कीर्ति दिल्ली में
रहने वाली कॉन्वेंट स्कूल से पढ़ी अंग्रेज़ीदां परिवार की लाडली बेटी है. हालांकि अब
वो किसी की बहु, बीवी और मां भी है पर आज भी सबसे पहले बेटी ही है. 28 साल की शादीशुदा
बेटी. जैसा कि आमतौर पर हिंदुस्तानी समाज में होता है, अपने परिवार में कीर्ति की इज़्ज़त
औरत के तौर पर नहीं बल्कि किसी ना किसी रिश्ते के रूप में है. समाज में रहने के लिए
उसने खुद भी इन रिश्तों को अपनी पहचान बना लिया है. हां, पूरी दुनिया में एक ऐसी जगह
है जहां न वो किसी रिश्ते की चुनरी ओढ़ती है, ना किसी लिहाज़ के पल्लू से सिर ढंकती है.
घर से आधे घंटे की दूरी पर मौजूद ये करामाती जगह उसका ऑफ़िस है. जहां वो बतौर टीम-लीडर
काम करती है.
ऑफ़िस में सब उससे थर-थर
कांपते हैं. उसके गुस्से भरी एक नज़र से फ़ाइलें टाइम पर पूरी हो जाती हैं. अपने डेस्क
पर बैठे-बैठे ही जब वो कड़क आवाज़ में किसी को आवाज़ देती है, तो सुनने वाला शामत के लिए
तैयार हो जाता है. कीर्ति की एक-आध सहेलियों के अलावा कोई नहीं जानता कि वो कितनी दोहरी
ज़िन्दगी जी रही है. ये सिर्फ़ उसकी मुट्ठीभर सहेलियां जानती हैं कि कभी-कभी कीर्ति के
लिए सांस लेना भी कितना मुश्किल हो जाता है.
अपनी कॉलेज की सहेलियों
की तरह उसने लव-मैरिज नहीं की. पापा ने जहां कहा, जब कहा चुपचाप शादी कर ली. कीर्ति
के पिता एयरफ़ोर्स में हैं, घर पर उनका रुबाब था. ये माना जा सकता है कि ऑफ़िस में कीर्ति
की जो धाक और अन्दाज़ है वो उसे अपने पिता से विरासत में मिली है. वहीं उसकी मां एक
नर्म मिजाज़ वाली हाऊज़वाइफ़ हैं, सो ये भी माना जा सकता है कि अपने ससुराल, पति और बच्चे
का ख्याल रखने की आदत उसे अपनी मां से मिली है.
कीर्ति की शादी 20
साल की उम्र में कर दी गई थी. ग्रैजुएशन का आखिरी साल पूरा हुआ भी नहीं था और वो अपनी
शादी की शॉपिंग में बिज़ी हो गई थी. उसे याद है एग्ज़ैमिनेशन सेंटर में उसके हाथों का
चूड़ा और मांग में गहरा लाल सिंदूर देखकर कई स्टूडेंट्स उसे पलट-पलट कर देखते थे. तब
दिन के वक्त उसका चेहरा शर्म और झेंप से सुर्ख़ हो जाया करता था. रातें भी ज़्यादा अलग
कहां होती थीं, फ़र्क बस इतना है कि रात को बारी आंखों की होती थी.
शादी की पहली रात ही
कीर्ति का पति उसपर वेहशियों की तरह टूट पड़ा था. वो कोई बच्ची नहीं थी, सब कुछ जानती
थी बल्कि काफ़ी हद तक पहली रात के लिए उत्तेजित भी थी. मगर जो हुआ उसका तो अन्दाज़ा भी
नहीं था. कीर्ति को उसके पति ने ना तो प्यार-दुलार से बिस्तर पर चलने के लिए तैयार
किया, ना ही उस दौरान कीर्ति के विर्जिन होने का ख्याल रखा. हां, उम्र में उससे 7 साल
बड़ा ये पति खुद कितना बड़ा खिलाड़ी था इसका अन्दाज़ा उसे वक्त के साथ-साथ हो गया.
शुरू के कुछ साल तो
वो समझ ही नहीं पाई कि उसके साथ हो क्या रहा है. किससे बात करे? किससे बांटे? शायद
असल में सब ऐसे ही होता हो? शायद उसने फ़िल्मों में जो रंगीनियां देखी हैं वो सिर्फ़
पर्दे का खेल हो, हो सकता है लड़कियों को वाक़ई सेक्स अच्छा ना लगता हो. अचानक ही वो
खुद को महिलाओं की मैगज़ीन में सेक्स-समस्याओं के कॉलम में छपने वाले सवाल-जवाब में
ढूंढने लगी थी. जो कुछ उसपर हर रात गुज़रता था वो आम था. उसने देखा, कई औरतें अपने पति
के बिस्तर पर क्रूर होने से त्रस्त हैं, उसने देखा, ये औरतें औरंगाबाद, अलाहबाद, पटियाला,
दिल्ली और देश के कई हिस्सों में रहती हैं. उसने ये भी देखा कि सवालों का जवाब देने
वाले एक्स्पर्ट डॉ. विरेंद्र त्रिपाठी इन सवालों का जवाब कुछ यूं देते हैं “अपने पति
से इस बारे में बात करें. उन्हें बताएं कि आपको बिस्तर पर क्या पसंद-नापसंद है. कमरे
में फूल रखें जिससे आपके पति का मूड अच्छा रहे. अपने पति को बिस्तर पर झिड़कें ना, इससे
आपके रिश्ते पर बुरा असर पड़ सकता है.” इन मैगज़ीनों से उसने बहुत कुछ सीखा. उसने पाया
कि ये मैगज़ीनें उसे अपनी मां की तरह ही शांत, सभ्य, मिलनसार, ससुराल और पति को खुश
रखने वाली आदर्श महिला बनाना चाहती है.
24-25 की उम्र तक पहुंचते-पहुंचते
कीर्ति ये सब बन चुकी थी. पिछले 3 साल से वो नौकरी कर रही थी. उसके परिवार में बहुओं
का नौकरी करना बुरा नहीं माना जाता क्युंकि वो आज के ज़माने के लोग हैं. घर में नौकर-चाकर
हैं तो अपने ऑफ़िस में काम करने वाली बाक़ी औरतों की तरह उसे घर पहुंच कर खट कर सफ़ाई,
झाड़ू-पोछा या बर्तन नहीं करना पड़ता. अब तो उसका बेटा भी पांच साल का हो गया है. उससे
कभी पूछो कि तलाक़ क्यों नही ले लेती? तो वो नाराज़ हो जाती है. कहती है कि उसने इस बारे
में कभी सोचा नहीं क्युंकि वो अपने मम्मी-पापा को दुखी नहीं देख सकती. सो, वो आज भी
सबसे पहले बेटी ही है.
मायके में सब सुकून
से हैं, कुछ साल पहले पिता को पैरेलिसिस हो गया मगर वो बेटी को खुश देखकर हंस लेते
हैं. सब कुछ सही है, बस रातें आज भी काली हैं. कीर्ति को आज भी समझ नहीं आता कि क्या
वाक़ई औरतें सेक्स का आनंद ले सकती हैं? अब तो उसे फ़र्क भी नहीं पड़ता. चुपचाप लेट जाओ,
जो कहे, जैसे कहे करो, चोट लगे, दर्द हो तो चीख़ों मत क्युंकि कमरे के बाहर तो आवारा
औरतों की आवाज़ जाती है.
प्रायः ऐसा ही होता है ....यह विचारणीय है किंतु सुधार के लिये पुरुष की चेतना जाग्रत होनी चाहिये । कौन करेगा यह ? कैसे होगी चेतना जाग्रत ? मुझे लगता है कि शायद यह उस संस्कार का अभाव है जो पुरुष को स्त्री के लिये उपयुक्त बनाने के लिये आवश्यक है । पुरुष "पाने" के अधिकार से ग्रस्त है और "देने" की उदारता से वंचित ।
ReplyDeleteप्रायः ऐसा ही होता है ....यह विचारणीय है किंतु सुधार के लिये पुरुष की चेतना जाग्रत होनी चाहिये । कौन करेगा यह ? कैसे होगी चेतना जाग्रत ? मुझे लगता है कि शायद यह उस संस्कार का अभाव है जो पुरुष को स्त्री के लिये उपयुक्त बनाने के लिये आवश्यक है । पुरुष "पाने" के अधिकार से ग्रस्त है और "देने" की उदारता से वंचित ।
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