Saturday 23 April 2011

धूप सहती छांव

मां मैंने कभी तुझसे पू्छा नहीं,

शादी की अगली सुबह

लोगों की नज़रों से

कैसे शर्माई थी तू,

मां मैंने कभी जाना नहीं

मुझे गर्भ में

पा कर क्या घबरायी थी तू,

मैंने कभी समझा नहीं

पिता ने जब गुस्से में

तुझ पर हाथ उठाया

तो कैसे थराई थी तू...

मां मैंने कभी तेरा हाथ

थाम कर सवाल ना किया,

क्या पिता से पहले भी

तुझे किसी ने छुआ...

मां मेरे लिये तू जब भी

कुछ खरीद लाती है तेरी आखें

रौशन होती हैं,

पर क्यूं खुद के लिये तुझ में

सारा जोश है धुआं…

मां तू हौसले से क्यूं नहीं भरती,

कभी बस खुद के लिये

कोई राह क्यूं नहीं चुनती...

मां मैं तेरी छांव में थी

पर दूर रही,

तेरी बेटी तो बनी

पर सहेली ना हुई …

13 comments:

  1. @ पर क्यूं खुद के लिये तुझ में ....सारा जोश है धुआं…

    माँ सबके लिए लाती है सब कुछ ...खुद के लिए छोड़कर सब कुछ.

    फौजिया जी ! एक टीनेज़र की दृष्टि से माँ को देखने का सफल प्रयास किया है आपने. बेटी बड़ी होकर सबसे पहले माँ को ही अपनी सहेली बनाना चाहती है.

    ReplyDelete
  2. बहुत ही सुन्दर रचना।

    ReplyDelete
  3. बहुत सुन्दर रचना है,फौज़िया जी.
    माँ के लिए आपके ज़ज्बात काबिले तारीफ़ हैं.
    दिल से निकली हुई रचना.
    माँ समझ ही लेगी एक दिन.
    माएं सब समझती हैं.
    आभार.

    ReplyDelete
  4. लाजवाब.....
    आपने बडी खुबसूरती से मां का चित्रण कर दिया.

    ReplyDelete
  5. bahut sahi...beti to bani par saheli na hui..sab kuch to keh diya aapne madhyam banakar...amazing!

    ReplyDelete
  6. उफ बहुत ही खूबसूरत रचना...आप ने तो कमाल कर दिया

    ReplyDelete
  7. फोजिया जी खूबसूरत रचना , बधाई | माँ स्वंय धूप सहती और परिवार को छाँव देती क्या बात है जिंदगी की सचाई |

    ReplyDelete
  8. बेहतरीन और कुछ लीक से हटकर की गयी सुन्दर अभिव्यक्ति!

    ReplyDelete
  9. बेधड़क ..ओर बेबाक....

    ReplyDelete