्व है

    ये सही कहा तुमने...

    ReplyDelete
  2. You raise a good question. It's pity nowadays that media is avoiding serious questions and concern.

    ReplyDelete
  3. तुम्हारे तर्कों से सहमत हूं. शत प्रतिशत.

    और द्रौपदी का अपमान तो तभी से शुरू हो गया था जब मां के कहने पर उसे पांचों भाईयों में बांट लिया गया था, जबकि मां को यह पता ही नहीं था कि वह कोई चीज है या एक जीती-जागती स्त्री. पर अर्जुन ने उस स्त्री को चीज ही समझा तभी तो बांट लिया.

    ReplyDelete
  4. स्त्री देह नहीं है। संगिनी है। पुरुष के मन में जब तक यह भाव विश्वास नहीं बनेगा, तब तक स्त्री का प्रतिरोध जारी रहेगा, तरीके कुछ भी हों। फिर देह के ज़रिए विरोध क्यों ना हो। स्त्री के पास पुरुष ने छोड़ा ही क्या है...उसे घेरा भी है, तो देह के ज़रिए। चाहा है, तो देह की ख़ातिर। मैं स्त्रीवादी नहीं हूं, रत्तीभर भी नहीं, किंतु जानता हूं कि बहुतेरे पुरुषों की दृष्टि में स्त्री देह भर है। वैसे भी, स्त्री की सबसे बड़ी ताकत और कमज़ोरी, दोनों उसकी देह ही हैं। ऐसे में वो प्रतिरोध का ज़रिया इसे बनाएंगी ही। वैसे भी, स्त्री अब लज्जा की चूनर ओढ़ने को तैयार नहीं है...उसमें गुस्सा इस बात का भी है कि शर्म और हया की सारी परिभाषाएं पुरुषों ने गढ़ी हैं और खुद को इससे एकदम बाहर और छूटमुक्त रखा है। मैं आपके तर्कों से सहमत हूं और यह दुर्भाग्यपूर्ण भी है।

    ReplyDelete
  5. आपकी पोस्ट और मित्रों की टिप्पणियों में काफ़ी कुछ आ गया है। इससे ज़्यादा और इससे अलग कुछ न तो मुझे सूझ रहा है न मैं कहने की हालत में हूं।

    ReplyDelete
  6. सच कहा आपने, इज्ज़त तो मन में ही होती है।

    ReplyDelete
  7. .

    मैंने इसी पोस्ट पर टिपण्णी की थी प्रातः । याद नहीं आ रहा कहाँ की थी । उस पोस्ट के नीचे आपका नाम भी था । यदि संभव हो तो मेरी उस टिपण्णी कों यहाँ भी कॉपी पेस्ट कर दिया जाए ।

    आभार ।

    .

    ReplyDelete
  8. मन को उद्वेलित करदेने वाली बहुत सुन्दर प्रस्तुति..जब तक हमारे समाज में औरत को सिर्फ एक वस्तु समझा जाता रहेगा और उसको उसका उचित स्थान नहीं दिया जाएगा, तब तक उसके साथ यह अन्याय होता रहेगा..

    ReplyDelete
  9. बहुत ही उम्दा विचारोतेजक आलेख.
    आप की शैली भी बढ़िया.
    सलाम

    ReplyDelete
  10. http://www.google.com/profiles/sharmamadan33120 February 2011 at 20:53

    मैं आपके तर्कों से सहमत हूं और यह दुर्भाग्यपूर्ण भी है। जब मन को आघात लग ही गया जब ज़हनी तौर पर किसी को तोड़ ही दिया गया, जब आत्मा को बेपर्दा कर ही दिया गया तो ये कहां मायने रखता है कि शरीर पर पर्दा रहा कि नहीं.
    बहुत ही उम्दा विचारोतेजक आलेख.
    आपका आभार ।

    ReplyDelete
  11. सहमति के अलावा कुछ नहीं लिखने के लिए .

    ReplyDelete
  12. एक इन्सान में एक दुनिया बसती है और एक इन्सान के साथ अन्याय पूरी इन्सानियत के साथ अन्याय है. ye bilkul sach hai ki ek insan me ek duniya basta hai lekin jab insaniyat ka khun jab apne aaspaas hi rahne wale hi kar de to lazimi hai ki dard duguna ho jayega
    aap ne to itna sach aur kadwa sach likha kai log to tilmila gaye honga. aaj ke saman ki ase hi logo ki jaroorat hai
    mai aap ki tarif karta hu
    thanx
    avanish srivastava
    sr designer
    hindustan

    ReplyDelete
  13. कोई भी कृत्य पृथक-पृथक सन्दर्भों में पृथक-पृथक सन्देश देता है. अन्याय के विरुद्ध न्याय के लिए जूझती महिला की जबकोई सुनवाई नहीं होती और वह सब ओर से निराश हो चुकी हो तो वह कुछ भी कर सकती है. प्रश्न वहां विवेक अविवेक का नहीं होता ...एक तात्कालिक प्रतिक्रिया होती है.....यह चीखने-चिल्लाने, ह्त्या, आत्म ह्त्या ...या निर्वस्त्रता ..किसी भी रूप में हो सकती है. ....आत्म ह्त्या और निर्वस्त्रता जैसी घटनाएं घोर निराशा और आक्रोश का परिणाम होती हैं ...हर स्थिति में ये घटनाएं पूरे समाज को ही नंगा करती हैं ....स्त्री का नग्न होना हमारी व्यवस्था का नग्न होना है .....और न्याय व्यवस्था को बेनकाब करना है

    ReplyDelete
  14. बहुत सही कहा फौजिया तुमने जितनी तारीफ़ करूँ उतने ही शब्द कम हैं इस लेख की तारीफ़ के लिए! बहुत ही खूबसूरती से तुमने यहाँ अदालत के उस फैंसले के कपडे उतारे हैं जिसने उस औरत को पागलखाने भेजा था !

    ReplyDelete