Thursday, 7 May 2015

सलमान का बचाव या समाज का अलगाव


दुनिया में ‘अपनों’ का दायरा आमतौर पर धर्म, जाति, देश या सभ्यता से तय होता है. मानव अपनी मनोवृति के चलते मुश्किल वक़्त में ‘अपनों’ को ही बचाता है बल्कि ज़रूरत पड़ने पर इन ‘अपनों’ से अलग किसी को इंसान मानने से भी इन्कार करता है. सलमान खान के ‘हिट एंड रन’ केस में सेशन कोर्ट के फ़ैसले ने भारत में मौजूद ‘अपनों’ के दो समूह उजागर किए हैं. ये दोनों ही समूह दुनियाभर में पाए जाते हैं लेकिन इस फ़ैसले के बाद देश में इनकी सक्रियता अचानक बढ़ गई है. ये बात सच है कि जब इन्सान खुद को किसी समूह का हिस्सा मानता है तो उसका पहला लक्ष्य अपने समूह के बीच सुरक्षाभाव स्थापित करना होता है. इसके अलावा समूह का वो सदस्य दूसरे समूहों को हीनभाव से देखना भी शुरू कर देता है.

सलमान खान के हिट एंड रन मामले में हमने टीवी पर फ़ैन्स के मेलोड्रामा को फ़ूहड़पन में बदलते देखा. टीवी पर फ़िल्म इंडस्ट्री की सलमान के प्रति सहानूभूति भी दिखी. ये दोनों ही लोग सलमान से जुड़े दो अलग-अलग समूहों का हिस्सा हैं.

पहला समूह भरे पेट, भरे बैंक-बैलैंस और भरे नाम-ओ-शोहरत वालों का है. हमने इनकी बेहूदगी के नज़ारे वैसे तो कई बार देखे हैं, हमने इन्हें क्लबों में लड़ते-झगड़ते देखा, किसी खास जगह पर एंट्री ना मिलने के चलते सिक्योइटी गार्ड से भिड़ते देखा, शराब पी कर मीडिया वालों से गाली-गलोज करते भी देखा. सभी ने ये सब देखा पर इस समूह की हर ख़ता माफ़ है. दुनिया दो तरीक़ों से चलती है, पहला क़ानून और दूसरा नैतिक दायित्व. इंसान क़ानून से छेड़छाड़ कर भी दे तो उसके अन्दर समाज के प्रति मौजूद नैतिक दायित्व संतुलन संभाल लेता है. हिट एंड रन तो नाम से ही ज़ाहिर है, शराब पीकर गाड़ी चलाना, लोगों को ‘हिट’ करना क़ानून का उल्लंघन है और जब सड़क पर आपकी गाड़ी के नीचे दब कर लोग कराह रहे हैं उस वक्त वहां से ‘रन’ क़ानून और नैतिकता दोनों को ही मुंह चिढ़ाता है. पहला समूह कहता है कि सड़क सोने के लिए नहीं होती, सड़क पर कुत्ते सोते हैं, बड़ी सफ़ाई से ये लोग इस बात को दरकिनार कर देते हैं कि सड़क शराब पीकर आधी रात को गाड़ी चलाने के लिए भी नहीं होती.

दूसरा समूह फ़ैन्स का है, ‘फ़ैन’ शब्द अंग्रेज़ी के शब्द ‘फ़नैटिक’ से बना है जिसका शाब्दिक अर्थ होता है कट्टरपंथी. जब बात फ़िल्म ऐक्टरों की आती है तब ये शाब्दिक अर्थ बड़ी आसानी से व्यवहारिकता में बदल जाता है. जहां पहला समूह एकजुटता से अपने साथी का बचाव करता हैं क्युंकि वो उसे अपने समूह का हिस्सा मानता हैं. वहीं ये दूसरा फ़ैन समूह अपने मनपसंद ऐक्टर को इसलिए बचाने की कोशिश करता है क्युंकि वो फ़ैन हैं. बस, इतना ही. उनके मनपसंद ऐक्टर ने किसी को पकड़कर पीट दिया, किसी को सड़क पर गाली दे दी, उसके घर से हथियार निकले हों या फिर चाहे उसकी लापरवाही से किसी की जान ही क्युं ना चली गई हो, जैसा कि अर्थ है ये कट्टरपंथियों की तरह आंख बंद करके सिर्फ़ पूजा करते हैं. सवाल ये भी है कि ये अंधभक्त बने कैसे? ग्लैमर, पैसा, स्टाइल, ओवर द टॉप ज़िंदगी की चमक इसका बहुत बड़ा कारण है. हम एक खास तरह का जीवन चाहते हैं पर उसे पा नहीं सकते, ऐसे में हम ख़ुद को इन सिलेब्रिटियों में तलाशना शुरू करते हैं. जॉन डी मोर (पीएचडी, कंफ़्यूज़िंग लव विद ऑब्सेशन के लेखक) ने इस एहसास को ‘सिलेब्रिटी वर्शिप सिंड्रोम’ माना है. इस सिंड्रोम में पड़े लोग किसी ख़ास सिलेब्रिटी के लिए लड़-भिड़ सकते हैं और मामला थोड़ा और गंभीर हो तो बात ‘स्टॉकिंग’ तक भी पहुंच जाती है.

सलमान हिट एंड रन मामले में इन दोनों ही समूहों का तर्क है, पिछले बारह साल में सलमान का जी-जान से चैरिटी के कामों से जुड़ा रहना. मुद्दा ये नहीं है कि आज सलमान खान कितना दान-पुण्य करते हैं. वो आज कैसे हैं और किन कामों से जुड़े हैं के आधार पर उन्हें माफ़ी नहीं मिल सकती. बेशक किसी का बदलना, समाज को बेहतर बनाने की कोशिश करना एक सराहनीय क़दम है, इसकी हौसला अफ़ज़ाई भी होनी चाहिए. मगर यहां हालात अलग हैं. भारत में क़ानूनी प्रकरण सदियों तक चलते हैं, इस बीच गवाह, अभियुक्त और पीड़ित इंसाफ़ के लिए एक लम्बा सफ़र तय करते हैं. अगर भारत में क़ानूनी व्यवस्था का इतना बुरा हाल ना होता तो सलमान को आज बारह साल बाद सेशन कोर्ट का फ़ैसला ना मिलता, उन्हें ये सज़ा कम से कम दस साल पहले ही मिल चुकी होती. वो अपनी सज़ा पूरी भी कर चुके होते. अब क्युंकि देश में संसाधनों की कमी है, क़ानूनी प्रकरण लचर हैं, जान लेने की हद तक उबाऊ है तो इसका फ़ायदा सीधा अभियुक्त को मिलता है.

सच तो ये है कि अपने हक़ और इंसाफ़ के लिए लड़ना कभी आसान नहीं होता. मज़बूत से मज़बूत लोग कमज़ोर पड़ते हैं और हिम्मत हार जाते हैं. ऐसे में वो जिनके पास रहने के लिए अपना घर तक नहीं था वो कैसे खुद के लिए खड़े होंगे? एक स्वस्थ समाज बनाने के लिए लोगों को पीड़ित की कहानी में दिलचस्पी होना ज़रूरी है. अगर हम पीड़ित और उसके परिवार के साथ खड़े नही हो सकते, तो कम से कम इतना तो करें उन्हें उनकी लड़ाई पर शर्मिंदगी महसूस ना करवाएं. उन्हें चीख़-चीख़ कर ये संदेश ना दें कि तुम्हारी जान की कोई क़ीमत नहीं है. समझना होगा कि अगर ये लोग पलट कर आए, आपकी बातें सुनकर इन्होंने खुद को इंसान समझना छोड़ दिया तो चार दीवारी कितनी भी ऊंची हो, जब ये चढ़ाई करेंगे तो कोई क़ानून और नैतिकता नहीं बचाएगी क्युंकि उन्हें तो आपने ख़ुद ही एड़ी चोटी का ज़ोर लगाकर क़त्ल किया है.  
   
आप उन्हें इंसाफ़ नहीं दे सकते तो कम से इंसाफ़ का एहसास तो रहने ही दीजिए. इतनी बेशर्मी से इस पर्दे को ना खींचे कि आर-पार का फ़र्क बचे ही ना, याद रखिए इतिहास बताता है, इसमें नुकसान आपका ही होगा. 

1 comment:

  1. समाज में बहुत गलत संदेश गया है । न्याय व्यवस्था पक्षपातपूर्ण हो गयी प्रतीत होती है । इससे एक दूर ध्वनि यह भी उत्पन्न होती है कि हमें भी "विशिष्ट" बनने की आवश्यकता है ताकि हम सारे नियमों-कानूनों को अपना ग़ुलाम बना सकें ।

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