वो गालियाँ देते हैं, आम लोगों को डराते धमकाते हैं, किसी को कुछ भी बोल देते हैं, ऐसे ऐसे शब्द इस्तेमाल करते हैं की कान मैं पिघलता हुआ शीशा उडेल दिया हो, वो किन्नर हैं. चमकते हुए कपडे कड़ी धुप में बेहद डार्क मकेउप के साथ बस स्टैंड पर खड़ी रहती हैं, चेहरा धुप से सूर्ख हो रहा है या लाली से मालूम नहीं. लोग कहते हैं की किन्नर गुंडा गर्दी करते हैं, बदतमीजी पर उतर आते हैं, लोगों के डर का फ़ायदा उठाते हैं. पर वो इस हाल में क्यूँ हैं यह कोई सोचना नहीं चाहता, हमारे समाज में जानवरों के भी रक्षक हैं, बड़ी बड़ी हस्तिया जानवरों पर हो रहे ज़ुल्म के लिए आवाज़ उठाती हैं और चंदे के नाम पर पैसा भी बटोरती हैं. पर किन्नरों का समुदाये आज भी अपने अधिकारों के लिए एक मुश्किल लडाई लड़ रहा है. जन्म के वक़्त ही माँ बाप छोड़ देते हैं और अगर ना भी छोड़ना चाहें तो समाज छुड़वा देता है. उन बच्चो को अपनाया नहीं जाता और फिर शुरू होता है है उनकी ज़िन्दगी का सफ़र जहाँ वो दूसरे किन्नरों के यहाँ ही पलते है बड़े होते है, ना पढाई ना लिखाई. ना मुस्तकबिल की बातें ना माजी की सुनहरी यादें...अब ऐसे में बड़ा होकर अगर वो लोगों से पैसा ना वसूले तो क्या करे क्यूंकि यही तरीका उन्होंने सीखा है...
हम प्रजातंत्र की बातें करते हैं, समान अधिकार के लिए debates करते हैं मगर ये समान अधिकार औरत मर्द के अधिकारों तक ही सीमित रहता है...समाज में तीसरा सेक्स भी है ये क्यूँ याद नहीं रहता? असल मैं हम बेहद मतलबी और दकियानूसी हैं, हमे क्या फर्क पड़ता है ? अपनी सोच के साथ चलते हुए दुनिया जहां पर राय देते हैं पर किन्नरों के पक्ष में एक लफ्ज़ बोलने से भी कतराते हैं. आज हमारे मुल्क में किन्नरों के पास वोट करने का अधिकार ना के बराबर है क्यूंकि वोटर आईडी के लिए जिन documents की ज़रुरत होती है वो उनके पास होते ही नहीं हैं. पब्लिक places पर मेल और फेमल के लिए सुलभ शौचालये की बहस होती है पर किन्नरों के लिए अलग से सुलभ शौचालयों के बारे में बात ही नहीं उठती. समाज ने उनके साथ जो किया किन्नर आज वही समाज को लौटा रहे हैं.
एक जगह सुना था की जब किसी किन्नर की मौत होती है तो उसकी मईयत रात के अँधेरे मैं लेकर जाते हैं, साथ ही उसकी लाश को जूतों से पीटा जाता है और कहा जाता है की फिर इस दुनिया में मत आना...
किन्नरों की सामाजिक व्यथा, उनके जीवन की कठिनाई को आपने बखूबी उठाया है। सच्चाई और इन्साफ की तलाश करती आपकी रचना पसंद आयी साथ में ब्लाग खोलते ही गीत भी।
ReplyDeleteआप ठीक कहते हैं। ऐसे लोगों की मुश्कलें कोई नहीं समझता हां ये हास्य या घृणा के पात्र जरूर हो जाते हैं। किन्नर के बारें में तो नहीं, पर सेक्स सम्बन्धित मुश्किलों का सामना करते हुऐ लोगों के बारे में मैंने भी कुछ विचार यहां और यहां रखें हैं।
ReplyDeleteफौजिया, वाकई दिल को सुकून मिला तुम्हे पढ़के, और थोडी इर्ष्या भी हुई, कि आज तलक मै इस विषय पर क्यूँ कुछ सोच नहीं सका. ख़ुशी है कि हमारे मोहल्ले में ऐसे लोग भी है जिन्हें उनकी परवाह है.. बहुत ही सही बात कही है तुमने.. उनका रवैया भले ही ठीक ना हो, पर वजह तो हम ही हैं. लोग मजहब के नाम, जाती के नाम पर दीवार बनाते हैं, उनका मजहब कौन सा है? ना तो वो हिन्दू, ना ही मुस्लिम, ना ही मुसहर, ना ही कुछ और.. बस एक नाम ही उनकी जाती और मजहब सब कुछ बतला देती है... हिजडा.. यशवंत फिल्म में एक डायलोग था, "एक मच्छर आदमी को हिजडा बना देता है".. मतलब डरपोक बना देता है, कायर, बुजदिल बना देता है.. पर क्या यह सच है... मै तो देखता हूँ, ट्रेन में लोगों की हालत भींगी बिल्ली के माफिक हो जाती है जब वो किसी किन्नड़ को अपनी तरफ बढ़ते देखते हैं.. इस हिसाब से तो वो नहीं हिजडा यह समाज है.. उसे हिकारत भरी नज़रों से देखने का क्या मतलब निकलता है.. तुमने बिलकुल सही कहा है और मै शत प्रतिशत सहमत हूँ तुम्हारे तर्क से..
ReplyDeletefauzia...
ReplyDeletemijhe nahee lagta thaa kee saamajik sarokar se itna matlab hoga tumhen...parantu ye mithyaa sabit hui.
tumne aise mudde ko uthaaya jahan kisi birlee ne bhee aaj tak jhankne kee kalpanaa nahee kee hai.....
tumhari nihswwarth abheewaykti ke aage natmastak hun.
एक जगह सुना था की जब किसी किन्नर की मौत होती है तो उसकी मईयत रात के अँधेरे मैं लेकर जाते हैं, साथ ही उसकी लाश को जूतों से पीटा जाता है और कहा जाता है की फिर इस दुनिया में मत आना...
ReplyDeletemaine bhi aisa suna hai........
bahut hi achcha lekh.......
प्रिय बहन फ़ौज़िया! आपने जिस विषय-वस्तु पर लिखा है सचमुच साहस की बात है। आप अल्फ़ाज़ के अलावा जिस सामुदायिक चिट्ठे पर लिखती हैं उसके संचालक ने मेरी लैंगिक विकलांगता को कुछ समय तक प्रसिद्धि और सनसनी के लिये कंटेंट के तौर पर इस्तेमाल करा और फिर बिना किसी बात के मेरे हिजड़ा होने की सज़ा दे दी और सदस्यता समाप्त कर दी।मैं एशिया ही क्या दुनिया की पहली लैंगिक विकलांग हिंदी ब्लागर हूं लेकिन आप लोग अब तक मेरे बारे में नहीं जानते क्योंकि मुझे हिंदी ब्लागरों ने भी दुरदुरा दिया है। समाज में भी तो यही लोग हैं कोई अलग तो नहीं। अगर कभी साहस जुटा सकें आप तो आपकी जो गलतफ़हमियां है मेरे समुदाय के बारे में मेरे सामुदायिक ब्लाग पर आकर पढिये ताकि भ्रमों का निवारण हो सके। लेकिन सभी लोग एक जैसे नहिं होते कुछ ऐसे भी हैं कि जब मेरे सगे परिवार ने तिरस्कार कर दिया तो उन्होंने आदर का स्थान दिया वो हैं मेरे देवतास्वरूप भाई डा.रूपेश श्रीवास्तव,जिन्होंने मुझे उंगली पकड़ा कर कंप्यूटर पर काम करना और ब्लागिंग करना सिखाया। जिस लक्षमी नारायण की तस्वीर आपने लगा रखी है उसके बारे में आप मात्र सच का सामना कार्यक्रम से जानते हैं और मैं पिछले पंद्रह साल से उन्हें जानती हूं। बेचारी को मजबूरी में उस कार्यक्रम मेम साठ प्रतिशत झूठ बोलना पड़ा लेकिन पालीग्राफ़ के धोखे ने दर्शकों को खूब बेवकूफ़ बनाया।
ReplyDeleteमेरा ब्लाग हैअर्धसत्य
kinaaro ki vyatha ko aapne sahi se uthaya hai...aapke blog par aakar achcha laga....bas isi tarah se likhte rahiye.....mere blog par bhi aaye..
ReplyDeleteबहुत ही संवेदनशील लेख. सोचने पर मजबूर कर दिया.
ReplyDeleteआपने बहुत अच्छे तरीके से समाज को आईना दिखाने की कोशिश की है। आपके सराहनीय और साहसी काम को सलाम। खासतौर पर विषय को सलाम।
ReplyDeleteकिन्नर नेताओं से कहीं अच्छे हैं..वो कभी भाई-भतीजावाद तो नहीं
ReplyDeleteफैलाएंगे...आपके ब्लॉग पर मां की कहानी ने देवलोक का अनुभव करा दिया...मां..शब्द ही ऐसा है जिसके आंचल में दुनिया भर का प्यार छिपा है...फौज़ियाजी, आपका ये एतबार आगे भी कुछ हट कर लिखने की प्रेरणा देता रहेगा...शुक्रिया
बहुत ही सही बात कही है
ReplyDeleteजिन कारणों से कोई किन्नर होता है, अब उसका इलाज़ भी संभव है. ज़रूरत इस बात की तो है कि उनके साथ मानवीय व्यवहार किया, पर इससे ज़्यादा ज़रूरी यह है कि किसी को यौन विकलांगता का शिकार ही न होने दिया जाए. अगर कोई हो भी गया है तो उसे इलाज मुहैया कराएं और समाज की मुख्यधारा में ले आएं.
ReplyDeleteये शर्म की बात है।
ReplyDeleteवैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाएं, राष्ट्र को उन्नति पथ पर ले जाएं।
aapne achha mudda uthaya hai
ReplyDeleteआप ने एकदम दुरुस्त फ़रमाया है,आप ने महत्वपूर्ण और सारगर्भित मुद्दा उठाया है...
ReplyDeleteकिसी बात को बिल्कुल डूब कर पकडना और पूरी संवेदना के साथ अभिव्यक्त कर पाना सच्चा साहित्य होता है.
ReplyDeleteआदमी की नज़र से देखने पर कोई किन्नरों को गलत और अपमानजनक नज़रों से नहीं देख सकता.....मैंने उन्हें सदा सम्मानीय नज़रों से ही देखा भी है....यहाँ रांची में एक किन्नर का मैं प्रशंसक भी हूँ....बहुत अद्भुत शख्सियत है वो.....!!बाकी आपकी बातें अच्छी लगीं.....इसी बहाने आपका व्यक्तित्व भी.....!!
ReplyDeleteThis comment has been removed by the author.
ReplyDeleteaapakee soch kee gaharaaee ko tahe dil se salaam .
ReplyDeleteन्नर सब एक परिवार की तरह रहते है |
ReplyDeleteहर किन्नर अपनी कमाई घर के बड़े के हाथ मे लाकर देते है |
घर की व्यवस्थता का , खर्चे का जिम्मा घर के उम्र मे सबसे बड़े किन्नर के हाथ होता है |
आज से चालीस साल पहले मेरी फ्रेंड ने जों कि TISS student थी हम दोनों ने मिल कर ये project किया था |
प्रश्नों की जों सूची थी उसका उन्होंने बड़े धैर्य से जवाब दिया था |उनके सीने मे भी दिल है जों हमारी तरह ही धड़कता है | काश ये समझ सबको हो |
फौजिया तुमने अभीतक अपने ब्लॉग जिन मुद्दों को छुआ है वो अपने आप में निराले है। एक से एक गंभीर और सोंचनीय मुद्दे पर अपनी कलम चलने के लिए शुक्रिया।
ReplyDeleteइस पोस्ट को आपने समाज के उस वर्ग पर खर्च किया है जिसके नाम से और जिसे देखकर हम कथित पूर्ण इंसानों को घिन्न आने लागती है। और हम नाक-भौं सिकुराने लगते है।
इससे पोस्ट पर एक किन्नर साथी ने भी कमेन्ट किया है उन्हें पढ़ कर तो ऐसा लगा की हम ब्लोगरो ने भी इस समाज से मुह मोड़ लिया है.
लैंगिक विकलांगों (हिजड़ों) के होने में उनका अपना क्या कसूर है !? हिजड़ों के बारें में अगर हम सभी पूर्वाग्रह हटाकर सोचें तो ‘‘मां-बाप द्वारा बच्चों के निस्वार्थ भाव से पालन-पोषण’’ को लेकर हमारी सभी बनी-बनायी, रटी-रटायी धारणाएं चूर-चूर होकर गिर पड़ती हैं। सिर्फ सामाजिक मान्यताओं और डरों से घबराकर अपने ’’कलेजे के टुकड़ों’’ को सदा-सर्वदा के लिए किसी अज्ञात में फेंक देना ! कैसी भयानक क्रूरता! अक्षम्य अपराध! हिजड़ों ने आखिर क्या बिगाड़ा है समाज का !? कमियां और अक्षमताएं समाज और परिवार की और भुगतते हैं नन्हें मासूम विकलांग। उनका पूरा जीवन एक गाली बना दिया जाता है। क्यों ? तथाकथित सहिष्णुता का ‘‘सच्चा सत्व’ सामने आ जाता है।
ReplyDeleteएक और बात उठती है मन में। कई लोग पूछ रहे हैं कि समाज की बेहतरी में इनका क्या योगदान है !? तो क्या जो स्त्री या पुरुष समलैंगिक नहीं हैं उन सभी का समाज की बेहतरी में योगदान है !? क्या उनको होना मात्र ही समाज को बदल देने या सुधार देने वाली महान घटना है !? समाज की बेहतरी में योगदान व्यक्तिगत समझ, इरादे और और अमल पर निर्भर करता है न कि स्त्री, पुरुष या समलैंगिक या हिजड़ा होने पर। शादी करके बच्चे पैदा कर देना फिर किसी भी तरह उन्हें ‘‘कमाऊ’’ बनाकर उनकी भी शादियां करवाकर उनके बच्चों के बड़े होने का इंतज़ार इसलिए करना कि फिर उनकी भी शादियां करवाकर हम गली-गली यह गा सकें कि ‘‘देखो हमने कितना महान सामाजिक जीवन जिया’’ और फिर यह गर्व करना कि हमने कुत्ते-बिल्लियों से कुछ बहुत इतर और महान सामाजिक कृत्य कर डाला है, मेरी समझ में तो आता नहीं।
वाकई संवेदनशील मुद्दा उठाने के लिये बधाई !
ReplyDelete