Saturday, 19 February 2011

7 'भूल' माफ़ !!!

ज़रूर देखें, प्रियंका चोपड़ा, अनु कपूर और विवान शाह (नसरुद्दिन शाह के बेटे) के लिए. दर्द, तकलीफ़, ताकत, वहशत या हसरत. इन्सान के हर वक्त बदलते एहसासों को महसूस करने के लिए. विशाल भारद्वाज की फ़िल्मों को सराहने वाले ’सात खून माफ़’ ना देखें तो नाइंसाफ़ी होगी.

Strength– धुन और धार. संगीत किसी भी फ़िल्म का साथी होता है अगर अच्छा हो तो सफ़र को खुशनुमा बनाता है वरना अच्छे खासे रास्ते को भी झिलाऊ कर देता है. विशाल की पहचान फ़िल्म के हर गीत पर है यहां तक की रॉक गीत ’दिल-दिल है’ पर भी. विशाल संगीत से खेलना जानते हैं वो आपके जज़्बातों को ’डार्लिंग’ पर नचायेंगे और ’बेकरां’ पर रुमानियत से भर देंगे. कहानी चाहे बेहद सुलझी हुई हो या फिर घुमावदार, मायने रखता है उसका treatment. चौंकाने वाली शुरुआत के बाद अगर दर्शक अगले २० मिनट को माफ़ कर सकें तो ’सात खून माफ़’ धार पकड़ लेती है. जैसे-जैसे आगे बढ़ते हैं धार तेज़ होती रहती है. दर्शक अपने अंदाज़े लगाता रहेगा और कहानी कभी उसकी समझ के अनुसार और कभी समझ के विपरीत चलेगी. ’स्क्रीनप्ले’ अपनी नोक के साथ चुभन गहरी करता रहेगा.

Loopholes-

1. Expectations - बॉलीवुड में hype create की जाती है, फ़िल्मस्टार फ़िल्म का नाम दर्शक की ज़ुबान पर चढ़ाने के लिये कभी मॉल में लोगों के बाल काटते हैं तो कभी प्रेम की अफ़वाहें उड़ाते हैं. मगर ज़रूरी नहीं कि हर बार ये उत्तेजना फ़ायदेमंद ही साबित हो जैसा कि ’सात खून माफ़’ के साथ हुआ है. विशाल की पिछली फ़िल्में और उनसे जुड़ी कामयाबी ने ’सात खून माफ़’ को रिलीज़ से पहले ही उम्मीदों की नाव पर चढ़ा दिया. ऐसे में ज़रा भी कम-ज़्यादा हुआ नहीं कि ’बैलेंस’ बिगड़ा.

2. Women-oriented - जिसे भारतीय दर्शक पैसा खर्च कर के नहीं देखना चाहता

3. Pace – कहीं कहीं धीला पड़ता हुआ

4. World Cup – क्रिकेट वर्ल्ड कप शुरु होने को है और आप इस वक्त फ़िल्म रिलीज़ कर रहे हैं

5. Black humour – तथाकहित मल्टीप्लेक्स दर्शक भी मुश्किल से समझता है

6. Make-up – 20 साल की या 50 साल की प्रियंका में कोई खास फ़र्क नहीं. बस विग बदलने और make-up हटाने से काम नहीं चलता

7. Climax – इतने बवाल के बाद इतना फ़िल्मी, मज़ा नहीं आया

Hit Or Flop - अगर फ़िल्म के ’हिट’ होने का मतलब अपना पैसा recover करके थोड़ी बहुत कमाई करना होता है तो ’हां’ ये चलेगी. पर अगर ’हिट’ का मतलब distributers को मालामाल करना और बॉक्स-ऑफ़िस कलेक्शन में कोई रिकोर्ड बनाना होता है तो ’सात खून माफ़’ नहीं चलने वाली.

Story- बॉलीवुड में फ़िलहाल प्रियंका ही ऐसी अभिनेत्री हैं जिन्हें लीड में रख कर कहानी बुनी जा सकती है. कमाल की एक्टिंग, डायलॉग डिलीवरी और स्क्रीन प्रेज़ेन्स. विवान शाह का narration, उनकी आवाज़, उनका अभिनय नसीरुदीन शाह की विरासत को आगे बढा़ते हुए. एक लड़की जिसका नाम हैसुसेना एना-मैरी जोहेनस’, जितना लंबा नाम ज़िन्दगी जीने की उमंग उससे कहीं लंबी. अपने नौकरों के साथ रहती है बल्कि वही उसका परिवार भी हैं. वो बड़ा दिल रखती है, हिम्मत वाली है और प्यार में यकीन करती है. उसे प्यार में धोखा मिलता है, शक्की पति से वास्ता पड़ता है, बेरहम साथी के जड़े थप्प्ड़ चहरे पर निशान देते हैं पर वो हर बार उठती है और एक नये रिश्ते को मौका देती है. वो किसी अपराध-बोध में नहीं जीती बल्कि अपनी नाकामयाब शादियों और उनके परिणामों से मज़बूत होती जाती है. वो पागल नहीं है उसकी परेशानी ये है कि वो ज़ुल्म बर्दाश्त नहीं कर सकती. जो उसकी ज़िन्दगी को नर्क बनाने की ओर ले जायेगा वो उसे खत्म कर देगी. उसके एक नौकर के अनुसार ’मदाम रास्ता नहीं बदलतीं वो कुत्तों को मार देती हैं’. विशाल भारद्वाज की फ़िल्में आपके ज़हन को भारी कर देती हैं दिल में खलिश पैदा करती हैं, ’सात खून माफ़’ इस कसौटी पर तो पूरी उतरती है. एक और चीज़ जो विशाल के सिनेमा की पहचान है वो है ’नारीवाद’. यहां वो भी भरपूर है. छोटे से किरदार का भी कमाल का अभिनय हो या फिर मज़ेदार डीटेलिंग जैसे टीवी पर चलती खबर के तहत time-frame समझाना. विशाल भारद्वाज की ’सात खून माफ़’ भले ही ’मक्बूल’ या ’ओंकारा’ जैसी ना हों पर ये बेशक ’विशाल छाप’ है.

Thursday, 17 February 2011

निर्वस्त्र होता न्याय

कहते हैं शरीर नश्वर है, इसे मिट जाना है. शरीर पर लगे घाव भर जाते हैं. वहीं आत्मा को पहुंची चोट के निशान हमेशा उभरे रहते हैं. सभी धार्मिक ग्रंथों का यही मानना है कि आत्मा को दूषित होने से बचाया जाये, किसी के शरीर पर चोट करने से ज़्यादा क्रूर है किसी की आत्मा पर वार करना. पर चूँकि समाज अपने अनुसार हर महान विचार के साथ फ़ेर बदल करता रहा है तो ये कोई अनोखी बात नहीं कि नि:वस्त्र हो विरोध प्रदर्शन करती औरत को मानसिक रूप से असंतुलित बताया जाये.

पिछ्ले दिनों एक पूर्व महिला रॉ अधिकारी ने अदालत में सुनवायी के वक्त अपने कपड़े उतारने शुरु कर दिये, ऐसा इसलिए हुआ क्युंकि वो बार-बार टल रही सुनवाई से तंग आ गयी थीं, इससे पहले भी इस महिला ने पी.एम हाउज़ के आगे खुदकुशी करने की कोशिश की थी. मगर उनके इस कदम को कोई खास तवज्जो नहीं मिली. इस महिला ने अदालत में ऐसा एक बार नहीं दो बार किया, पहली दफ़ा उनके विरोध में चिल्लाते हुए निर्वस्त्र होने को महिला पुलिस कॉनस्टेबलों द्वारा रोक दिया गया. मगर दूसरी बार ऐसा करने पर मानसिक जांच का आदेश दे दिया गया जिसके तहत उन्हें “इंस्टिट्यूट ऑफ ह्यूमन बिहेवियर एंड एलाइड साइंस (इहबास)” में भर्ती किया गया. इस पूर्व महिला रॉ अधिकारी ने अपने सीनियर पर यौन उत्पीड़न का आरोप लगाया था.

हम जिस संस्कृति में जी रहे हैं वहां बचपन से ही लड़की को उसके शरीर की एहमियत इस कदर समझाई जाती है कि खराब मानसिक हालात में भी कोई महिला यूं ही कपड़े नहीं उतारने लगती. यहां तक कि सड़क पर गर्मी या कमज़ोरी से बेहोश होती महिलाओं को भी गिरने से पहले अपना दुपट्टा ठीक करना याद रहता है. घरों में दादी-नानियां भी अपनी साड़ी के पल्लु को कलेजे से लगा कर रखती हैं. कुछ एक जगहें जैसे ’स्ट्रिप क्लब्स’ में जवान लड़कियों को शरीर से एक-एक कर कपड़े अलग करते देखा जा सकता है पर वो भी होशोहवास में जीवन व्यापन के लिये ऐसा करती हैं. वैसे भी हिंदुस्तान में ऐसे क्लब प्रचलन में नहीं हैं. यहां वेश्यावृत्ति भी रात के अंधेरे में, शरीफ़ों की गलियों से दूर गुमनाम कोनों में पलती है. शरीर की जितनी एहमियत इस समाज में है, शरीर का जितना प्रभाव इस समाज पर है उसके कारण आत्मा शरीर के भीतर अपनी पहचान और अपने ऊपर हुए ज़ुल्मों को लेकर रोती रहती है. इस बात से किसी को फ़र्क पड़ सकता है कि एक बीवी को उसका पति दिन-रात पीटे मगर इस तकलीफ़ पर कम ही भौंए उठेंगी कि वो हर वक्त पति की फ़टकार सुनती है.

पिछ्ले दिनों मनिपुर में असम राइफ़ल्स के जवानों द्वारा एक लड़की का बलात्कार और फिर उसे उग्रवादी बताकर हत्या कर देने का मामला सामने आया था. इस घटना पर कुछ युवतियों ने कपडे फेंक कर असम राइफ़ल कार्यालय के सामने प्रदर्शन किया था. गुस्से में नारे लगाती युवतियों को वहां से हटाने में सेना को बड़ी मशक्कत हुई थी. आप किसी को अकेले में निःवस्त्र कर उसका बलात्कार कर उसकी हत्या करते हैं तो ये अपने आप में पूरी नारी जाति को निर्वस्त्र कर उसकी हत्या करना होगा. एक इन्सान में एक दुनिया बसती है और एक इन्सान के साथ अन्याय पूरी इन्सानियत के साथ अन्याय है. जब मन को आघात लग ही गया जब ज़हनी तौर पर किसी को तोड़ ही दिया गया, जब आत्मा को बेपर्दा कर ही दिया गया तो ये कहां मायने रखता है कि शरीर पर पर्दा रहा कि नहीं. यौन उत्पीड़न की शिकार महिला अधिकारी, सुनवायी के दौरान कितनी बार नंगा करते सवालों से इज़्ज़त बचाने की कोशिश में लगी रही. उस पर उसकी इस लड़ाई में तमाम तरह की न्यायिक बाधांए उसके सब्र का इम्तिहान लेती रहीं. अब अगर वो रोज़ ब रोज़ जूझती, कपड़े नोंचते सवालों से तंग आ गयी तो गलती किसकी है. कौन सा आसमान टूट पड़ा जब उसने हिम्मत हारकर कपड़े फेंक दिये कि ये लो अब कुछ बचा ही नहीं तो छुपाऊं क्या.

क्या ये बहतर नहीं होता कि उसे मानसिक इलाज के लिये भेजने कि बजाय उसकी बात सुन ली जाती. समय भी कम लगता और वो खुद को ठगा हुआ भी ना महसूस करती. अदालत की अपनी मान-मर्यादा है, पर उसी मर्यादा को लाघंते हुए जब अदालत में बलात्कार या यौन उत्पीड़न जैसा मसलों पर पीड़ित के मान को तार-तार किया जाता है तो क्या उसकी ज़िम्मेदारी भी अदालत की नहीं बनती है. वैसे भी कहते हैं इज़्ज़त देने पर ही इज़्ज़त मिलती है.

द्रौपदी का अपमान ये नहीं था कि भरी सभा में उसका चीर-हरण हुआ. उसकी साड़ी का छोर तो वहीं से खिंचना शुरु हो गया था जब पांडवों ने द्रौपदी को वस्तु समझ दाव पर लगाया. जब सम्मान के टुकड़े हो ही गये तो स्तन को छुपाने का क्या महत्व है.

Monday, 7 February 2011

ये जेसिका की दिल्ली है…लड़ना सीख


“ये दिल्ली है दिल्ली… लड़ना सीख” जेसिका अपनी बहन सबरीना को समझाती है और सबरीना माज़ी की इस सीख को याद करके एक बार फिर उठ खड़ी होती है. लड़ायी के दौरान वो वक्त ज़रूर आता है जब इंसान सोचता है ’बहुत हुआ, क्या मिलेगा लड़ कर जो गया वो लौट कर तो नहीं आने वाला.’ हालात इतने सख्त होते हैं कि हिम्मती शख्स भी टूट्ने लगता है. यही वो लम्हा होता है जब दूबारा खड़े होने की ताकत चहिये होती है. जेसिका केस की याद इसी हिम्मत को जगाती है. ’नो वन किल्लड जेसिका’ निर्देशक राजकुमार गुप्ता की दूसरी फ़िल्म है. इससे पहले ’आमिर’ में उन्होंने छोटे कलाकारों के साथ काम किया था तो ’नो वन किल्लड जेसिका’ सिर्फ़ विषय के स्तर पर नहीं स्टारकास्ट के मामले में भी उनके लिये बड़ी फ़िल्म थी. फ़िल्म की कहानी नयी या अनसुनी नहीं है, मीडिया का ’एक्टिविज़्म’, हाई प्रोफ़ाइल लोगों का दोगला रवैया, डर के साये में सच का कहीं पीछे छूट जाना, मौका परस्तों की झूठी कसमें, फ़िल्म में ऐसा कुछ भी नहीं है जो हमारे आस पास न घटता हो. ’नो वन किल्ल्ड जेसिका’ हर रोज़ जूझ रहे इन्सान, ’रंग दे बसंती’ देख कर जागरुक हुए, एसएमएस से इंसाफ़ की मांग करते युवाओं, बेहतर टीआरपी और बड़ी स्टोरी की तलाश वाले पत्रकारों को बखूबी पेश करती है. किसी ऐसी कहानी पर फ़िल्म बनाना जिसे लोग पहले से ही जानते हैं रिस्की होता है. या तो आप सन्जय लीला भंसाली हों जो देवदास को रंगों और बोलों से सजा कर पेश करें या फिर रामगोपाल वर्मा हों जो बदसूरत को इतना घिनोना दिखायें की कंपन हो जाये. बीच का रास्ता दर्शक को बेसुकून करता है. ’नो वन किल्लड जेसिका’ यही बेसुकूनी देती है.

दिल्ली पथरीली है, दिल के बगैर है अगर आप कमज़ोर हैं तो रोज़ ब रोज़ तमाचे जड़ने वाली है. इंडिया गेट वाली सड़क चौड़ी है साफ़ है तो मुनिरका की गलियां बदबुदार हैं. जी.के के पोश इलाके से कुछ ही कदम दूर है सावित्री नगर के उबड़-खाबड़ रास्ते, साकेत के गोल्फ़ क्लब से होज़ रानी गांव इतना दूर भी नहीं कि कभी गुज़रते वक्त नज़र ना पड़े, महरोली की फूल मंडी से सेन्ट्रल पार्क वकाई दूर है इन दूरियों को किलोमीटर में नहीं फ़ासलों में नापना बेहतर होगा. वैसे तो हर शहर दो कहानियां कहता है दो रूप रखता है पर दिल्ली का एक रूप दूसरे से इतना मुखतलिफ़ है कि शक होता है इस शहर को ’स्प्लिट पर्स्नेलिटी’ वाली बीमारी तो नहीं. ’नो वन किल्लिड जेसिका’ दिल्ली की इस बीमारी के साथ इन्साफ़ नहीं कर सकी है. कुछ जगहों पर फ़िल्म तीखी होती है पर ये कुछ एक सीनो तक ही सिमट कर रह जाता है. जैसे सब्रीना का गवाह नीना से मिलना, जहां नीना चोकलेट ट्रफ़ल खाते हुए जेसिका की मौत पर आंसू बहाती है या मनु के माता पिता जेसिका के घर शोक व्यक्त करने आते हैं. इसके अलावा कहानी फ़िल्मी ही लगती है.

जेसिका केस अपने आप में न्याय की जीत तो बेशक था मगर इस जीत को एक खास तबके से जोड़ कर ही देखा जा सकता है. मोबाइल फोन, ’एसएमएस’ और टेलीविज़न मिडिआ का शुरुआती दौर आकर्शक रहा, एक अपकमिंग मोडल की हाइप्रोफ़ाइल पार्टी में हत्या दर्दनाक ज़रूर थी मगर राजधानी से इतना समर्थन न तो कभी भोपाल गेस त्रास्दी के पीड़ितों को मिला और ना ही सेज़ के तहत बेघर हुए ग्राममिणों को. खैर, ’दर्शक की सहानुभूति जहां कामयाब बॉक्स-ऑफ़िस रिज़ल्ट्स वहां’ की तर्ज पर बनती फ़िल्में “नो वन किल्लिड जेसिका” की प्रेरक हो सकती हैं.

बॉलीवुड की व्यथा ये है कि यहां एक नायक और एक खलनायक होता है. तो रानी बनी फ़िल्म की नायक जर्नलिस्ट मीरा गेटी जो अकेले ही खलनायक को धूल चटाने के लिये काफ़ी है. वो अन्याय को बरदाश्त नहीं करती इसके लिये अपने बॉस से लड़ जाती है. वो गाली-गलोच करती, सिगरेट पर सिगरेट फूंकती हुई टीआरपी के लिये नहीं न्याय के लिये लड़ती है. वो सबरीना को हिम्मत बंधाती है और गुनाहगारों को बेनकाब करती है. फिर भी पूरी फ़िल्म की असल नायक है विद्दया बालन जो सबरीना की निराशा या किसी अपने के खोने की तकलीफ़ को बेहद खूबसूरती से निभाती है. रानी के फ़ेंस भले ही इतेफ़ाक ना रखें और साल के अंत में भले ही रानी को ढेरों अवार्ड मिलें मगर एक्टिंग के मामले में विद्दया उनसे कई कदम आगे रहीं. हालांकि निर्देशक राजकुमार गुप्ता ने छोटे छोटे किरदारों के लिये भी अच्छी प्रतिभाओं का इस्तेमाल किया है जैसे जेसिका केस को हेंडल करता पुलिस ऑफ़िसर या फिर मीरा गेटी का बॉस.

बॉलीवुड की एक और व्यथा संगीत. फ़िल्म में संगीत नहीं है यानी ये आर्ट फ़िल्म है, बोरिंग है इसे देखने दर्शक सिनेमा घरों तक नहीं आयेंगे. अब या तो ये हो सकता है हिमेश रेशमिया की फ़िल्मों की तरह हर जगह गाना ज़बर्दस्ती घुसा दिया जाये या फिर ये कहानी को आगे बढ़ाते हुए होना चाहिये. ’नो वन किल्लिड जेसिका’ दूसरी श्रेणी में आती है मगर संगीतकार अमित त्रिवेदी का संगीत वैसा हर्गिज़ नहीं जैसा देवडी में था, फ़िल्म का टाइटल ट्रेक भले ही अच्छा है मगर जैसे ’नयन तरसे’ या ’परदेसी’ ने फ़िल्म देवडी को और नोकिला बनाया था वैसा कुछ यहां नहीं हुआ है.

’नो वन किल्लिड जेसिका’ देखी जा सकती है मगर बगैर किसी बड़ी उम्मीद के. ’आमिर’ को किनारे रख कर, रानी की ब्लेक भूल कर और अमित त्रिवेदी के ’इमोशनल अत्याचार’ को गुनगुनाना बंद करके.

Tuesday, 4 January 2011

'पल' बीत गया ये तो...

पूरे साल जितने उतार चढ़ाव, जितने एहसासों से गुज़रे उन्हें अब दिल में समेट लेते हैं. वो बीत गया लेकिन हमारे अंदर है वैसे ही जैसे हंसी के रुकने पर भी मुस्कान होंटों को छुए रहती है. पिछला साल क्या बहुत कुछ दे गया ? सोचती हूँ तो पाती हूँ...हाँ बहुत कुछ ऐसा जो कभी ख्वाब में भी नहीं सोचा था पर ऐसी ही तो होती है ज़िन्दगी ख्वाबों से भी ज्यादा हैरान कर देने वाली. फर्क बस इतना है किसी गहरे ख्वाब में खतरनाक, खूबसूरत जो भी घटता है उसे आँखे साफ़ करते ही भुला दिया जाता है. दर्दनाक ख्वाब दिल को थोड़ा हिलाते ज़रूर हैं लेकिन हकीक़त झिंझोड़ ही देती है कि "देखो तुम ख्वाब से कांप रहे हो जबकि मैं यहाँ खड़ी हूँ अनगिनत ऐसे लम्हों के साथ जिनका तुम्हे कोई अंदाजा नहीं है" बिता साल, बीते ३६५ दिन कितनी खिलखिलाहट कितने आंसू...कोई हिसाब तो नहीं है पर कभी झटके, कहीं खड्डे और कुछ पानी की बौछार जैसा.


खुद को जानना कभी आसान नहीं रहा, हम दावा करते हैं खुद को समझने का जबकि हर गुज़रते पल के साथ खुद से अनजाने ही होते चले जाते हैं. ये अपना आप इतना दोगला है कि जैसे ही खुद को जानने का यकीन होता है ये इतनी बुरी तरह चेहरा बदलता है मानो आईने में कोई और ही शख्स है. तो अब देखना ये है ये अगले ३६५ दिन खुद से रूबरू करवाते हैं या यूँ ही 'पहचान कौन' का खेल खेलते रहते हैं.


नया हर लम्हा रहस्यमय है लम्हे के उस पार खिलखिलाती हंसी है या सुबकता दर्द. लम्हे के उस पार बाहें फैलाए दोस्त है या हाथ छुड़ाती चाहत. उस पार ऊँचाई पर बैठी ख्वाहिशें हैं या टूटती हिम्मत. उस पार बहुत कुछ होगा, किसी भी सूरत का, हमें अच्छा भी लग सकता है, नागवार भी गुज़र सकता है. उस पार के लम्हे अपनी तरफ खीचते हुए कहते हैं "आओ क्यूंकि मैं तुम्हें बदल डालने वाला हूँ, मुझसे गुजरने के बाद तुम वो नहीं रह जाओगे जो कभी थे, मैं तुम्हारा रंग गहरा कर दूंगा तुम जब पलट कर देखोगे तो पाओगे एक बीता लम्हा लेकिन वो बीता लम्हा तुम्हारे भी बीते रूप को ले जाएगा. तुम नए होगे, पहले वाले लम्हे से नए और आने वाले हर लम्हे में नए होते चले जाओगे, इस नए पन का सिलसिला रुकेगा नहीं"


गुज़रे साल की कई बातें यकीन दिलाती हैं कि इन्हें कभी भुलाया नहीं जा सकेगा. कुछ का असर साल के शुरूआती महीनो पर रह भी सकता है. मगर फिर ये साल भी अपने असली रूप में आता हुआ १० साल पुरानी शादी जैसा हो जायेगा जिसमें कुछ भी ख़ास नहीं है. कुछ भी नया नहीं है. नए को पुराने होने में वक़्त ही कितना लगता है. आज डिब्बे का नया प्लास्टिक कवर चमक रहा है, कल इसके उतरते ही पुराने पन का सिलसिला शुरू हो जाएगा. हम खुशियों के एक क़दम और करीब पहुंचे हैं, कामयाबी के एक क़दम और करीब पहुंचे हैं या बुढापे के ये समझना मुश्किल है लेकिन इतना तो तय है हम खुदको बदलने के एक क़दम और करीब पहुंचे हैं.


बदलाव अच्छा बुरा कैसा भी हो सकता है, ज़रूरी नहीं हर बदलाव बुरा ही हो कुछ बदलाव अच्छे भी होते हैं जैसे इस साल मैंने पहली बार अकेले ट्रेन और हवाई सफ़र किया. बिना टिकेट ट्रेन में चढ़ टीटी को पैसे देकर 2nd ac में सीट पायी. इस साल मैंने समुंदर देखा, इस साल 15 - 15 घंटे की ड्यूटी की, झूठा ही सही और 3 idiots देखी साथ ही इसी साल मैंने कुछ लोगों के दिल दुखाये, कुछ रिश्तों को अनदेखा किया, रास्ते खोये, उलझन में घिरी,ज़हन सुन्न होने की कगार पर पहुंचा, मैंने झूठ कहे यहाँ तक की रावण और दबंग देखी.


गुज़रे साल ने बहुत से सवालो के जवाब मांगे पर मेरे पास जवाबों की कमी है. सवाल देखते ही देखते आस पास खड़े हो जाते हैं और मैं उनसे घिर कर खुद को घुटा हुआ महसूस करती हूँ. ये सवाल बेहद तकलीफदेह हैं ये हमेशा झुण्ड बना कर आते हैं ताकि जब आप एक तरफ से भागें तो दूसरा दबोच ले और जब उससे पीछा छुडाएं तो तीसरा कलाई मरोड़ दे. बीते साल के कितने ही सवाल अभी भी अलमारी के अंदर बंद करने की कोशिश में लगी हुई हूँ. ताकि ये बाहर ना झाँक सकें लेकिन जब कभी भी अलमारी खुलती है ये फिर आ दबोचते हैं और मैं इन्हें सख्ती से बिस्तर के नीचे गद्दे से दबा देती हूँ. कभी कभी इनकी सांस रोकने के लिए मैं कमरे के खिड़की दरवाज़े बंद कर, कमरे को मछर भगाने वाले Coil के धुंए से भर देती हूँ मगर इन्हें इससे भी फर्क नहीं पड़ता बल्कि मैं खुद ही उस धुंए से खांसते खांसते बेहाल हो जाती हूँ.


नया साल, नए लम्हे कुछ जवाब लायेंगे इसकी उम्मीद नहीं है इन लम्हों ने खुद में इतना कुछ छुपाया हुआ है कि मैं उसे ही जानने के लिए बेसब्र हूँ. अपनी तरफ से कुछ चाहने का हौसला नहीं है. इन लम्हों के आगे मैं चाह भी क्या सकती हूँ. ये जो भी लायेंगे वो मनपसंद ना भी हो, दिलचस्प ज़रूर होगा.


Friday, 31 December 2010

हिप-हॉप पर हाय हाय

वैसे तो हिप-हॉप जेनरेशन से लोगों को ज्यादा उम्मीदें नहीं हैं. बड़े बुज़ुर्ग कहते हैं की देश का भविष्य नरक में है क्यूंकि वो एक ऐसी पीढ़ी के हाथों में है जिसके बायें बाजू पर बड़ा सा टेटू है और दायें हाथ में अंग्रेजी गानों से भरा आई पोड. शिकायत ये भी है की आज की जेनरेशन बोले तो 'हिप-हॉप पीढ़ी' बस पार्टियाँ करने में और सोशल नेट्वर्किंग साइट्स पर चेटिंग करने में व्यस्त है. नाराज़गी के अंबार की तरफ नज़र दौडाएं तो ऐसी अनगिनत उलझने दिख जायेंगी जो बड़े बुजुर्गों को परेशान किये हुए है.

चारपाई पर बैठे एक अंकल हुक्का गुडगुडाते हुए कहते हैं 'आज की पीढ़ी नहीं जानती की संस्कृति किसे कहते हैं'
सच है तभी तो आज की कथित बिगड़ी जेनरेशन मंदिर में हाथ भी जोड़ लेती है और गुरूद्वारे में माथा भी टेक लेती है, दोस्तों के साथ चर्च जा कर मोमबत्ती जलाने में भीं इस जेनरेशन को कोई आपत्ति नज़र नहीं आती. साथ ही मज़ारों पर जा कर ख्वाहिशों के धागे भी बाँध लेती है. उनकी भगवान एक है वाली फिलोसफी किसी को अच्छी नहीं लगती. आज के बच्चे यारी दोस्ती को इतनी एहमियत देते हैं की धर्म और जाती जैसे ढकोसले उनके लिए मायने नहीं रखते. माता पिता कितना भी समझाएं ' वो छोटी ज़ात का है उसके साथ मत रहा करो' या 'वो अपने धर्म का नहीं है उससे दोस्ती मत बढाओ' ये जुमले आज के बच्चों पर असर नहीं करते. एक वक़्त था जब बच्चे माँ-बाप की इस बात को गाँठ बाँध लेते थे की 'दोस्ती हमेशा बराबरी में होती है' मगर आज की बदनाम पीढ़ी के दोस्तों की फेहरिस्त में हर क्लास और सोसाइटी के युवा शामिल होते हैं.
कौन बिगड़ रहा है इसका फैसला किस बात से होता है. हम कितनी बार बड़ों के पैर छूते हैं या इस बात से की हम किसी बुज़ुर्ग महिला को बस में सीट देते हैं, किसी नेत्रहीन का हाथ पकड़ कर रास्ता पार करवाने में मदद करते हैं. हिप-हॉप जेनरेशन की कौन सी बात सबसे नागवार गुज़रती है. शायद अपनी जिद पर अड़ जाना या शायद मस्त रहना. क्या खुश रहना ग़लत है, बेवजह हँसना ग़लत है या अपनी सोच को साबित करने की ललक ग़लत है ? आज बच्चे पंद्रह साल की उम्र में ही तय कर लेते हैं की उन्हें क्या करना ही, उन्हें ज़िन्दगी से क्या चाहिए. इन्फोर्मेशन टेक्नोलोजी ने आज के युवाओं को सब कुछ एक साथ संभालना सिखा दिया है. दौड़ इतनी तेज़ है की सब भाग-भाग के हकलान हो रहे हैं, रुकने का वक़्त नहीं है, नब्बे प्रतिशत नंबर लाने का प्रेशर भी सर पर सवार है इस पर भी ये हिप-हॉप गेनरेशन वक़्त निकालती है अपने लिए, सड़कों पर मटरगश्ती करने के लिए, सिनेमा हॉल में सीटियाँ बजाने के लिए और तो और बेधड़क ऊँची आवाज़ में गाने बजाने के लिए.

मुंह में पान चबा रहे एक अंकल ने सड़क किनारे पीक थूकते हुए पेशानी पर हाथ रखते हुए कहा ' नौजवान पीढ़ी ज़िम्मेदार नहीं हैं' माना आज की जेनरेशन का नारा है 'जागो रे' माना की आज के युवा वोटिंग को एहमियत देते हैं, माना की आज के युवा अपने स्कूल-कॉलेजों में सोशल इशुज़ पर सेमीनार और डिबेट प्रोग्रामस आयोजित करते हैं, माना की आज के युवा गेर सरकारी संस्थाओं से जुड़ कर ख़ामोशी से कोई हल्ला मचाये बिना काम करते हैं, पर इससे क्या होगा.

टीवी के सामने बैठे चाचा जी हेलेन का 'पिया तू अब तो आजा' देखते हुए कहते हैं आज कल बच्चे सिर्फ नाच गाने की तरफ आकर्षित हो रहे हैं, पर शायद चाचाजी ने इस बात को जानने की ज़हमत नहीं उठाई की जिन म्यूजिक चेनल्स पर कल तक सिर्फ अंग्रेजी गाने चलते थे और जिन पर हिंदी भाषा में एक लाइन बोलना भी शर्म की बात समझा जाता था आज उसके होस्ट्स हिंदी क्यूँ बड़बड़ाते हैं. म्यूजिक चेनल्स जो दस साल पहले लव प्रोब्लेम्स सोल्व करने और दूसरों को बकरा बनाने का काम करते थे आज ड्रग्स से बचने, ट्रेफिक नियमों का पालन करने और बिजली-पानी बचाने का सन्देश क्यूँ देते हैं. क्या सही में हमारी यंग जेनरेशन के बदलने से कोई ख़ास नुक्सान हुआ है ?

यंग जेनरेशन का तो मतलब ही जोश होता है. तो जाहिर है जोश तेज-तर्रार होगा, कभी-कभार आपे से बाहर भी हो सकता है. फिर आज ही क्यूं ये तेजी तो आज से बीस साल पहले के युवाओं ने भी महसूस की होगी और उन्हें भी रास्ता भटकने के ताने सुनने ही पड़े होंगे. घर की ज़मींदारी और पिता की दुकान पर बैठने की जगह खुद अपना काम शुरू करने से लेकर सरकारी नौकरी के लिए कदम बढ़ाना, पचीस-तीस साल पहले युवा पीढी के ठोस कदम थे. और अगर बात की जाए साठ-सत्तर बरस पहले की तो उस वक्त युवा पीढी ने अंग्रेजों की सत्ता को स्वीकार करने की जगह अपनी पहचान के लिए हथियार उठाएँ थे. यंग जेनरेशन बदनाम थी, बदनाम रहेगी.

हिप-हॉप जेनरेशन के बायें हाथ पर टेटू और दायें में अंग्रेजी गानों से भरा आई पोड ज़रूर है पर दिल और दिमाग में एक जज्बा है, नेक नियत है, ओब्सर्वेशन पॉवर है जिसे तानो की नहीं तालियों की ज़रुरत है.

Monday, 27 December 2010

माया जादू

बेलगाम ख्वाहिशें दर्द के ऐसे रास्ते पर ले जाती है जहाँ से लौटना नामुमकिन होता है. ख्वाब, मोहब्बत, वासना, एक ही माला के मोती हैं.जब तक माला गुंथी हुई है खूबसूरत है पर जैसे ही एक मोती भी गिरा, धीरे-धीरे सारे मोती बिखर जायेंगे. जो मोती साथ में सलीके से बंधे चमकते हैं वो ज़मीन पर बिखर कर पांव में चुभेंगे. केतन मेहता की माया मेमसाब 90 के दशक की सबसे बोल्ड फिल्मों में से एक है. दीपा साही यानी माया खुद से कहती है "आगे मत बढ़ो वरना जल जाओगी, पर रुक गयी तो क्या बचोगी" सपनो के राजकुमार का इंतज़ार करने वाली, रूमानी किस्सों में डूबी रहने वाली , गीत गुनगुनाने वाली माया जब फारुख शेख यानी डॉ. चारू दास से मिलती है तो उसे नज़र आता है वो लम्हा जब दोनों एक दूसरे से बातों बातों में खेलते हैं. लफ़्ज़ों की जादूगरी माया को उस डॉक्टर की तरफ आकर्षित करती है. बड़े से महल में अपने बूढ़े पिता के साथ अकेले रहने वाली माया को फारूख में अपनी रूमानी कहानियों के सच होने का रास्ता दिखने लगता है. फारुख शादीशुदा है पर माया का जादू उन पर चढ़ जाता है. चारू ने अपनी बीवी को कुछ कुछ वैसा ही धोका दिया जैसा आगे चल कर माया चारू को देती है चूँकि माया बेलगाम है उसकी बेवफाई का स्तर इतना ऊँचा हो जाता है की खुद माया का दम घुटने लगता है.


चारू की पत्नी के मरने बाद माया उसकी ग्रहस्ती में आती है. जो माया अपनी पुरानी हवेली में घूमती-नाचती फिरती थी बंद कमरे के मकान में बस जाती है. अब तक सब ठीक था पर परेशानी तब खड़ी हुई जब शादी के बाद भी माया अपने "आईडिया ऑफ़ रोमांस" से बाहर नहीं आई. उसने डायरी पर ख्वाबों का महल बनाना नहीं छोड़ा उसने प्रेमी के साथ भाग चलने के ख्वाब देखने नहीं छोड़े, उसकी रोमांस की चाहत शादी पर खत्म नहीं हुई वो प्रेमी द्वारा सबसे ज्यादा चाहे जाने, बाहों के घेरे में दिन भर बैठे रहने और आँखों की तारीफ़ में कसीदे पढवाने को अब भी बेचैन थी. यही थी माया की भूल. कवितायेँ पत्नी के लिए नहीं प्रेमिका के लिए लिखी जाती हैं ये माया की समझ नहीं आया. अपनी ज़िन्दगी में वो अब भी तलाशती रही वो राजकुमार जो उसे निहारे, उसके लिए बेचैन रहे, आहें भरे. माया को ये मिला जतिन (शारुख खान) में, फिर रूद्र (राज बब्बर) में और फिर जतिन में, प्लेटोनिक फिर जिस्मानी और फिर ओबसेशन. भावनाएं कितनी तेज़ी से तीव्र होती हैं इसकी गति का पता नहीं चलता. मालूम होता है तब जब आप रुकना चाहते हुए भी रुक ना सको. फिर चाहे जितनी भी चैन खींचो ट्रेन रूकती नहीं. माया जानती है "शुरुआत का कोई अंत नहीं"

लेकिन माया का अंत उसके ख्वाबों ने नहीं बल्कि हकीक़त ने किया. अपनी खाली ज़िन्दगी को कभी प्रेम संबंधों से तो कभी महंगे फर्नीचर से भरते हुए माया को अंदाजा नहीं हुआ, ख्वाबों के पैसे नहीं लगते पर ख्वाबों को हकीक़त का रूप देने में खजाने कम पड़ जाते हैं. आँखों पर ख्वाहिशों की पट्टी बांधे वो अपने घर को आलिशान बनाने और अपनी ज़िन्दगी को परियों की कहानी सा बनाने में लगी रही. पर जब उधार हद से पार हुआ और रिश्ता ओबसेशन में तब्दील दोनों ने ही उसके मुह पर तमाचा जड़ा.

अपने घर को नीलामी से बचाने के लिए माया के सामने शारीरिक सम्बन्ध बनाने का प्रस्ताव रखा गया. माया अपने जिस्म को छुपाये अपने पुराने प्रेमी प्रूद्र के पास गयी लेकिन वहां भी माया के जिस्म की ही पूछ थी उसकी तकलीफों के लिए जगह नहीं थी. रूद्र को अब माया में कोई दिलचस्पी नहीं थी जो उसकी मदद करता. माया दूसरे प्रेमी जतिन की बाहों में जा समायी और सब कुछ बचाने की गुहार लगायी. पर जतिन माया के किसी और से हमबिस्तर होने की बात पर आग बबूला तो हो सकता था पर उसे बेघर होते देखते हुए बेहिस था. मदद के दरवाज़े वहां भी बंद थे.

अपनी परियों की कहानी का ये अंजाम माया के बर्दाशत से बाहर था पर माया खूबसूरत इत्तेफाकों में यकीन करती थी तभी उसने एक बाबा का दिया "जिंदा तिलिस्मात" पी लिया. वो घोल ज़हर था या जादुई पानी माया नहीं जानती थी. माया जीते जी ख्वाबों के सच होने की कोशिश करती रही और मरते वक़्त भी किसी अलिफ़ लैला की कहानी के सच होने का इंतज़ार करती रही. ना उसके साथ सच ही रहा ना किस्सा ही. ज़िन्दगी कहाँ खत्म होती है और मौत कहाँ से शुरू होती है ये रास्ता दुनिया के किसी भी नक़्शे पर नहीं है, शायद माया को उस रास्ते पर चलते हुए ख्वाबों की पगडण्डी मिल गयी हो.वो दुनिया की तरह मौत को भी धोका देती हुई उसी पगडण्डी पर आगे चली जा रही हो.

Saturday, 4 December 2010

फतवों का फंदा

फतवों को आमतौर पर आदेश के रूप में माना जाता है, गैर मुस्लिम समुदायों में बल्कि खुद मुस्लिम समाज में फतवों को लेकर अनगिनत ग़लतफ़हमियाँ हैं. असल में, मुफ्ती साहब से कोई भी मुस्लमान इस्लाम से जुडी उलझनों के बारे में सवाल कर सकता है. और इसी के जवाब में फतवा दिया जाता है. ये फतवा उस पूछे गए सवाल का जवाब होता है. तो फतवा अपने आप में एक राय है ना की आदेश. ये राय उसी एक ख़ास व्यक्ति को दी जाती है जिसने वो सवाल पूछा हो. उस राय पर अमल करना या ना करना उस इंसान की अपनी मर्ज़ी होती है. फतवों का आना कोई नई बात नहीं है चूँकि ये फतवे धार्मिक उलेमाओं और मुफ्तियों द्वारा दिए जाते हैं तो इन फतवों में किसी आधुनिक राय की उम्मीद करना बेवकूफी होगी. मसला ये है की किसी भी फतवे के आने पर टेलीविजन शोज़ में जिस तरह की बेहस देखी जाती है लगता है मानो ओसामा ने कोई टेप जारी कर दी हो. जिस दकियानूसी राय को समाज में रत्ती भर भी महत्व नहीं मिलना चाहिए उसे जम कर पब्लिसिटी मिलती है. हमारे यहाँ औरत के लिबास और उसकी शख्सियत से जुडी बातों को जितने मजेदार तरीके से परोसा जाता है उतना ही चटखारे लेकर स्वीकार भी किया जाता है.

एक औरत किस मज़हब को अपनाती है, किस तरह के कपडे पहनती है, ऑफिस में किससे बात करती है किसे नज़रंदाज़ करती है. ये किसी भी औरत का बुनियादी हक है उतना ही जितना किसी मर्द को ये हक है कि वो कैसे जिए. किसी भी मुल्क के संविधान के पन्नो पर नज़र दौडाएं तो वहां देशवासियों के हक और जिम्मेदारियों की फेहरिस्त मौजूद है. पर सामाजिक ताने बाने के कारण ज़मीन पर आते आते ये फ़र्ज़ और जिम्मेदारियां यानी राइट्स और ड्यूटीस अपनी शक्ल जेंडर देख कर बदल जाती हैं. एक पंडित अगर भगवा कपडे पहनता है या फिर अघोरी लंगोट धारण करता है तो कोई एतराज़ नहीं जताता पर किसी महिला के ‘ओशो संस्थान’ से जुड़ने पर लोगों की नज़रें टेढ़ी हो जाती हैं. फेशन की दुनिया में रेम्प वॉक अकेले फिमेल मॉडल्स नहीं करती, स्विमिंग कोसट्युम्स सिर्फ लड़कियों के दुबले शरीर पर नहीं सजते बल्कि पुरुष मॉडल्स भी बड़े एतमाद से स्टेज पर उतरते हैं मगर संस्कृति के नाम नारेबाजी बस औरत के कपड़ों पर ही की जाती है. कभी कोई प्रदर्शन ‘मिस्टर इंडिया’ कांटेस्ट के खिलाफ नहीं हुआ.


आज दुनिया दो गुटों में बंट गयी है. पहली वो जो काफी हद तक तालिबानी व्यवस्था की समर्थक है, मज़े की बात तो ये है इन्हें खुद ही नहीं मालूम कि ये कितनी दोहरी शख्सियत रखते हैं. ये इस्लामिक फतवों के विरोधी हैं पर टीवी सीरियलों में हर वक़्त साड़ी में लिपटी, पल्लू सर पर ओढ़े, रोती सिसकती नायिका को आदर्श गृहणी मानते हैं. चार लोगों के बीच बुरखे को औरत की आज़ादी का दुश्मन मानने वाले खुद अपनी बहुओं को घूँघट में ढांक कर रखते हैं. बेटी के कॉलेज से दस मिनट लेट घर आने पर सवालों की झड़ी लगा देने वाले भी नकाब को औरत पर ज़ुल्म मानते हैं. दूसरी तरफ वो लोग हैं जिन्हें महिला सशक्तिकरण सिर्फ ‘मिनी स्कर्ट’ में नज़र आता है. इन्हें लगता है छोटे कपडे और प्री-मेरिटल सेक्स को सपोर्ट करना ही प्रगतिशील विचारधारा है. अपने करियर को महत्त्व देने वाली महिलाओं को 'करियर बिच' पुकारने वाले समाज में अगर कोई लड़की 18 साल की उम्र में पढाई छोड़, शादी करके माँ बन जाती है तो उसे 'डेडिकेटेड वाइफ' कहा जाता है. नकाब ओढ़ कर कांफेरेंस रूम में मीटिंग करती हुई औरत को ये बेकवर्ड मानते हैं. फ्रांस और तुर्की में बुरखे पर प्रतिबन्ध लगाते वक़्त उन औरतों की आज़ादी को कोई महत्त्व नहीं दिया जाता जो अपनी मर्ज़ी से हिजाब लेती हैं. ये कुछ कुछ वैसा ही है जैसे कट्टर इस्लामिक देशो में बुरखे के बिना घर के बाहर निकलने पर पाबंदी है. यहाँ औरत की अपनी मर्ज़ी कोई एहमियत नहीं रखती.

कोई आदमी क्या पहनना चाहता है क्या नहीं ये उसकी खुद की पसंद नापसंद पर निर्भर करता है. आदमी मन मुताबिक जींस भी पहनते हैं, कुरता पजामा भी पहन सकते हैं. चाहें तो शोर्ट्स में भी गली के चक्कर लगा लेते हैं. लेकिन जब बात लड़कियों की आती है मामला थोड़ा सा उलझ जाता है. वो साड़ी पहने तो बहनजी कहलाती है, बुरखा ओढ़े तो पुरातनपंथी कही जाती है और अगर ‘शोर्ट स्कर्ट’ पहने तो आवारा का खिताब पाती है. मुख्तलिफ मुल्कों में मुख्तलिफ तरीकों से औरत के लिए ‘ड्रेस कोड’ बनाने की कोशिश की जाती रही है. जहाँ भी औरत की बात आती है वहां मज़हब कट्टर हो जाते हैं जैसे मुस्लिम कामकाजी महिलाएं मर्दों से बात ना करें, मुस्लिम महिलाएं परदे में रहे, मुस्लिम महिलाएं मोडलिंग ना करें. इस तरह का कोई भी फतवा मर्दों के लिए जारी नहीं होता, इसकी वजह ये है कि कोई मुफ्ती साहब से मर्दों से जुडी सही गलत बातों के बारे में सवाल ही नहीं करता.

इस बात पर गौर करना ज़रूरी होगा कि कुछ महीने पहले एक फतवे में कहा गया था की मुस्लमान कामकाजी महिलाएं अपने पुरुष सहकर्मियों से बात चीत ना करें. इस्लाम के आखिरी पैगम्बर की बीवी 'खदीजा' खुद एक कामकाजी महिला थीं. हदीस के हिसाब से 'खदीजा' अपने वक़्त कि बेहद रईस औरतों में से थीं. ज़ाहिर सी बात है अगर वो ‘बिजनस वूमेन’ थीं तो उनके सहकर्मी मर्द रहे भी होंगे और उनसे ज़रूरी या गेंर ज़रूरी बातचीत भी होती होगी. अपने मौलानाओं की कोई भी बात आँख बंद कर मान लेने वालों को थोड़ा अपना दिमाग भी इस्तेमाल करना चाहिए.