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एक प्राइवेट स्कूल में भी गाली-गलोज, मार-पिटायी खूब होती है. हां, ये फ़र्क ज़रूर है कि गालियां अंग्रेज़ी में दी जाती हैं और लड़ाई-झगड़े सिर्फ़ बच्चों तक सीमित होते हैं. टीचरों में इतनी हिम्मत नहीं होती कि वो बच्चों को हाथ भी लगा दें. अगर किसी टीचर ने ऐसा कर दिया तो खुद स्कूल प्रिंसिपल उस टीचर को सबक याद करवाती दिख जाती है. वहीं ज़्यादातर सरकारी स्कूलों में बच्चों पर हाथ उठाया जाता है जिसे किसी भी रूप में सही नहीं ठहराया जा सकता. हो सकता है सरकारी स्कूलों से आई.ए.एस और आई.पी.एस निकलते हों. ऊंचे ओहदों पर बैठे ज़्यादातर लोग सरकारी स्कूलों से ही पढ़े हों पर इसका ये मतलब नहीं कि जो गलत है उसे भी सही मान लिया जाये. अक्सर ही सामने आता है कि गांव-देहात में सरकारी स्कूलों के अध्यापक खुद ही ठीक से ए,बी,सी,डी नहीं जानते और बच्चों को गलत अंग्रेज़ी पढ़ाते हैं. गणित, हिन्दी और समाज-शास्त्र पढ़ाने के लिये एक ही टीचर होते हैं, और विज्ञान के नाम पर सिर्फ़ सवाल-जवाब रटाए जाते हैं. सवाल उस व्यवस्था पर उठता है जो चौदह साल तक के बच्चों को मुफ़्त शिक्षा देने का दावा तो करती है पर असल में कई जगहों पर तो ब्लैक बोर्ड तक नहीं होता, कुर्सी-टेबल और किताबें तो दूर की बात है. कहते हैं आधी जानकारी होना, जानकारी ना होने से ज़्यादा खतरनाक होता है. हमारे ज़्यादातर सरकारी स्कूलों में यही आधी जानकारी दी जाती है.
प्राइवेट स्कूल भी दूध के धुले नहीं हैं, कई महंगे प्राइवेट स्कूलों में अच्छी शिक्षा के नाम पर बच्चों को हिन्दी पढ़ाना बन्द कर दिया गया है. कई स्कूलों में हिन्दी में बात करने पर ‘फ़ाइन’ लगता है. यहां तक कि ऐसे भी प्राइवेट स्कूल हैं जो बच्चे का दाखिला लेने से पहले एक खास तरह का फ़ॉर्म भरवाते हैं, जिनमें कुछ ऐसे सवाल होते हैं कि आप हफ़्ते में कितनी बार मैक-डॉनल्ड्स जाते हैं, किस ब्रैंड के कपड़े पहनते हैं या आपके कितने रिश्तेदार बाहरी मुल्कों में रहते हैं. बेशक श्री श्री रविशंकर से जीने की कला वही लोग सीख पाते हैं जो ऐसे किसी फ़ॉर्म को कॉलर उंचा करके भर पाते हैं. ऐसे में चांद जैसी गोल आंखों और आधे चांद जैसी मुस्कान वाले रविशंकर को अपना टार्गेट देखते हुए ही बात करनी है. किसी को रिझाने का सबसे अच्छा तरीका है, उसे उंचा कहा जाये और दूसरों को गलत साबित किया जाये. रविशंकर अपनी भीड़ को खुश करने की कोशिश में निजीकरण के फ़ायदे ही गिनवायेंगे. भले ही इसके लिये गलत बयानी ही क्युं ना करनी पड़े. मगर इसका ये मतलब कतई नहीं है कि हम सरकारी स्कूलों के काले चिट्ठे भूल जायें और पूरी तरह से उन्हें आदर्श स्कूलों का दर्जा दे दें. क्लास के वक्त बच्चों का बाहर ग्राउंड में खेलना, टीचर का वक्त पर क्लास में ना आना, या स्कूल ही नहीं आना, बोर्ड परीक्षा में चीटिंग होना, टीचरों का जाति-धर्म देख कर भेदभाव करना, ये सबकुछ हमारे सरकारी स्कूलों में होता है. रविशंकर कुछ भी कहें पर हमें इस सच से मुंह नहीं मोड़ना चाहिये. कपिल सिब्बल का कहना कि “मैं सरकारी स्कूल से पढ़ा हूं पर मैं नक्सलवादी नहीं हूं” काफ़ी नहीं है.
गांव-देहात और छोटे शहरों में तो कई सरकारी स्कूल ऐसे हैं जहां तबेले खुले हुए हैं, जिन्हें सिर्फ़ कमेटी हॉल की तरह शादियों के लिये इस्तेमाल किया जाता है. इन स्कूलों के टीचरों को वक्त पर तन्ख्वाह तो मिलती है, पर इलाके के बच्चे ‘क’ और ‘ख’ का फ़र्क नहीं समझते. अगर बात सिर्फ़ दिल्ली और महानगर के सरकारी स्कूल की हो तब भी इतनी लापरवाही सामनी आती है जिसमें टीचरों का बच्चों को झिड़क कर बात करना, छड़ी से मारना, कोहनी पर फुट्टे से मारना, उंगली के जोड़ों पर पेन्सिल से चोट करना, वक्त पर स्लेबस पूरा ना करना और सज़ा के तौर पर घंटों धूप में चक्कर लगवाना शामिल है.
बच्चे कांच की तरह होते हैं इन्हें बहुत ज़्यादा परवाह की ज़रूरत होती है. बिल्कुल संभाल कर रखना, बिल्कुल संभाल कर उठाना. अगर एक बार गलती से भी चटक पड़ गयी तो फिर वो कांच का हिस्सा बन जायेगी. सिर्फ़ ये सोच कर संतुष्टी कर लेना कि हम नक्सली पैदा नहीं करते काफ़ी नहीं है. एक दुतकारा हुआ, झिड़का हुआ बचपन उम्रभर की टीस देता है. एक बच्चे का मानसिक विकास और निडर होकर हंसना-खेलना, गलतियां करना उतना ही ज़रूरी है जितना वक्त पर खाना-पीना और सोना. अफ़सोस हम अपनी आने वाली पीढ़ी के खान-पान की एहमियत तो समझते हैं पर सबसे अहम उसके बचपन की कद्र नहीं कर पाते.
बेशक... संस्कार ना तो सरकारी स्कूल में पढ़ने से आते हैं और ना ही प्राइवेट स्कूल में परोसे जाते हैं. संस्कार मिलते हैं घर से, किताबों से और अच्छी सोहबत से... बेहद उम्दा...
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सौ बातों की एक बात कहदी आपने - संस्कार ना तो सरकारी स्कूल में पढ़ने से आते हैं और ना ही प्राइवेट स्कूल में परोसे जाते हैं. संस्कार मिलते हैं घर से, किताबों से और अच्छी सोहबत से.
एक सार्थक आलेख के लिए आदरणीया फौजिया रियाज़ जी आपके प्रति साधुवाद !
ऐसे सुलझे हुए लेखन की समाज को आवश्यकता है ... आभार!
~*~नव संवत्सर की बधाइयां !~*~
शुभकामनाओं-मंगलकामनाओं सहित…
- राजेन्द्र स्वर्णकार
अच्छा लेख है, फौजिया. दर-अस्ल पूरे ही सिस्टम को मेजर सर्जिकल ऑपरेशन की आवश्यकता है.
ReplyDeleteबात ठीक है फौज़िया तुम्हारी संस्कार ना तो सरकारी स्कूल में पढ़ने से आते हैं और ना ही प्राइवेट स्कूल से....
ReplyDeleteसंस्कार ना तो सरकारी स्कूल में पढ़ने से आते हैं और ना ही प्राइवेट स्कूल में परोसे जाते हैं. संस्कार मिलते हैं घर से, किताबों से और अच्छी सोहबत से.
ReplyDeleteये सही बात है!
हमारे समाज की ये जाने कौन-सी आदत है कि जैसे ही कोई हमारी किसी चीज़ के बारे में कुछ गलतबयानी करता है, हम फ़ौरन ही झंडा लेकर उसकी वकालत में लग जाते हैं... चाहे उसमें खोट हो या न हो. रविशंकर का बयान तो बेहद सड़कछाप है ही और हो भी क्यूं न.. वे सेल्समैन हैं. उन्हें अपना सामान बेचना है. लेकिन हम असलियत से बिलकुल ही मुंह फेरकर श्री श्री को गरियाने लगेंगे और सरकारी स्कूल की महानता के किस्से सुनाने लगेंगे, तो इससे क्या असलियत बदल जाएगी? फौजिया आपने ऐसे मौके पर ये नज़रिया सामने लाया, इसके लिए आप बधाई के पात्र हैं.
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